सरकारी बजट किसी भी अर्थव्यवस्था के संचालन और दिशा निर्धारण में एक केंद्रीय भूमिका निभाता है. यह केवल एक वित्तीय दस्तावेज नहीं है, बल्कि सरकार का एक महत्वपूर्ण नीतिगत घोषणापत्र है जो देश की आर्थिक प्राथमिकताओं और सामाजिक उद्देश्यों को दर्शाता है. यह एक वित्तीय वर्ष (1 अप्रैल से 31 मार्च तक) के लिए सरकार की अनुमानित प्राप्तियों और खर्चों का विस्तृत ब्यौरा प्रस्तुत करता है.
सरकारी बजट और संवैधानिक आधार (Government Budget and Constututional Provision)
सरकारी बजट का उल्लेख भारतीय संविधान के अनुच्छेद 112 में है. इसके अनुसार, प्रत्येक वित्तीय वर्ष के लिए अनुमानित प्राप्तियों और खर्चों का ब्यौरा संसद में प्रस्तुत करना सरकार का संवैधानिक कर्तव्य है. इस दस्तावेज को ‘वार्षिक वित्तीय ब्यौरा’ के नाम से जाना जाता है. यह सरकार का मुख्य बजट संबंधी घोषणा पत्र होता है.
बजट एक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय नीति के रूप में कार्य करता है. यह देश की अर्थव्यवस्था के स्वरूप का प्रतिबिंब होता है. यह आर्थिक विकास को निर्देशित करने, सामाजिक कल्याण को प्रभावित करने और समय के साथ व्यापक आर्थिक स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए एक रणनीतिक उपकरण है. यह सरकार के दृष्टिकोण और अर्थव्यवस्था के लिए उसकी प्राथमिकताओं को दर्शाता है.
बजट में दो मुख्य प्रकार के खाते शामिल होते हैं: राजस्व खाता (जिसे राजस्व बजट भी कहते हैं), जिसका संबंध सरकार की संपत्ति और देनदारियों से नहीं होता, और पूँजीगत खाता (जिसे पूँजीगत बजट भी कहते हैं), जिसका संबंध सरकार की संपत्ति और देनदारियों से होता है.
सरकारी बजट के उद्देश्य (Aims of Government Budget)
सरकारी बजट के मुख्य उद्देश्य अर्थव्यवस्था में सरकार की भूमिका को परिभाषित करना है. संसाधनों का कुशल आबंटन, आय का न्यायसंगत पुनर्वितरण और व्यापक आर्थिक स्थिरीकरण इसके उद्देश्य है. भारत में मिश्रित अर्थव्यवस्था है. इसलिए सरकारी बजट में सार्वजनिक निगमों से जुड़े प्रावधान भी शामिल होते है.
आबंटन कार्य (सार्वजनिक वस्तुओं का प्रावधान)
सरकार उन विशिष्ट वस्तुओं और सेवाओं को उपलब्ध कराती है जिन्हें बाजार तंत्र द्वारा कुशलतापूर्वक प्रदान नहीं किया जा सकता, अर्थात् उपभोक्ताओं और उत्पादकों के बीच विनिमय के माध्यम से. राष्ट्रीय सुरक्षा, सड़कें और सरकारी प्रशासन इसके प्रमुख उदाहरण हैं, जिन्हें सार्वजनिक वस्तुएं कहा जाता है.
सार्वजनिक वस्तुएं निजी वस्तुओं से दो मुख्य तरीकों से भिन्न होती हैं:
- गैर-प्रतिद्वंदी: सार्वजनिक वस्तुएं सभी के लिए उपलब्ध होती हैं, और उनके लाभ किसी एक उपभोक्ता तक सीमित नहीं होते. एक व्यक्ति द्वारा उनका उपभोग दूसरों के लिए उनकी उपलब्धता को कम नहीं करता. उदाहरण के लिए, एक सार्वजनिक पार्क या वायु प्रदूषण नियंत्रण के उपाय सभी के लिए उपलब्ध होते हैं, और कई लोग एक साथ उनका लाभ उठा सकते हैं.
- गैर-अपवर्जनीय: सार्वजनिक वस्तुओं के लाभ से किसी को भी वंचित करने का कोई प्रभावी तरीका नहीं है. इन वस्तुओं के लिए शुल्क एकत्र करना अक्सर कठिन या असंभव हो जाता है.
इस तरह, सरकार द्वारा सार्वजनिक वस्तुओं की आपूर्ति को आबंटन कार्य कहा जाता है. यदि बाजार अपनी अंतर्निहित विशेषताओं के कारण आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं को कुशलतापूर्वक प्रदान नहीं कर सकता है, तो सरकार अपने बजट का उपयोग करके उनके प्रावधान को सुनिश्चित करती है, जिससे बाजार प्रणाली में एक मूलभूत दोष को ठीक किया जा सके. इसके पीछे जनकल्याण की भावना भी होती है, जो संविधान के समाजवाद, सामाजिक न्याय और आर्थिक समानता के प्रावधानों को पूरा करने मे मदद करती है.
सार्वजनिक प्रावधान और सार्वजनिक उत्पादन में अंतर होता है. वस्तुओं का सार्वजनिक प्रावधान का अर्थ है कि उनका वित्तपोषण बजट के माध्यम से होता है और बिना किसी प्रत्यक्ष भुगतान के उनका उपयोग किया जा सकता है. सार्वजनिक वस्तुओं का उत्पादन निजी क्षेत्र या सरकार द्वारा किया जा सकता है. जब वस्तुओं का उत्पादन सीधे सरकार द्वारा किया जाता है, तो इसे सार्वजनिक उत्पादन कहा जाता है.
पुनः आबंटन कार्य (आय वितरण)
सरकार आय के वितरण अधिक न्यायसंगत बनाने के लिए बजट का उपयोग करती है. देश की कुल राष्ट्रीय आय का प्रवाह या तो निजी क्षेत्र की ओर या सरकार की ओर होता है. सरकार हस्तांतरण भुगतान (जैसे सब्सिडी और पेंशन) और कर एकत्रीकरण के माध्यम से घरेलू क्षेत्र की प्रयोज्य आय को प्रभावित कर सकती है.
प्रगतिशील कराधान (उच्च आय पर उच्च कर दरें) धनवानों की प्रयोज्य आय को कम करती है. यह सीधा संबंध आय असमानताओं को कम करने, गरीबी को कम करने और एक सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने का तरीका है.
इस प्रकार, सरकार आय के वितरण को बदल सकती है और समाज को आय-वितरण की ऐसी स्थिति में ला सकती है जिसे न्यायसंगत माना जाए. इसे वितरण कार्य कहा जाता है.
स्थिरीकरण कार्य (आय और रोजगार में उतार-चढ़ाव को कम करना)
सरकार को आय और रोजगार में उतार-चढ़ाव को भी कम करना होता है. अर्थव्यवस्था में रोजगार और कीमतों का स्तर कुल मांग पर निर्भर करता है.
- मंदी की स्थिति में: कभी-कभी मांग का स्तर श्रम और अर्थव्यवस्था के अन्य संसाधनों के पूर्ण उपयोग के लिए अपर्याप्त हो सकता है. चूंकि मजदूरी दरें और कीमतें एक निश्चित स्तर से नीचे नहीं गिरती हैं, रोजगार स्वतः अपने पूर्व स्तर पर नहीं लौटता. ऐसी स्थिति में, सरकार को समग्र मांग का स्तर बढ़ाने के लिए अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप करना पड़ता है.
- मुद्रास्फीति की स्थिति में: दूसरी ओर, कभी-कभी उच्च रोजगार की स्थिति में मांग उपलब्ध उत्पादन से अधिक हो सकती है, जिससे मुद्रास्फीति की संभावना उत्पन्न हो सकती है. ऐसी स्थिति में, मांग को कम करने के लिए प्रतिबंधात्मक उपायों की आवश्यकता हो सकती है.
सरकार का हस्तक्षेप, चाहे वह मांग का विस्तार के लिए हो या कम करने के लिए, स्थिरीकरण कार्य कहलाता है. यह कार्य सरकारी बजट को व्यापक आर्थिक स्थिरता के लिए एक महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में स्थापित करता है. राजकोषीय उपायों द्वारा सरकार व्यापार चक्र को संतुलित कर सकती है. इससे स्थिर आर्थिक विकास, रोजगार और मूल्य स्तर प्राप्त होता है. यह तीव्र आर्थिक उतार-चढ़ाव को रोकने और टिकाऊ आर्थिक वातावरण के लिए आवश्यक है.
बजट के उपरोक्त उद्देश्यों में आर्थिक विकास और स्थिरता, क्षेत्रीय असमानता को कम करना समेत एक मिश्रित अर्थव्यवस्था में सरकारी बजट के लक्ष्य भी समाहित है.
सरकारी बजट के अवयव (Components of Government Budget)
सरकारी बजट को दो मुख्य भागों में वर्गीकृत किया जाता है: प्राप्तियाँ और व्यय. ये आगे राजस्व और पूँजीगत घटकों में विभाजित होते हैं, जो सरकार के वित्तीय स्वास्थ्य और प्राथमिकताओं को दर्शाते हैं.
राजस्व प्राप्तियाँ (Revenue Receipts)
राजस्व प्राप्तियाँ वे प्राप्तियाँ हैं जिनका दावा सरकार से नहीं किया जा सकता, अर्थात् ये गैर-प्रतिदेय होती हैं. इन्हें कर तथा गैर-कर राजस्व में विभाजित किया जाता है.
कर राजस्व (Tax Revenue)
प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों से प्राप्त राजस्व को कर राजस्व कहा जाता है. व्यक्तिगत आयकर, संपत्ति कर, उपहार कर जैसे कर प्रत्यक्ष कहलाते है. वहीं, सीमाशुल्क, जीएसटी और उत्पाद शुल्क को अप्रत्यक्ष कर कहा जाता है.
गैर-कर राजस्व (Non-Tax Revenue)
केंद्र सरकार द्वारा जारी ऋणों पर ब्याज प्राप्तियां, सरकार के निवेश से प्राप्त लाभांश और लाभ, तथा सरकार द्वारा प्रदान की गई सेवाओं से प्राप्त शुल्क और अन्य प्राप्तियां शामिल हैं. इसमें सरकार को प्राप्त नकद सहायता अनुदान भी शामिल किए जाते हैं. राजस्व प्राप्ति के आकलन में वित्त विधेयक में किए गए कर प्रस्तावों के प्रभावों पर विचार किया जाता है.
पूँजीगत प्राप्तियाँ (Capital Receipts)
पूँजीगत प्राप्तियाँ वे प्राप्तियाँ हैं जिनसे सरकार पर देयता (liability) पैदा होती है या उसकी वित्तीय संपत्तियों (financial assets) में कमी आती है. सरकार द्वारा ऋण और विनिवेश से प्राप्त राशि इसी श्रेणी में आती है.
राजस्व व्यय (Revenue Expenditure)
केंद्र सरकार का वह व्यय जो भौतिक या वित्तीय परिसंपत्तियों के सृजन के अतिरिक्त अन्य उद्देश्यों के लिए किया जाता है, राजस्व व्यय है. इसे योजनागत (Plan) और गैर-योजनागत (Non-Plan) व्यय मदों में बांटा जाता है. ब्याज भुगतान, रक्षा सेवाएं, वेतन और पेंशन इसके उदाहरण है.
पूँजीगत व्यय (Capital Expenditure)
पूँजीगत व्यय वे व्यय हैं जिनके परिणामस्वरूप भौतिक या वित्तीय परिसंपत्तियों का सृजन होता है या वित्तीय दायित्वों में कमी आती है. बजट दस्तावेज में इसे भी योजना और गैर-योजनागत व्यय के रूप में वर्गीकृत किया जाता है. इसमें भूमि अधिग्रहण, भवन निर्माण, मशीनरी, उपकरण और शेयरों में निवेश शामिल है. केंद्र या राज्य द्वारा सार्वजनिक उपक्रमों या अन्य पक्षों को दिए गए ऋण व अग्रिम भी पूंजीगत व्यव हैं.
पूँजीगत व्यय का आर्थिक विकास पर दीर्घकालिक प्रभाव होता है. यह अर्थव्यवस्था के लिए भविष्य में प्रतिफल और लाभ उत्पन्न करता है. यह अधिक टिकाऊ होता है और समग्र राष्ट्रीय विकास में योगदान देता है.
सरकारी घाटा (Government Deficit)
जब सरकार अपनी आय से अधिक खर्च करती है, तो घाटा उत्पन्न होता है. विभिन्न प्रकार के घाटे सरकार की वित्तीय स्थिति और उसके ऋण-ग्रहण की आवश्यकताओं के बारे में अलग-अलग अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं.
राजस्व घाटा (Revenue Deficit)
राजस्व घाटा सरकार की राजस्व प्राप्तियों के ऊपर राजस्व व्यय के अधिशेष को बताता है. अर्थात, राजस्व घाटा = राजस्व व्यय – राजस्व प्राप्तियाँ.
राजस्व घाटा लंबे समय तक जारी रहना राजकोषीय स्वास्थ्य और दीर्घकालिक आर्थिक स्थिरता के लिए एक चेतावनी का संकेत होता है.
राजकोषीय घाटा (Fiscal Deficit)
राजकोषीय घाटा सरकार के कुल व्यय और ऋण-ग्रहण को छोड़कर कुल प्राप्तियों का अंतर है. इस प्रकार, सकल राजकोषीय घाटा = कुल व्यय – (राजस्व प्राप्तियाँ + गैर-ऋण से सृजित पूँजीगत प्राप्तियाँ).
गैर-ऋण से सृजित पूँजीगत प्राप्तियाँ ऐसी प्राप्तियाँ हैं जो ऋण-ग्रहण के अंतर्गत नहीं आती हैं, इसलिए इनसे ऋण में वृद्धि नहीं होती है. इसके उदाहरण हैं-ऋणों की वसूली और सार्वजनिक उपक्रमों की बिक्री से प्राप्त राशि.
- वित्तपोषण: राजकोषीय घाटे का वित्त पोषण ऋण-ग्रहण के द्वारा ही किया जाता है. अतः इससे सभी स्रोतों से सरकार के ऋण-ग्रहण संबंधी आवश्यकताओं का पता चलता है. वित्तीय पक्ष से, सकल राजकोषीय घाटा = निवल घरेलू ऋण-ग्रहण + भारतीय रिज़र्व बैंक से ऋण-ग्रहण + विदेशों से ऋण-ग्रहण. निवल घरेलू ऋण-ग्रहण के अंतर्गत ऋण उपकरणों (जैसे विविध लघु बचत योजनाएँ) के माध्यम से सीधे जनता से प्राप्त ऋण और वैधानिक तरलता अनुपात (एस.एल.आर.) के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से व्यावसायिक बैंकों से प्राप्त ऋण आते हैं.
राजकोषीय घाटे में राजस्व घाटे का बड़ा हिस्सा बताता है कि उधार का एक बड़ा हिस्सा उपभोग व्यय के लिए उपयोग किया जा रहा है, न कि निवेश के लिए. उच्च राजकोषीय घाटा भविष्य में उच्च ब्याज भुगतान का कारण बन सकता है. यह सरकार के वित्तीय विवेक और दीर्घकालिक ऋण स्थिरता का एक महत्वपूर्ण माप है.
केंद्र सरकार की प्राप्तियों और व्यय का एक स्नैपशॉट निम्नलिखित तालिका में प्रस्तुत किया गया है, जो सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में अनंतिम अनुमानों को दर्शाता है:
बजट 2024-25 पर एक नज़र (करोड़ रुपए में)
वास्तविक आंकड़े 2022-23 | बजट 2023-24 | वास्तविक आंकड़े 2023-24 | बजट 2024-25 | % परिवर्तन (2023-24 वास्तविक से 2024-25 बीई) | |
राजस्व व्यय | 34,53,132 | 35,02,136 | 34,94,036 | 37,09,401 | 6.2% |
पूंजीगत व्यय, जिसमें: | 7,40,025 | 10,00,961 | 9,48,506 | 11,11,111 | 17.1% |
(i) पूंजीगत परिव्यय | 6,24,757 | 8,37,127 | 7,87,411 | 9,18,695 | 16.7% |
(ii) ऋण और अग्रिम | 1,15,268 | 1,63,834 | 1,61,095 | 1,92,416 | 19.4% |
कुल व्यय | 41,93,157 | 45,03,097 | 44,42,542 | 48,20,512 | 8.5% |
राजस्व प्राप्तियां | 23,83,206 | 26,32,281 | 27,28,412 | 31,29,200 | 14.7% |
पूंजी प्राप्तियां, जिसमें: | 72,196 | 84,000 | 60,461 | 78,000 | 29.0% |
ऋणों की वसूली* | 26,161 | 23,000 | 27,338 | 28,000 | 2.4% |
अन्य प्राप्तियां (विनिवेश सहित)* | 46,035 | 61,000 | 33,123 | 50,000 | 51.0% |
कुल प्राप्तियां (उधार को छोड़कर) | 24,55,402 | 27,16,281 | 27,88,872 | 32,07,200 | 15.0% |
राजस्व घाटा | 10,69,926 | 8,69,855 | 7,65,624 | 5,80,201 | -24.2% |
सकल घरेलू उत्पाद का % | 3.9% | 2.9% | 2.6% | 1.8% | |
राजकोषीय घाटा | 17,37,755 | 17,86,816 | 16,53,670 | 16,13,312 | -2.4% |
सकल घरेलू उत्पाद का % | 6.4% | 5.9% | 5.6% | 4.9% | |
प्राथमिक घाटा | 8,09,238 | 7,06,845 | 5,89,799 | 4,50,372 | -23.6% |
सकल घरेलू उत्पाद का % | 3.0% | 2.3% | 2.0% | 1.4% |
नोट: *लेखा महानियंत्रक से 2023-24 के लिए ऋण वसूली और विनिवेश के वास्तविक आंकड़े.
स्रोत: बजट पर एक नज़र, केंद्रीय बजट दस्तावेज़ 2024-25; पीआरएस.
प्राथमिक घाटा (Primary Deficit)
प्राथमिक घाटे के माप का लक्ष्य वर्तमान राजकोषीय असंतुलन पर प्रकाश डालना है. वर्तमान व्यय के राजस्व से अधिक होने के कारण होने वाले ऋण-ग्रहण के आकलन के लिए प्राथमिक घाटे की परिकलन की जाती है.
यानि, सकल प्राथमिक घाटा = सकल राजकोषीय घाटा – निवल ब्याज दायित्व (Net Interest Liability).
प्राथमिक घाटा यह दर्शाता है कि सरकार को ब्याज भुगतान को छोड़कर अपनी वर्तमान व्यय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कितना उधार लेना पड़ रहा है. यह सरकार की वर्तमान राजकोषीय स्थिति का अधिक स्पष्ट चित्र प्रस्तुत करता है. यदि प्राथमिक घाटा अधिक है, तो यह दर्शाता है कि सरकार की वर्तमान नीतियां अस्थिर हैं और उसे अपने व्यय को कम करने या राजस्व बढ़ाने की आवश्यकता है. यह इससे यह पता चलता है कि भविष्य में ब्याज भुगतान के कारण कितना ऋण बढ़ेगा.
राजकोषीय नीति (Fiscal Policy in Hindi)
कीन्स के ‘द जनरल थ्योरी ऑफ इम्प्लॉयमेंट इंटरेस्ट एंड मनी’ में प्रतिपादित विचारों के अनुसार, सरकार की राजकोषीय नीति का उपयोग निर्गत और रोजगार के स्तर को स्थिर करने के लिए किया जाना चाहिए. सरकार व्यय और करों में परिवर्तन करके अर्थव्यवस्था के उतार-चढ़ाव को स्थिर करने और निर्गत व आय में वृद्धि करने का प्रयास करती है. इस प्रक्रिया में, राजकोषीय नीति एक अधिशेष या एक संतुलित बजट के बजाय एक घाटे के बजट का सृजन करती है.
सरकार दो विशिष्ट विधियों से प्रत्यक्ष रूप से संतुलित आय के स्तर पर प्रभाव डालती है:
- सरकारी वस्तुओं और सेवाओं का क्रय (G): इससे समस्त मांग में वृद्धि होती है.
- करों और अंतरणों का प्रभाव: करों और अंतरणों से आय (Y) और प्रयोज्य आय (YD) प्रभावित होती है. प्रयोज्य आय वह आय है जो परिवार के उपभोग और बचत के लिए उपलब्ध होती है.
राजकोषीय गुणकों (Fiscal Multipliers) का अर्थव्यवस्था पर प्रभाव (Video में)
सार्वजनिक ऋण और घाटे में कटौती के उपाय (Measures to reduce public debt and deficit)
सार्वजनिक ऋण तब उत्पन्न होता है जब सरकार अपने बजटीय घाटे को पूरा करने के लिए उधार लेती है. यदि सरकार का ऋण-ग्रहण एक वर्ष के बाद दूसरे वर्ष भी जारी रहता है, तो इससे ऋण का संचय होता है. यह ब्याज अदायगी स्वयं ऋण की मात्रा में योगदान करती है. सार्वजनिक ऋण के बोझ को लेकर विभिन्न आर्थिक दृष्टिकोण प्रचलित हैं.
परंपरागत दृष्टिकोण में ऋण को एक बोझ माना जाता है. इस दृष्टिकोण के अनुसार, सार्वजनिक ऋण अगली पीढ़ी पर बोझ डालता है. इसके विपरीत रिकार्डो समतुल्यता में ऋण को बोझ नहीं माना जाता है. इसमें ऋण को भविष्य में होने वाली आय की आशा से खर्च माना जाता है. भविष्य के उपभोक्ता, वर्तमान के ही संताने है, इसलिए वे सोच-विचारकर उनके बेहतरी के लिए ही खर्च करेंगे. लेकिन विदेशों से लिया गया ऋण एक बोझ होता है, क्योंकि इसमें ब्याज अतिरिक्त धन के रूप में लौटाना पड़ता है.
घाटे में कटौती के उपाय
कर राजस्व में वृद्धि: सरकार प्रत्यक्ष कर (जैसे आयकर) बढ़ाकर पैसे जुटाती है. अप्रत्यक्ष कर (जैसे GST) सभी पर समान असर डालते हैं, इसलिए इनका कम इस्तेमाल होता है. सार्वजनिक कंपनियों के शेयर बेचकर (विनिवेश) भी आय बढ़ाई जाती है.
सरकारी व्यय में कटौती: सरकार सुशासन और बेहतर योजनाओं से खर्च कम कर सकती है. उदाहरण के लिए, गरीबों तक 1 रुपये का लाभ पहुंचाने के लिए 3.65 रुपये खर्च होते हैं, इसे कम करने की जरूरत है. सरकार कुछ क्षेत्रों से हट सकती है, लेकिन शिक्षा, स्वास्थ्य, और गरीबी उन्मूलन जैसे जरूरी क्षेत्रों में कटौती से नुकसान हो सकता है. खर्च पर नियंत्रण के लिए सरकार खुद नियम बनाती है, जैसे FRBMA 2003.
राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम (FRBMA) 2003: इसका उद्देश्य घाटे को नियंत्रित करना और वित्तीय अनुशासन लाना है. यह अधिनियम घाटे और कर्ज को सीमित करता है, लेकिन कल्याणकारी खर्च में कटौती की आशंका रहती है. घाटा बढ़ना हमेशा सरकार की नीतियों की वजह से नहीं होता; मंदी में आय कम होने से भी घाटा बढ़ सकता है. इस अधिनियम की मुख्य प्रावधान इस प्रकार है:
- राजकोषीय घाटा GDP के 3% तक लाना और राजस्व घाटा खत्म करना.
- हर साल घाटे में 0.3% (राजकोषीय) और 0.5% (राजस्व) की कटौती.
- केवल आपदा या राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे विशेष मामलों में घाटा बढ़ सकता है.
- RBI से कर्ज लेने पर रोक और वित्तीय पारदर्शिता के लिए संसद में नियमित रिपोर्ट.
घाटे और ऋण के अन्य परिप्रेक्ष्य
- मुद्रास्फीति: यह तब होती है जब सरकार ज़्यादा खर्च करती है या कर कम करती है, जिससे माँग बढ़ती है. अगर कंपनियाँ इस बढ़ी माँग के अनुसार उत्पादन नहीं कर पातीं, तो कीमतें बढ़ जाती हैं. लेकिन अगर संसाधनों का सही इस्तेमाल नहीं हो, तो माँग कम होने पर उत्पादन रुक सकता है. अगर राजकोषीय घाटा (सरकारी खर्च > आय) ज़्यादा हो, तो माँग और उत्पादन दोनों ज़्यादा हो सकते हैं, और ज़रूरी नहीं कि इससे मुद्रास्फीति हो.
- निवेश में कमी (क्राउडिंग आउट): निवेश में कमी से निजी क्षेत्र के लिए उपलब्ध बचत की मात्रा में कमी होती है. ऐसा इसलिए है क्योंकि सरकारी बॉन्ड अन्य फ़र्मों के फंड जुगाड़ तंत्र से प्रतिस्पर्धा करने लगती है.
- उत्पादन में वृद्धि का लक्ष्य: अगर सरकारी घाटे से उत्पादन बढ़ता है, तो लोगों की आय और बचत भी बढ़ेगी. इससे सरकार और उद्योग ज़्यादा कर्ज ले सकते हैं, क्योंकि अर्थव्यवस्था में स्थिरता आएगी.
- आधारभूत संरचना में निवेश: सरकार अगर सड़क, बिजली जैसे क्षेत्रों में निवेश करती है, तो भविष्य में फायदा होगा. यह निवेश ब्याज से ज़्यादा रिटर्न देगा, उत्पादन बढ़ाएगा, और कर्ज को बोझ नहीं, बल्कि अर्थव्यवस्था की प्रगति का हिस्सा माना जाएगा.
निष्कर्ष (Conclusion)
सरकारी बजट देश की अर्थव्यवस्था का आधार है. यह सिर्फ आय-खर्च का हिसाब नहीं, बल्कि सरकार की सामाजिक-आर्थिक योजनाओं को दर्शाने वाला नीतिगत दस्तावेज है. यह संसाधनों के बंटवारे, आय के पुनर्वितरण और आर्थिक स्थिरता के लिए काम करता है.
राजस्व और पूँजीगत आय-खर्च सरकार की प्राथमिकताएं और वित्तीय स्थिति दिखाते हैं. राजस्व घाटा (उपभोग के लिए कर्ज), राजकोषीय घाटा (कुल कर्ज), और प्राथमिक घाटा (ब्याज को छोड़कर असंतुलन) आर्थिक स्वास्थ्य को दर्शाते हैं. राजकोषीय नीति आर्थिक उतार-चढ़ाव को नियंत्रित करती है और स्थिर विकास में मदद करती है.
सार्वजनिक ऋण का इस्तेमाल उत्पादक निवेश में हो, तो यह विकास को बढ़ावा देता है. FRBMA जैसे कानून घाटे को नियंत्रित करते हैं, और GST जैसे कर सुधार कर प्रणाली को आसान और पारदर्शी बनाते हैं.
कुल मिलाकर, बजट सरकार को आर्थिक चुनौतियों से निपटने, कल्याण बढ़ाने और लंबे समय तक विकास के लिए मार्गदर्शन करने का एक गतिशील उपकरण है. इसका असर सरकार की नीतियों और आर्थिक स्थिति के संतुलन पर निर्भर करता है.