जातिवाद (Casteism): उत्पत्ति, कारण, दुष्प्रभाव व रोकने के उपाय

सामान्य अर्थ मे अपनी जाति के प्रति निष्ठा का भाव ही जातिवाद (Casteism) है. जातिवाद जाति के सदस्यों की वह संकुचित भावना है, जो राष्ट्र तथा समाज के सामान्य हितों की अवहेलना करते हुए अपनी जाति के सदस्यों के हितों को बढ़ावा देती है तथा उन्हे आगे बढ़ने के अवसर प्रदान करती है.

दुनिया मे प्रायः हर समाज चाहे वह सरल से सरल हो अथवा जटिल से जटिल हो, कमोवेश किन्ही भागों मे बँटा होता है और उसमे कुछ न कुछ संस्तरण पाया जाता है. पहले भारतीय समाज वर्णों मे बँटा था यानि की पहले भारत मे वर्ण व्यवस्था थी. वर्ण व्यवस्था लचीली थी, उसमे एक से दूसरे मे आना-जाना संभव था. धीरे-धीरे यह गमनागमन कम होता गया और वर्णों के जातियों मे रूपान्तरण के साथ यह पूर्णतया अवरूद्ध हो गया. प्राचीन तथा मध्यकाल मे जाति अपने सदस्यों के लिये अन्त:क्रिया के व्यापक क्षेत्र और सामाजिक पहचान प्रदान करती थी.

दूसरे शब्दों मे, जाति वृहद समाज के अंतर्गत अपने आप मे एक समाज थी. व्यक्ति दूसरी जातियों के संपर्क मे रहते हुए भी बहुत कुछ अपनी ही जाति मे जीता था लेकिन वह जाति के प्रति अन्ध भक्ति या अन्ध निष्ठा नही रखता था. इसके विपरीत आधुनिक युग मे विशेष रूप से आजादी के बाद लोकतांत्रिक राजनीति के चलते व्यक्ति जाति को अपने व अपने जाति समूह के हितों की अभिवृद्धि का माध्यम समझने लगा जिससे समाज मे जातिवाद की धारणा मजबूत हुई.

समाज मे लोकतंत्र की स्थापना के साथ सत्ता पर सामंत वर्ग का एकल आधिपत्य समाप्त हो गया. परिणामस्वरूप, समाज मे विभिन्न जातियां अगड़े, पिछड़े और अति पिछड़े जाति समूहों के राजनैतिक दलो के रूप मे संगठित हो सत्ता हथियाने और उसके बल पर अपने व अपने भाइयों के हितों की अभिवृद्धि की दिशा मे अग्रसर हुई है.

लिहाजा जाति अब परम्परागत समाज की भाँति, खान-पान, हुक्का पानी, शादी-विवाह के कार्यक्षेत्र की निर्धारक कम, राजनैतिक शक्ति प्राप्त करने और उसके माध्यम से आर्थिक, सामाजिक व शैक्षिक हितों की पूर्ति का माध्यम अधिक बन गई है. अब लोग खान-पान, शादी-विवाह दूसरी जातियों मे कर लेते है, लेकिन राजनैतिक समर्थन आमतौर पर अपनी जाति के लोगों का ही करते है. मोटे अर्थ मे, लोगो का यह व्यवहार ही जातिवाद है. 

दूसरें शब्दों मे,  हम कह सकते है कि जातिवाद जातीय निष्ठा का राजनैतिक व सार्वजनिक जीवन मे रूपान्तरण है. 

इस लेख में हम जानेंगे

जातिवाद की परिभाषा (Definition of Casteism)

काका कालेलकर के अनुसार,” जातिवाद एक अबाधित अंध और सर्वोच्च समूह भक्ति है जो कि न्याय, ओचित्य, समानता और विश्व बंधुत्व की उपेक्षा करता है.”

के. एम. पणिक्कर के अनुसार,” राजनीति की भाषा मे उपजाति के प्रति निष्ठा का भाव ही जातिवाद है. अर्थात् जातिवाद के कारण व्यक्तियों मे उपजातियों के प्रति निष्ठा की भावना होती है. हर उपजाति अपनी ही उपजाति को लाभ पहुंचाना चाहती है चाहे इससे किसी अन्य उपजाति को कितनी ही हानि हो.” 

गांधी जातिवाद को सामाजिक बुराई और मानवीय समानता के विरुद्ध व्यवस्था मानते थे. वे “अस्पृश्यता” (Untouchability) को सबसे बड़ी सामाजिक बुराई मानते थे और कहते थे कि यह हिन्दू धर्म पर कलंक है. गांधी के अनुसार, जाति का कठोर विभाजन समाज को तोड़ता है और “वर्ण व्यवस्था” की मूल भावना (कर्तव्यों पर आधारित विभाजन) से अलग होकर “जातिवाद” एक अन्यायपूर्ण जन्म-आधारित भेदभाव बन गया है.

उनके शब्दों में: जाति प्रथा का स्थान केवल तब तक था जब तक वह श्रम-विभाजन के रूप में कार्य करती थी. लेकिन जैसे ही यह ऊँच-नीच और छुआछूत में बदल गई, यह विनाशकारी हो गई.

जवाहरलाल नेहरू ने जातिवाद को भारतीय समाज की प्रगति में सबसे बड़ी बाधा माना. उनके अनुसार, जातिवाद “व्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रतिभा को दबाने वाली व्यवस्था” है. उन्होंने कहा कि जाति-प्रथा ने भारतीय समाज को छोटे-छोटे खानों (compartments) में बाँट दिया है, जिससे एकता और आधुनिकता की राह कठिन हो जाती है. नेहरू जातिवाद को अतीत का अवशेष मानते थे, जो आधुनिक लोकतांत्रिक भारत के लिए अनुपयुक्त है.

डॉ. भीमराव अंबेडकर जातिवाद को संगठित सामाजिक असमानता और शोषण की प्रणाली मानते थे. उनके अनुसार, जाति-प्रथा केवल ऊँच-नीच का विभाजन नहीं है, बल्कि यह समाज में स्थायी और कठोर सामाजिक-आर्थिक विषमता स्थापित करती है.

अंबेडकर ने कहा: जाति न केवल लोगों को अलग करती है, बल्कि उन्हें असमान बनाती है. जाति-प्रथा मनुष्य के लिए मनुष्य को शत्रु बना देती है.” उन्होंने इसे लोकतंत्र, समानता और स्वतंत्रता के सबसे बड़े विरोधी तत्व के रूप में देखा. अंबेडकर की दृष्टि में जातिवाद “सामाजिक बंधन” नहीं, बल्कि “सामाजिक दासता” है.

उपरोक्त जातिवाद की परिभाषाओं से स्पष्ट है कि, जातिवाद एक संकीर्ण भावना या विचार है. इस भावना के चलते लोग केवल अपनी जाति के सदस्यों के हितों के बारे मे सोचते है. इतना ही नही वरन् दूसरी जातियों तथा समाज के व्यापक हितों को आघात पहुँचाकर अपनी जाति के हितों को पूर्ण करने के प्रयास करते है. इससे समाज और राष्ट्र के हितों की केवल अनदेखी ही नही होती वरन् उसकी प्रगति और विकास मे बाधा भी उत्पन्न होती है.

भारत में जातिवाद (Casteism) की उत्पत्ति

जातिवाद की उत्पत्ति एक जटिल ऐतिहासिक, सामाजिक और धार्मिक प्रक्रिया रही है. यह एक साथ धार्मिक ग्रंथों, सामाजिक संरचना और आर्थिक परिस्थितियों से विकसित हुआ. आइए इसे क्रमबद्ध रूप से समझते हैं:

1. वैदिक काल में प्रारंभिक आधार (1500 ई.पू. – 600 ई.पू.)

ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में समाज को चार वर्णों में बाँटा गया है:

  • ब्राह्मण (ज्ञान, शिक्षा, यज्ञ के कर्ता)
  • क्षत्रिय (शासन और युद्ध)
  • वैश्य (कृषि, पशुपालन, व्यापार)
  • शूद्र (सेवा और श्रम)

प्रारंभ में यह वर्ण व्यवस्था गुण और कर्म पर आधारित मानी जाती थी, यानी व्यक्ति अपने कार्य और क्षमता के अनुसार स्थान पा सकता था. उस समय यह कठोर सामाजिक विभाजन नहीं था; लोग वर्ण बदल भी सकते थे (जैसे ऋषि विश्वामित्र क्षत्रिय से ब्राह्मण बने).

2. उत्तर वैदिक काल और धार्मिक औचित्य (600 ई.पू. – 200 ई.)

समय के साथ वर्ण व्यवस्था जन्म-आधारित होने लगी. ब्राह्मणों ने धार्मिक ग्रंथों (मनुस्मृति, धर्मसूत्र) के माध्यम से अपने ऊँचे स्थान को स्थायी बनाने का प्रयास किया. मनुस्मृति (लगभग 2री सदी ईसा पूर्व – 2री सदी ईस्वी) में जातीय ऊँच-नीच और छुआछूत का स्पष्ट उल्लेख मिलता है. इस समय शूद्रों और स्त्रियों को धार्मिक और सामाजिक अधिकारों से वंचित किया गया.

3. मध्यकालीन भारत (7वीं सदी – 15वीं सदी)

जाति व्यवस्था और कठोर होती गई. समाज हजारों जाति(sub-castes / jatis) में विभाजित हुआ. इस समय आर्थिक कामकाज और पेशे जाति से जुड़ गए (जैसे लुहार, बढ़ई, जुलाहा, तेली, आदि). भक्ति आंदोलन (कबीर, रैदास, मीरा, तुलसी, चैतन्य, आदि) ने जातिवाद का विरोध किया और समानता का संदेश दिया. लेकिन जातिगत पहचान समाज और धार्मिक जीवन का गहरा हिस्सा बन चुकी थी.

4. औपनिवेशिक काल (18वीं – 20वीं सदी)

अंग्रेजों ने जनगणना और प्रशासन के लिए जातियों को आधिकारिक रूप से दर्ज किया.इससे जातिगत पहचान और मजबूत हो गई.ब्रिटिश “Divide and Rule” नीति के कारण जातीय भेदभाव और सामाजिक असमानता और गहरी हो गई.इसी समय सुधार आंदोलन शुरू हुए – राजा राममोहन राय, ज्योतिबा फुले, स्वामी दयानंद सरस्वती, महात्मा गांधी, और डॉ. अंबेडकर ने जातिवाद की जड़ें हिलाईं.

5. आधुनिक भारत (स्वतंत्रता के बाद)

संविधान (1950) ने अस्पृश्यता को समाप्त किया (अनुच्छेद 17). समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व को संवैधानिक मूल्य बनाया गया. आरक्षण और सामाजिक न्याय की नीतियों ने जातीय भेदभाव को कम करने का प्रयास किया. फिर भी जातिवाद आज भी सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन में गहरे तक मौजूद है.

जातिवाद के विकास के कारण (Reasons for Development of Casteism)

जातिवाद के कारण इस प्रकार है:

1. विवाह संबंधी प्रतिबंध 

जाति अन्तर्विवाही समूह है. प्रत्येक व्यक्ति को अपने जाति समूह मे से ही जीवन साथी का चुनाव करना पड़ता है. इस कारण व्यक्ति अपने जाति सदस्यों को आगे बढ़ाने के अवसर प्रदान करता है, ताकि वे नौकरी तथा अन्य सुविधायें प्राप्त कर सकें.

2. खान-पान पर प्रतिबंध 

प्रत्येक जाति अपने सदस्यों पर दूसरी जाति के सदस्यों के साथ सामाजिक सहवास तथा खानपान सम्बन्धी प्रतिबंध लागू करती है. इससे व्यक्ति के सुख-दुख मे केवल उसके जाति के सदस्य ही उसके साथ होते है.

3. सामान्य रीति-रिवाज, पूर्वज या व्यवसाय 

जाति का हर सदस्य जाति के दूसरे सदस्यों के साथ इसलिए जुड़ा हुआ है कि उनके रीति-रिवाज एक जैसे है, धार्मिक विचार एक जैसे है, पूर्वज एक थे या व्यवसाय एक है. इन सबसे भी जाति के प्रति वफादारी की भावना पैदा होती है.

4. जजमानी व्यवस्था का विघटन 

जजमानी व्यवस्था के कारण विभिन्न जातियों के बीच आपसी सम्बन्ध स्थापित होते थे. परन्तु इस व्यवस्था के खत्म होने से विभिन्न जातियों के पारस्परिक सम्बन्ध खत्म हुए. इससे जातिवाद के विचारों को प्रोत्साहन मिला.

5. जातीय स्थिति को उच्च करने की इच्छा 

अपनी जाति की स्थिति को उच्च करने की इच्छा के कारण व्यक्ति अपने जाति के सदस्यों को विभिन्न क्षेत्रों मे आगे बढ़ाने का प्रयास करते है, चाहे उनमे योग्यता हो या न हो.

6. वोट की राजनीति 

जातिवाद के विकास मे वोट की राजनीति भी जातिवाद के विकास का एक महत्वपूर्ण कारण है. प्रजातंत्र मे वोट का महत्व है. अतः चुनाव जीतने के लिये जाति का सहारा लिया जा रहा है. जिस क्षेत्र मे जिस जाति की बहुलता है, उस जाति के सदस्य को चुनाव मे टिकट आसानी से मिल जाता है. जातीय भावनाओं को उभारकर जो व्यक्ति चुनाव जीतता है, वह बाद मे अपनी जाति की उन्नति के बारे मे सोचता और कार्य करता है.

7. यातायात एवं प्रचार के साधनों मे वृद्धि 

प्रचार तथा यातायात के साधन भी जातिवाद के विकास का प्रमुख कारण है. पहले सभी व्यक्ति एक दूसरे से बहुत दूर-दूर बसे हुए थे. आवागमन व विचारों के आदान-प्रदान (संचार) के साधन नही थे. इसी कारणवश वे आपस मे संपर्क नही कर पाते थे एवं जातीय भावना से अनभिज्ञ थे. लेकिन आवागमन एवं प्रचार के साधनों द्वारा घनिष्ठता तथा संगठन स्थापित हो गए. इसके साथ ही प्रचार के माध्यम से जैसे समाचार-पत्रों तथा अन्य पत्रिकाओं द्वारा जातिवाद को दृढ़ता मिली.

8. जातियों का विभेदीकृत विकास 

पिछ़ड़ी जातियों को स्वतंत्रता के बाद शिक्षा, नौकरी आदि मे प्राथमिकता मिली. इनके लिये शिक्षा और नौकरी मे विभिन्न छूटें भी मिली. इससे कुछ जातियाँ तो अपनी स्थिति उच्च करने मे सफल हुई, लेकिन इसके बाद भी ये जातियाँ विभिन्न क्षेत्रों मे लाभ उठा रही है, जबकि अन्य जातियां अभी भी पिछ़ड़ी हुई है. इस भेदभावपूर्ण नीति के कारण अन्य जातियां भी संगठित हो रही है.

9. जातीय संगठनों का विकास 

जातीय संगठनों का विकास होना जातिवाद का एक प्रमुख कारण है. देश मे जातीय हितों की रक्षा एवं उनकी अभिवृद्धि, जातीय लोगों मे एकता कायम रखने तथा उनकी समस्याओं के समाधान एवं प्रगति को आसान बनाने के उद्देश्य से विशेष रूप से गत सदी के दौरान, देश के क्षेत्रीय, प्रान्तीय व राष्ट्रीय स्तरों पर अनेक जातीय संगठनों का निर्माण हुआ जैसे सर्व-ब्राह्मण परिषद्, क्षत्रिय महासभा, अग्रवाल समाज, माहेश्वरी समाज, कायस्थ सभा आदि.

जातिवाद के प्रभाव या दुष्प्रभाव या दुष्परिणाम 

भारतीय समाज पर जातिवाद के दुष्प्रभाव अत्यधिक व्यापक, गंभीर और दूरगामी है. वस्तुतः जातिवाद एक सामाजिक जहर है जिसने भारतीय समाज को इस प्रकार विषाक्त कर दिया है कि उसका इलाज हो पाना कठिन हो गया है. यदि इस जहर को आम जनजीवन से शीघ्र निकाला नही गया तो भारतीय समाज के लिये अपने अस्तित्व को बचा पाना कठिन हो जायेगा.

अतीत मे भारतीय समाज की अवनति व पतन के लिये जो भी कारक उत्तरदायी रहे है, उन सभी की संयुक्त भूमिका की तुलना मे अकेले जाति व्यवस्था की भूमिका अधिक उत्तरदायी रही है. आधुनिक युग मे जाति व्यवस्था किन्ही मायनों मे कमजोर हुई है तो किन्ही मायनो मे यह मजबूत भी हुई है. जातिवाद के रूप मे जाति व्यवस्था का जहर सामाजिक जीवन के प्रायः सभी भागों मे फैल गया है और धीरे-धीरे पूरे समाज को बिषाक्त करता जा रहा है.

जातिवाद के दुष्प्रभाव या प्रभाव इस प्रकार है:

1. जातिवाद से सामाजिक एकता का कमजोर होना

जातिवाद सामाजिक अलगाव की प्रवृत्ति का परिचायक है. जातिवाद के चलते व्यक्ति की निष्ठा अपनी जाति तक सीमित हो जाती है. वह जातीय हित को सामाजिक हित से श्रेष्ठ समझता है जिसकी वजह से वह उसकी पूर्ति मे जायज या नाजायज ढंग से लगा रहता है. इससे समाज मे सामुदायिक भावना का ह्रास होता है. सामुदायिक भावना के ह्रास से सामाजिक एकता कमजोर होती है. जातिवाद ने सामाजिक एकता के साथ राष्ट्रीय एकता को भी कमजोर किया है.

2. जातिवाद से सामाजिक संगठन को क्षति

जातिवाद के चलते हिन्दू समाज अलग-अलग जाति समूहों मे बँट जाता है. जिसमे हर एक का अपना जीवन ढंग, आदर्श, आराध्य देव व आदर्श पुरुष होता है. 

दूसरें शब्दों मे, हर एक की अपनी उप संस्कृति होती है. परिणामस्वरूप, हिन्दू समाज मे सामूहिक जीवन पद्धति का लोप हो जाता है. अलग-अलग जातियों की जीवन पद्धति मे भिन्नता की वजह से हिन्दू समाज मे आपसी भाईचारे, सहयोग और संगठन का अभाव होता है. फलस्वरूप, हिन्दूओं मे असुरक्षा, अलगाव व एकाकीपन व्याप्त हो जाता है.

3. अयोग्य व्यक्तियों का चयन 

जातिवाद के कारण निर्वाचन के समय व्यक्ति अपनी जाति के अयोग्य व्यक्तियों का निर्वाचन कर डालते है. इससे अयोग्य व्यक्तियों को सरकार मे पहुंचने का अवसर मिलता है तथा प्रशासकीय कार्यों मे बाधा पड़ती है.

4. जातिवाद से भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन 

अयोग्य व्यक्ति जातिवाद के कारण निर्वाचित हो जाते है तथा प्रशासन मे भ्रष्टाचार फैलता है. घूसखोरी, कार्य मे विलंब, अनियमितताएं आदि सभी दुर्बलताएं जातिवाद के आधार पर निर्वाचित अथवा नियुक्त पदाधिकारियों की ही देन है.

5. राष्ट्रीय एकता मे बाधक 

जातिवाद का एक दुष्प्रभाव राष्ट्रीय एकता मे बाधा पड़ना है. जातिवाद के कारण अनेक छोटे-छोटे उपजाति समूह संगठित हो जाते है. इससे व्यक्ति की सामुदायिक भावना अत्यंत संकुचित हो जाती है. यह केवल अपने समूह के हितों के बारे मे और सुख-सुविधाओं के बारे मे ही सोचता है.  यह स्थिति राष्ट्रीय एकता मे बाधक है.

6. गतिशीलता मे बाधक 

जातिवाद के कारण व्यक्ति स्थानीय बंधनों मे जकड़ जाता है. शिक्षा, अधिक धन प्राप्त करने, आदि के लिये बाहर जाना पड़ता है, लेकिन जातिवाद के बंधन उसे ऐसा करने से रोकते है. इस प्रकार गतिशीलता मे जातिवाद बाधक है.

7. योग्य व्यक्तियों मे बेकारी

जातिवाद के कारण अयोग्य व्यक्तियों का निर्वाचन हो जाता है, इससे समाज मे योग्य तथा कुशल व्यक्तियों को आगे बढ़ने का अवसर नही मिलता है. अतः योग्य व्यक्तियों मे बेकारी तथा असंतोष फैलता है.

8. नैतिक पतन 

जातिवाद के कारण व्यक्ति अपनी जाति के सदस्यों को आगे बढ़ाने के लिये हर उचित-अनुचित साधनों का प्रयोग करते है. इससे नैतिक मूल्यों का पतन होता है.

9. राष्ट्रीय विकास मे बाधा 

जातिवाद के कारण समाज विभिन्न भागो मे विभाजित हो जाता है, हर जाती अपनी ही जाति के सदस्यों का भला चाहती है. इससे राष्ट्रीय विकास कार्य मे बाधा पड़ती है.

जातिवाद को रोकने के उपाय 

जातिवाद का आधार जाति है. जब तक जाति रहेगी लोगो मे जाति की पहचान रहेगी और कमोवेश जातिवाद भी रहेगा. जाति के निवारण के लिए ढाई हजार साल पूर्व बुद्ध के समय से प्रयास चला आ रहा है, किन्तु जाति का खात्मा नही हो सका. वैसे जाति कोई ईश्वरीय व्यवस्था नही है. मानव समाज के इतिहास मे यह किन्ही विशिष्ट राजनैतिक व सामाजिक प्रक्रियाओं की देन है जिसमे भौतिक व सामाजिक दशाओ मे परिवर्तन के साथ परिवर्तन होता रहा है. जातिवाद को रोकने के उपाय इस प्रकार है:

1. जाति से जातिवाद का जन्म हुआ है, अतएव जातिवाद को समाप्त करने के लिए जाति शब्द का प्रयोग नही करना चाहिए. जिस प्रकार संविधान के अनुच्छेद 18 के माध्यम से सेना विद्या सम्बन्धी सम्मान के अतिरिक्त अन्य उपाधियों को समाप्त कर दिया गया है उसी प्रकार कानून के माध्यम से जाति सूचक शब्द को नाम के साथ जोड़ना निषिद्ध किया जाना चाहिए.

2. स्कूल, काॅलेज, धर्मशाला, छात्रावास आदि के नामकरण मे जाति सूचक शब्दों के प्रयोग को कानूनी तौर पर निषिद्ध किया जाना चाहिए.

3. जातीय संगठन, परिचय सम्मेलन पर कानूनी प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए.

4. जातीय आधार पर विवाह सम्बन्धी विज्ञापनों को प्रतिबंधित किया जाना चाहिए. 

5. अंतर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहन देकर भी जातिवाद को रोका जा सकता है. जब एक जाति के लोग दूसरी जाति मे विवाह संबंधों की स्थापना करेंगे तो जातिवाद की समाप्ति स्वतः ही हो जायेगी.

6. जातिवाद को रोकाने के लिए शिक्षा का स्तर इतना ऊंचा उठ जाना चाहिए कि लोग जातीय संकीर्णता से दूर रहें.

7. संचार माध्यमों के द्वारा जाति विरोधी जनमत तैयार किया जाना चाहिए.

8. ग्रामीण समाज मे जात-पाँत का अधिक कठोरता से पालन होता है. विभिन्न जातियों मे खान-पान, मेल-मिलाप, आना-जाना एवं मैत्री सम्बन्ध शहरो मे बहुत पहले से चलन मे है लेकिन गाँवों मे जातिगत दूरी और भेदभाव अभी बदस्तूर कायम है. ऐसे मे जाति व्यवस्था को कमजोर करने तथा जातिवाद को प्रभावहीन बनाने की दृष्टि से नगरीयकरण का तीव्र गति से विकास किया जाना चाहिए.

9. जाति का एक महत्वपूर्ण आधार उसका परम्परागत व्यवसाय है. जजमानी व्यवस्था के माध्यम से व्यावसायिक समूहों के बीच सम्बन्धों को स्थायी व मजबूत बनाया गया है. ऐसे मे जाति एवं जातिवाद को कमजोर करने के लिये इन दोनो आधारो को कमजोर किये जाने की जरूरत है. इसके लिए समाज मे विशेष रूप से ग्रामीण समाज मे व्यावसायिक एवं आर्थिक गतिशीता को बढ़ाने के प्रयत्नों को तेज किया जाना चाहिए.

10. जातीय संगठन व जातीय चेतना को कमजोर करने के लिए समाज मे वर्गीय संगठन (अर्थात् वर्गाधारित संगठन) व वर्गीय चेतना के विकास के लिए प्रयास किया जाना चाहिए.

11. अंतर्जातीय सम्मेलनों के माध्यम से जातिवाद का बहिष्कार करना चाहिए.

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