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जल प्रबंधन: स्रोत, उपयोगिता, उपलब्धता, संकट, संरक्षण के उपाय

जल प्रबंधन का तात्पर्य जल संसाधनों का उचित और सतत् उपयोग, संरक्षण और पुनर्भरण की प्रक्रिया से है. इसका उद्देश्य जल की उपलब्धता को वर्तमान और भविष्य की आवश्यकताओं के अनुसार बनाए रखना होता है. इसमें जल संचयन, वितरण, पुनर्चक्रण, गुणवत्ता नियंत्रण, और जल संसाधनों का संतुलित उपयोग शामिल है. जल प्रकृति का उपहार है और इसके बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती. इसलिए पर्यावरण-अनुकूल जल प्रबंधन इसके उपलब्धता को सुनिश्चित करता है.

जल, वायु के बाद जीवन के लिए सबसे महत्वपूर्ण तत्व है. पृथ्वी पर कुल 1460 मिलियन घन किमी जल है. लेकिन इसका केवल एक छोटा हिस्सा ही मानव उपयोग के लिए उपयुक्त है. विभिन्न देशों में जल उपलब्धता असमान है, और कई स्थानों पर गंभीर जल संकट का सामना करना पड़ता है.

प्राकृतिक स्रोतों से जल, जैसे वर्षा, भी सभी जगह समान रूप से नहीं होती. भारत में वार्षिक वर्षा औसतन 1150 मिमी होती है, लेकिन इसका केवल एक-चौथाई भाग ही हम उपयोग कर पाते हैं, शेष जल समुद्र में चला जाता है. जल भंडारण और संरक्षण की आवश्यकता अत्यधिक है, ताकि इसका अधिकतम उपयोग किया जा सके. सिंचाई के लिए पक्की नालियाँ, झीलों में वर्षा जल का संग्रह, और प्रदूषण रोकने के उपायों से जल की बचत हो सकती है.

वर्तमान में, जल प्रदूषण भी एक गंभीर समस्या बन गया है. नदियों और जल स्रोतों में सीवेज, उद्योगों का कचरा, और अन्य अपशिष्ट फेंके जाने से पानी दूषित हो रहा है, जिससे न केवल मानव बल्कि जलीय जीव भी प्रभावित हो रहे हैं. दूषित पानी के सेवन से पीलिया, हैजा, टाइफाइड जैसे रोग फैलते हैं. इसलिए, जल की शुद्धता और संरक्षण आवश्यक है.

इन्हीं तथ्यों के आधार पर जल-प्रबंधन के लक्ष्यों को निर्धारित किया गया है. ये है- जल की बर्बादी को कम करना, जल स्रोतों को सुरक्षित रखना, जल प्रदूषण को रोकना और जल संकट के प्रति समाज को जागरूक करना. विभिन्न तरीकों, जैसे वर्षा जल संचयन, जल पुनर्चक्रण, ड्रिप सिंचाई, और जागरूकता अभियानों के माध्यम से जल प्रबंधन को प्रभावी बनाया जा सकता है. ताकि भविष्य में जल संकट से बचा जा सके.

जल प्रबंधन का महत्व 

पानी का उपयोग कई क्षेत्रों में होता है, जैसे पीने, घरेलू कार्यों, सिंचाई, उद्योग, स्वास्थ्य, स्वच्छता, और मल-निकासी. जल विद्युत उत्पादन और परमाणु संयंत्रों के शीतलन में भी बड़ी मात्रा में पानी आवश्यक है. मत्स्य पालन, वानिकी, जल क्रीड़ाएँ, और पर्यटन भी जल पर निर्भर हैं. कृषि अर्थव्यवस्था में तो पानी का योगदान बेहद महत्वपूर्ण है. इस प्रकार, विकास के सभी क्षेत्रों में जल का उपयोग आवश्यक है, और इसकी मांग निरंतर बढ़ती जा रही है, खासकर बढ़ते नगरों में.

भारत कृषि प्रधान देश है. अत: सिंचाई के लिए विशाल जल-राशि की आवश्यकता होती है. वर्ष 2000 में सिंचाई के लिए 536 अरब घन मीटर जल का उपयोग किया गया. यह उपयोग की गई कुल जल राशि का 81 प्रतिशत है. शेष प्रतिशत जल का उपयोग घरेलू कार्यों, उद्योगों, ऊर्जा तथा अन्य कामों में होता है.

स्वतंत्रता के बाद सिंचित क्षेत्र में बहुत वृद्धि हुई है. 1999-2000 में कुल सिंचित क्षेत्र 8.47 करोड़ हेक्टेयर था. भारत में सिंचाई के लिए जल के उपयोग की अधिकतम क्षमता 11.35 करोड़ हेक्टेयर मीटर है. इस क्षमता का लगभग तीन चौथाई जल का ही उपयोग हो पाता है.

भारत में सिंचाई की मांग निरंतर बढ़ती जा रही है. सिंचाई की मांग बढ़ने के प्रमुख कारण हैं-

  • वर्षा के वितरण में क्षेत्रीय और ऋतुवत असमानता,
  • वर्षाकाल में भारी अन्तर और अनिश्चितता,
  • वाणिज्यिक फसलों के लिए जल की बढ़ती मांग, 
  • फसलों का बदलता प्रतिरूप.

जल के स्रोत

1. भूमिगत जल – वर्षा अवक्षेपण/बह जाने वाले जल का कुछ भाग धरती की सोखने की क्षमता के कारण सतह के नीचे चला जाता है. यह पानी भूमिगत जल तक पहुंच जाता है. धरती के नीचे के इस पानी की ऊपरी सतह को ग्राउंड वाटर टेबल (भूमिगत जल स्तर) कहते हैं. 

वर्षा की विभिन्नता तथा कुँओं द्वारा इस पानी की निकासी के कारण यह ग्राउंड वाटर लेवल ऊपर नीचे होता रहता है. जब किसी कुएँ या नलकूपों से पानी बाहर निकाला जा रहा होता है, तब आस पास का भूमिगत जल बह कर उस कुएं में आ जाता है. ग्राऊंड वाटर की स्थिति तथा उस इलाके के भूवैज्ञानिक रचना ही भूमिगत पूर्ति के विकास का आधार बनते हैं. 

2. भू पृष्ठ जल – जब भी अच्छी गुणवत्ता का पानी सतह जल के रूप में उपलब्ध हो, उसे ही पानी के स्रोत की तरह इस्तेमाल करना चाहिए. इससे कुआं खोदने का खर्च तथा जमीन के नीचे से पानी उठाने का खर्च बचता है. सतह जल के स्रोतों का वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है. 

  • प्रवाह (छोटी नदी) 
  • झील
  • तालाब 
  • जलाशय
  • नलकूप, जल भंडारण एवं आपूर्ति संरचना 
  • नदी तथा 
  • वर्षा एकत्रण जल व्यवस्था

लेकिन इन स्त्रोतों से प्राप्त जल के प्रदूषित होने का खतरा अधिक रहता है. इसलिए इन स्रोतों के जल को शुद्ध करके पीना चाहिए. लेकिन इनका उपयोग कृषि या ऐसे ही अन्य कार्यों के लिए बिना उपचार के भी किया जा सकता है. पर्वतीय क्षेत्रों में पाए जाने वाले प्राकृतिक झरने अधिकांशतः प्रदूषण से मुक्त होती हैं.

जल के प्रकार

जिस जल का हम उपयोग करते हैं वह बहुत ही कम है इसका कारण है विश्व में दो प्रकार के जल होना- 

  1. लवणीय जल – विश्व का लगभग 97.5 प्रतिशत जल लवणीय जल है जो कि खारापन लिये होता है.
  2. अलवणीय जल -विश्व में अलवणीय जल का लगभग 70 प्रतिशत भाग अंटार्कटिका ,ग्रीनलैंड व पर्वतीय क्षेत्रों में बर्फ की चादरों और हिमनदों के रुप में मिलता है जबकि 30 प्रतिशत से थोड़ा -सा कम भौमजल के जलभृत के रुप में पाया जाता है.

जल संसाधन की समस्याएं

  • वर्षा की कमी– भारत वर्ष के पश्चिमी भाग खासकर थार के रेगिस्तान तथा वृष्टि छाया वाले प्रदेश में वर्षा की कमी के कारण जल की समस्या बनी रहती हैं. 
  • शुद्ध पेय जल का अभाव– बढ़ती जनसंख्या एंव शहरीकरण के कारण आज हमारे लिये शुद्ध व मीठें पेयजल का अभाव हैं. ग्रामीण तालाबो में मछली पालन ने जल को हरा कर दिया हैं. 
  • जल का दुरूपयोग– सिंचाई के जल का नदी में चले जाना, नलों का खुलारहना, भूमिगत जल प्राप्ति की होड़ आदि ने भविष्य को खतरे में डाल दिया हैं. 
  • बाढ़ग्रस्त क्षेत्र– हमारे द्वारा पर्यावरण से छेड़छाड़ करने के परिणाम स्वरूप नदियों में बाढ़ आना स्वाभाविक हैं. 
  • जल प्रदूषण– कारखानों का गंदा पानी, शहरों के नालियों का गंदा जल एवं अनेक प्रकार के कचरा से जल जल प्रदूषण बढ़ रहा हैं. 
  • सूखाग्रस्त क्षेत्र- अनेक स्थानों पर वर्षा न होने पर आकाल पड़ जाते हैं. 

भारत में जल की उपलब्धता

भारत में जल संकट एक गंभीर स्थिति में है. देश के पास विश्व के ताजे जल का केवल 4% हिस्सा है, जबकि उसे विश्व की 18% जनसंख्या की जरूरतें पूरी करनी होती हैं. लगातार कमजोर मानसून के कारण, लगभग 330 मिलियन लोग सूखे से प्रभावित हुए हैं. नीति आयोग की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत के 21 प्रमुख शहरों का भूजल स्तर 2020 तक खत्म होने की कगार पर था, जिससे लगभग 100 मिलियन लोग प्रभावित हो सकते हैं.

2030 तक जल की मांग इसकी उपलब्धता से दोगुनी हो जाएगी. 1994 में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता 6000 घनमीटर थी, जो अब 2300 घनमीटर हो चुकी है और 2025 तक 1600 घनमीटर तक पहुंचने का अनुमान है. शहरी क्षेत्रों में लगभग 970 लाख लोग स्वच्छ पेयजल से वंचित हैं, और ग्रामीण क्षेत्रों में 70% लोग प्रदूषित पानी पी रहे हैं. दिल्ली का जल भी मानकों पर खरा नहीं उतरता. कुल मिलाकर, भारत का 70% पानी प्रदूषित है, और जल गुणवत्ता सूचकांक में देश का स्थान 122 में से 120वां है.

संयुक्त राष्ट्र की “इंटरकनेक्टेड डिजास्टर रिस्क रिपोर्ट, 2023” शीर्षक से एक नई रिपोर्ट के अनुसार भारत में जल संकट लगातार गहराता जा रहा है. कई राज्यों में भूजल अपने सबसे निचले बिंदु पर है. उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में 2025 तक गंभीर रूप से भूजल संकट गहरा सकता है. भारत भी सऊदी अरब की तरह भूजल संकट का सामना कर सकता है.

यूएन के इस रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया इस वक्त कई पर्यावरणीय समस्याओं से गुजर रहा है. इसमें भूजल की कमी, पहाड़ी ग्लेशियर का पिघलना, अंतरिक्ष मलबा और असहनीय गर्मी शामिल है. 70 फीसदी कृषि भूजल पर निर्भरलगभग 70 प्रतिशत भूजल निकासी का उपयोग कृषि के लिए किया जाता है। अक्सर जब भूमिगत जल स्रोत अपर्याप्त होते हैं तो सूखे के कारण कृषि पर गहरा नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

भारत दुनिया में भूजल का सबसे बड़ा उपयोगकर्ता है, जो संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के संयुक्त उपयोग से कहीं अधिक है. भारत का उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र देश की 1.4 अरब आबादी के लिए गेहूं का विशाल भंडार तैयार करता है. इसमें अकेले पंजाब और हरियाणा राज्य का 50 प्रतिशत उत्पादन शामिल है.

इस प्रकार यूएन के रिपोर्ट में जल संकट से भारतीय कृषि के सबसे अधिक प्रभावित होने की संभावना व्यक्त की गई है.

जल दुर्लभता के कारण

मांग के अनुसार जल की पूर्ति न हो पाना जल दुर्लभता (Water scarcity) कहलाता है. यही जल दुर्लभता विश्व की सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है जब कि पृथ्वी का तीन- चौथाई भाग जल से घिरा है और जल एक नवीकरण योग्य संसाधन है तब भी विश्व के अनेक देशों और क्षेत्रों में जल की कमी कैसे है?

जल दुर्लभता के मुख्य कारण है-

1. औद्योगीकरण – स्वतन्त्रता के पश्चात हमारे देश में तीव्र गति से.औद्योगीरण हुआ है. आज हमारे देश में उत्पादित कच्चे माल का निर्माण स्वयं के उद्योंगों में हो रहा है फलस्वरुप उद्योंगों में वृद्धि होती जा रही है. जिससे अलवणीय जल संसाधनों पर दबाव बढ़ता जा रहा है, उद्योंगों को अत्यधिक जल के अतिरिक्त उनके संचालन के लिए भी उर्जा की आवश्यकता होती है जिसकी पूर्ति जल विद्युत से होती है.

2. शहरीकरण – शहरीकरण भी जल दुर्लभता के लिए एक जिम्मेदार कारक है. इसने भी जल दुर्लभता की समस्या में वृद्धि की है. शहरों की निरन्तर बढ़ती जनसंख्या व शहरी जीवन शैली के कारण न केवल जल और उर्जा की आवश्यकता में वृद्धि हुई है. बल्कि उनसे सम्बन्धित समस्याए भी बढ़ गयी हैं.

3. जनसंख्या वृद्धि – यद्यपि भारत सरकार द्वारा देश में परिवार नियोजन सम्बन्धी अनेक कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं तथापि हमारे देश में जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि हो रही है जिस कारण जल की मॉंग में निरन्तर वृद्धि हो रही है. जल की बढ़ती मॉंग एवं उसका असमान वितरण जल दुर्लभता का कारण बनता जा रहा है . अधिक जनसंख्या जल संसाधनों का अति उपयोग कर रही है तथा उपलब्ध संसाधनों को प्रदूषित कर रही है.

4. जल प्रदूषण – जल दुर्लभता का एक प्रमुख कारण जल की खराब गुणवत्ता अर्थात् जल प्रदूषण भी रहा है.देश में प्रचुर मात्रा में उद्योग धन्धे हैं इनसे निकलने वाला अवसाद जल को प्रदूषित कर रहा है.बढ़ती जनसंख्या बढ़ता शहरीकरण अधिकांश मात्रा में कूड़ा निस्तारण जल में ही करता है परिणामस्वरूप पर्याप्त मात्रा में जल उपलब्ध होने के बावजूद यह धरेलू एवं औद्योगिक अपषिश्टों ,रसायनों, कीटनाशकों एवं कृशि में प्रयुक्त उर्वरकों द्वारा प्रदूषित हैं. 

अत: इस प्रकार का जल मानव के उपयोग के लिए खतरनाक है फलस्वरूप विभिन्न बीमारियों का सामना करना पड़ता है.

5. जल के वितरण में असमानता – हमारे देश में वर्षा में वार्षिक एवं मौसमी परिवर्तनों के कारण जल संसाधनों की उपलब्धता में समय और स्थान के अनुसार विभिन्नता पायी जाती है. जहॉं एक तरफ हमारे देश में मासिनराम(मेघालय) में विश्व की सर्वाधिक वर्षा होती है. वहीं दूसरी ओर राजस्थान का थार मरूस्थल सूखाग्रस्त है. प्रकृति के साथ-साथ जल के असमान वितरण के लिए हम भी जिम्मेदार हैं . 

अधिकांशत: जल की कमी इसके अतिशोषण ,अत्यधिक प्रयोग एवं समाज के विभिन्न वर्गों में जल के असमान वितरण के कारण होती है.

6. सिंचाई – उपलब्धता लोगों के लिए सिर्फ घरेलू उपभोग के लिए नहीं बल्कि अधिक अनाज उगाने के लिये भी आवश्यक है. जिन स्थानों पर वर्षा नहीं होती है वहॉं पर लोग उपलब्ध जल स्रोतों के द्वारा खेतों की सिंचाई करके अधिक उत्पादन करते हैं. जल संसाधनों का अति शोशण करके ही सिंचित क्षेत्र में वृद्धि की जा सकती है और शुष्क ऋतु(अर्थात् जब वर्षा नहीं होती) में भी कृशि की जा सकती है. हमारे देश के अधिकांश किसान निजी कुओं तथा नलकूपों से सिंचाई करते हैं व अपने कृशि उत्पादन में वृद्धि करते हैं. 

परिणामस्वरूप कृशि उत्पादन में वृद्धि तो हो जाती है किन्तु अधिक सिंचाई की वजह से भौमजल स्तर नीचे गिर रहा है तथा लोगों के लिए उपलब्ध जल में निरन्तर कमी होती जा रही है.

जल संरक्षण के उपाय 

पृथ्वी पर जीवन बनाए रखने के लिए पानी का संरक्षण सबसे आवश्यक कार्य है. हर साल 22 मार्च को विश्व जल दिवस मनाकर संयुक्त राष्ट्र पानी की महत्ता और संरक्षण के प्रति जागरूकता फैलाने का प्रयास करता है. इस दिन स्वच्छ पेयजल की उपलब्धता बनाए रखने और ताजे पानी के स्रोतों की सुरक्षा के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त की जाती है.

पानी की कमी भविष्य में गंभीर संकट का कारण बन सकती है, और इसके संरक्षण में समाज, सरकार, और हर व्यक्ति की भागीदारी अनिवार्य है. जल संरक्षण के लिए निम्न उपाय अपनाए जा सकते हैं:

  • नदियों के पानी को व्यर्थ न जाने देने के लिए बाँध और जलाशयों का निर्माण.
  • जल-स्त्रोतों को गन्दगी और प्रदूषक तत्वों से मुक्त रखना.
  • जल-स्त्रोतों का कल-कारखानों और शहरी कचरे से बचाव.
  • बाढ़ नियंत्रण के प्रयास.
  • पेयजल का सदुपयोग और जागरूकता.
  • टूटी पाइप लाइनों की शीघ्र मरम्मत.
  • वर्षा जल संचयन और अधिक पानी वाली फसलों को नियंत्रित करना.
  • अति-सिंचाई से बचना, व्यर्थ पानी न बहाना, नल से रिसाव रोकना.
  • वृक्षारोपण और प्राकृतिक जल स्रोतों की सफाई.

इन लक्ष्यों को जल के उचित प्रबंधन से ही प्राप्त किया जा सकता है. इसलिए, जल संरक्षण के प्रति सजग रहना हमारा कर्तव्य है.

जल चक्र- Source Youtube

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