हरित क्रांति का अर्थ कृषि क्षेत्र में तीव्र गति से हुए उस बदलाव से है, जिसमें अल्प समय में कृषि उत्पादन में बड़ी वृद्धि हुई और जिसे आने वाले समय तक बनाए रखा जा सका. ‘हरित’ शब्द कृषि फसलों का संकेतक है और ‘क्रांति’ का तात्पर्य तेजी से हुए स्थायी परिवर्तन से है. इस प्रकार कृषि उत्पादन में क्रन्तिकारी वृद्धि को ‘हरित क्रांति‘ कहा जाता है.
भारतीय संदर्भ में, हरित क्रांति 1960 के दशक के मध्य में आई, जब उन्नत किस्म के बीज, रासायनिक खाद, सिंचाई, आधुनिक तकनीक और कृषि मशीनरी के प्रयोग से कृषि उत्पादन में तेजी से वृद्धि हुई. इसके तहत कृषि में तकनीकी ज्ञान, कृषि क्षेत्र में ऋण और शिक्षा के विस्तार ने भी अहम भूमिका निभाई. कृषि वैज्ञानिकों ने इस अभूतपूर्व कृषि उत्पादन वृद्धि को ‘हरित क्रांति’ का नाम दिया.
1960 के दशक में नॉर्मन बोरलॉग द्वारा शुरू किए गए कृषि अनुसंधान का परिणाम हरित क्रान्ति के रूप में सामने आया था. डॉ. बोरलॉग को “हरित क्रांति के जनक” के रूप में भी जाना जाता है. इन्हें 1970 में उच्च उपज देने वाली किस्मों (HYVs) के विकास के लिए शान्ति का नोबेल पुरस्कार भी प्रदान किया गया.
बोरलॉग के पदचिन्हों पर चलते हुए भारत में इसका नेतृत्व मुख्य रूप से एम.एस. स्वामीनाथन ने किया, जिससे गेहूं और चावल के उत्पादन में भारी वृद्धि हुई. इस क्रांति ने 1967-68 और 1977-78 के बीच भारत को खाद्यान्न की कमी वाले देश से अग्रणी कृषि देशों में बदल दिया.
हरित क्रांति में मुख्य रुप से दो बाते आती हैं:- पहला, उत्पादन तकनीक में सुधार और दुसरा कृषि उत्पादन में वृद्धि.
हरित क्रांति को नवीन कृषि रणनीति के नाम से भी जाना जाता है. नई कृषि युक्ति (New Agricultural Strategy) को 1966 ई0 में एक पैकेज के रुप में शुरु किया गया और इसे अधिक उपज देने वाले किस्मों का कार्यक्रम (High Yielding Variety Programme) की संज्ञा दी गई.
इस रणनीतिक योजना का वित्तपोषण भारत सरकार और अमेरिका की फोर्ड एंड रॉकफेलर फाउंडेशन (Ford and Rockefeller Foundation) ने किया था.
हरित क्रांति के लाभ (Benefits of Green Revolution):
- खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि – हरित क्रांति से गेहूँ, बाजरा, चावल, मक्का और दालों का उत्पादन बढ़ा, जिससे भारत खाद्यान्न में आत्मनिर्भर हो गया और प्रति हेक्टेयर उत्पादन भी कई गुना बढ़ा, साल 1978-79 में भारत में 131 मिलियन टन अनाज का उत्पादन हुआ. यह उस वक्त विश्व में सर्वाधिक था.
- परम्परागत स्वरूप में परिवर्तन – किसानों में आधुनिक तकनीक अपनाने की प्रवृत्ति बढ़ी और खेती अब केवल जीविकोपार्जन से आगे बढ़कर एक आय का साधन बन गई.
- कृषि बचतों में वृद्धि – उत्पादन वृद्धि से किसानों के पास अधिक बचतें हुईं. किसानों ने इस धन का उपयोग कृषि यंत्रों और नए तकनीक खरीदने में किया. इससे औद्योगिक विकास को प्रोत्साहन मिला. इसलिए हरित क्रांति को कृषि में पूंजीवाद का प्रवेश कहा जा सकता है.
- आत्मविश्वास में वृद्धि – किसानों, सरकार और जनता में यह विश्वास बढ़ा कि भारत न केवल आत्मनिर्भर बन सकता है, बल्कि खाद्यान्न निर्यात भी कर सकता है.
- खाद्यान्न आयात में कमी – हरित क्रांति से भारत में खाद्यान्न आयात लगभग समाप्त हो गया, जिससे विदेशी मुद्रा की बचत हुई.
- कृषि और औद्योगिक क्षेत्र में मजबूती – कृषि के आधुनिकीकरण से उद्योगों के साथ कृषि का संबंध और मजबूत हुआ, जैसे कि कृषि यंत्रों और उर्वरकों की मांग बढ़ी.
- रोजगार के नए अवसर – उत्पादन वृद्धि के कारण फसल कटाई और कृषि आधारित उद्योगों में रोजगार बढ़ा, जिससे सेवा और परिवहन क्षेत्र में भी रोजगार के अवसर बढ़े.
- ग्रामीण विकास – हरित क्रांति के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में सार्वजनिक और निजी निर्माण कार्यों में वृद्धि हुई, और बैंकों की गतिविधियां भी बढ़ीं.
हरित क्रांति से कृषि में आधुनिकता आई, उत्पादन बढ़ा, और देश की अर्थव्यवस्था मजबूत हुई.
हरित क्रांति की हानि (Loss from Green Revolution)
हरित क्रांति ने कृषि उत्पादन में वृद्धि और खाद्यान्न आपूर्ति में सुधार लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, लेकिन इसके कई नकारात्मक प्रभाव भी सामने आए. इन नुकसानों का सारांश निम्नलिखित है:
- कृषि विकास में असंतुलन: हरित क्रांति का लाभ सीमित क्षेत्रों और कुछ फसलों तक ही हुआ. इससे केवल कुछ राज्यों (जैसे पंजाब, हरियाणा) में ही कृषि में प्रगति हुई, जबकि अन्य राज्यों में कोई विशेष सुधार नहीं हुआ. यह क्षेत्रीय असमानता को बढ़ाने वाला कारक बना.
- सीमित फसल उत्पादन: हरित क्रांति मुख्य रूप से गेहूं और चावल की पैदावार पर केंद्रित रही. अन्य फसलों जैसे दालों, तिलहन और कपास के लिए उच्च उपज वाले बीज सफल नहीं रहे, जिससे फसलों की विविधता में कमी आई.
- आय में असमानता: हरित क्रांति से बड़े किसानों को अधिक लाभ हुआ, जबकि छोटे किसानों की स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हुआ. इसके परिणामस्वरूप आय में असमानता बढ़ी और कई छोटे किसानों को अपनी ज़मीन छोड़नी पड़ी.
- पूंजीवादी खेती को बढ़ावा: हरित क्रांति के लिए मशीनों, उर्वरकों, और सिंचाई में बड़े निवेश की जरूरत थी, जो केवल बड़े किसान ही कर सकते थे. इससे छोटे किसानों को नए तकनीकी लाभ से वंचित रहना पड़ा.
- रोजगार के अवसरों में कमी: मशीनों के उपयोग से श्रमिकों की आवश्यकता कम हो गई, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी बढ़ी.
- भूमि और मानव स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव: रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अधिक उपयोग से भूमि की उपजाऊ क्षमता कम हुई और लोगों के स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा. भूजल के अत्यधिक उपयोग से जल स्तर घट गया और पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचा.
- भूमि सुधार कार्यक्रमों की अनदेखी: हरित क्रांति से बड़े किसानों को लाभ हुआ, लेकिन भूमि सुधार की कमी के कारण छोटे किसानों को इसका पूरा लाभ नहीं मिल सका.
- जरूरी सुविधाओं की कमी: छोटे किसानों के पास सिंचाई, आर्थिक सहायता, और सस्ती कृषि सामग्रियों की कमी थी, जिससे वे हरित क्रांति का पूरा लाभ नहीं उठा सके.
- उत्पादन लागत में वृद्धि: आधुनिक कृषि तकनीकों के उपयोग से उत्पादन लागत बढ़ी, जिससे किसानों पर आर्थिक बोझ बढ़ गया.
इन कारणों से हरित क्रांति ने जहां कुछ क्षेत्रों में लाभ पहुंचाया, वहीं कई समस्याएं भी उत्पन्न कीं, जो आज भी भारतीय कृषि के सामने चुनौतियां बनी हुई हैं.
व्यापक हरित क्रांति की सफलता के लिए आवश्यक शर्तें
- भूमि सुधार कार्यक्रमों को बढ़ावा: हरित क्रांति की व्यापकता के लिए प्रभावी भूमि सुधार आवश्यक है. सीमा निर्धारण से प्राप्त अतिरिक्त भूमि को भूमिहीन किसानों में बांटा जाना चाहिए और चकबंदी को प्रभावी बनाकर खेतों के बंटवारे पर रोक लगानी होगी, जिससे नई तकनीकों का सही ढंग से प्रयोग किया जा सके.
- कृषि वित्त का विस्तार: छोटे किसान भी हरित क्रांति का लाभ उठा सकें, इसके लिए वित्तीय संस्थाओं को उन्हें आसान किस्तों में ऋण उपलब्ध कराना चाहिए. कृषि की नई तकनीकें अपनाने के लिए उन्हें प्रोत्साहन भी दिया जाना चाहिए.
- सिंचाई सुविधाओं का विस्तार: विशेषकर सूखे और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में सिंचाई सुविधाओं का विस्तार आवश्यक है. लघु सिंचाई परियोजनाओं, वर्षा जल संचयन और स्प्रिंकलर प्रणाली का उपयोग करके पानी, बिजली और श्रम की बचत की जा सकती है.
- हरित क्रांति का अन्य फसलों पर विस्तार: गेहूं और चावल के साथ-साथ दालें, कपास, तिलहन, गन्ना आदि फसलों के उन्नत बीजों का विकास होना चाहिए. इससे कृषि उत्पादन में संतुलन आएगा और कृषि में समग्र सुधार संभव होगा.
- सीमांत और छोटे किसानों को लाभ देना: हरित क्रांति का लाभ बड़े किसानों तक सीमित रहा है, इसलिए छोटे किसानों को सहकारी खेती अपनाने, भूमि सुधार कार्यक्रमों को तेजी से लागू करने और बैंक द्वारा सरलता से कृषि सुविधाएं उपलब्ध कराने की आवश्यकता है.
- मूल्य नीति को प्रोत्साहनकारी बनाना: सरकार की मूल्य नीति का विस्तार अन्य फसलों तक भी होना चाहिए ताकि सभी फसलों के उत्पादन को प्रोत्साहन मिल सके और असंतुलन दूर हो सके.
- उन्नत किस्म के बीजों का विकास: गेहूं और चावल के अलावा अन्य फसलों जैसे दाल, तिलहन, कपास और पटसन के उन्नत बीज विकसित किए जाने चाहिए, जिससे विविधता में वृद्धि हो और छोटे किसानों को अधिक विकल्प मिलें.
- शुष्क खेती को प्रोत्साहन: सिंचाई सुविधाओं से वंचित सूखे क्षेत्रों में ऐसी फसलें उगाने की जरूरत है जो कम समय में पक सकें और सूखे से प्रभावित न हों.
- फसल बीमा योजना: छोटे और सीमांत किसानों को जोखिम से सुरक्षा देने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा फसल बीमा योजना का लाभ पहुंचाया जाना चाहिए. इससे प्राकृतिक आपदाओं के समय किसानों को आर्थिक सहायता मिल सकेगी और उनका आत्मविश्वास बढ़ेगा.
सदाबहार हरित क्रांति (Evergreen Green Revolution)
सदाबहार हरित क्रांति का विचार डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन द्वारा प्रस्तुत किया गया था, जो भारत में हरित क्रांति के जनक माने जाते हैं. हरित क्रांति ने भारत को खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भरता की ओर ले जाने में मदद की, लेकिन इसके साथ ही कई पर्यावरणीय और सामाजिक चुनौतियाँ भी आईं. गहन कृषि और रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों के अंधाधुंध उपयोग के कारण भूमि की उर्वरता घटने लगी, जलस्तर कम हुआ, और जैव विविधता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा. इन प्रतिकूल प्रभावों को ध्यान में रखते हुए, एक स्थायी और पर्यावरण के अनुकूल समाधान के रूप में सदाबहार हरित क्रांति का प्रस्ताव रखा गया.
सदाबहार हरित क्रांति का उद्देश्य
सदाबहार हरित क्रांति का मुख्य उद्देश्य एक ऐसी कृषि प्रणाली विकसित करना है, जो न केवल उत्पादकता बढ़ाए बल्कि पर्यावरण, अर्थव्यवस्था, और समाज के लिए भी टिकाऊ हो. इसके अंतर्गत निम्नलिखित पहलुओं पर ध्यान केंद्रित किया गया है:
- पर्यावरण के अनुकूल कृषि: सदाबहार हरित क्रांति का मुख्य सिद्धांत यह है कि कृषि उत्पादकता में वृद्धि इस तरह से होनी चाहिए कि वह प्राकृतिक संसाधनों को नुकसान न पहुँचाए. रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के स्थान पर जैविक खेती, प्राकृतिक उर्वरक, और कीट प्रबंधन तकनीकों का उपयोग बढ़ावा दिया जाता है. इस प्रकार की तकनीकों से मिट्टी की उर्वरता बनी रहती है, जल प्रदूषण कम होता है और पारिस्थितिकी संतुलित रहती है.
- स्थायी प्रौद्योगिकी: सदाबहार हरित क्रांति में कृषि की ऐसी प्रौद्योगिकियों का विकास और प्रसार किया जाता है, जो टिकाऊ हों और कम संसाधनों में अधिक उत्पादन दे सकें. उदाहरण के लिए, ड्रिप सिंचाई प्रणाली, जीरो टिलेज (बिना जुताई की खेती), और जल-संवर्धन तकनीकें इसके कुछ पहलू हैं, जिनसे जल संसाधनों की बचत की जा सकती है और भूमि का क्षरण कम होता है.
- जैव विविधता का संरक्षण: परंपरागत हरित क्रांति में मुख्य रूप से गेहूं और चावल जैसी कुछ चुनिंदा फसलों पर ध्यान केंद्रित किया गया था. इसके विपरीत, सदाबहार हरित क्रांति विभिन्न प्रकार की फसलों को अपनाने का पक्षधर है. यह न केवल खाद्यान्न में विविधता लाता है बल्कि जैव विविधता को भी संरक्षित करता है. विविध फसलों की खेती से कीटों और बीमारियों का खतरा कम होता है और यह पारिस्थितिक संतुलन को बनाए रखने में सहायक होता है.
- कृषि में नवाचार का प्रसार: सदाबहार हरित क्रांति में पारंपरिक कृषि ज्ञान और नवीन कृषि तकनीकों के बीच सामंजस्य स्थापित किया जाता है. इससे किसान नई तकनीकों को आसानी से अपना सकते हैं और उनके लिए कृषि अधिक लाभकारी हो जाती है.
- छोटे और सीमांत किसानों के लिए लाभकारी: सदाबहार हरित क्रांति का एक अन्य महत्वपूर्ण उद्देश्य छोटे और सीमांत किसानों को सशक्त बनाना है. इस क्रांति में ऐसी तकनीकों का विकास किया जाता है जो छोटे किसानों के लिए सस्ती और सुलभ हों, ताकि वे भी कृषि में स्थिरता ला सकें और उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार हो.
- सामाजिक और आर्थिक टिकाऊपन: इस क्रांति में उत्पादकता वृद्धि का उद्देश्य केवल आर्थिक लाभ नहीं है, बल्कि यह समाज में सभी वर्गों के लिए लाभकारी और संतुलित होना चाहिए. सदाबहार हरित क्रांति में आय के समान वितरण पर जोर दिया जाता है ताकि सभी किसान, विशेष रूप से छोटे और गरीब किसान, इसका लाभ उठा सकें. इससे ग्रामीण क्षेत्रों में आय की असमानता कम होती है और सामाजिक संतुलन बना रहता है.
सदाबहार हरित क्रांति के लाभ
- पर्यावरण संरक्षण: इस क्रांति के अंतर्गत जैविक और प्राकृतिक तकनीकों का उपयोग बढ़ता है, जिससे पर्यावरणीय क्षरण कम होता है और प्राकृतिक संसाधनों का संतुलन बना रहता है.
- पोषण सुरक्षा: जैव विविधता को बढ़ावा देने के कारण विविध प्रकार के खाद्य पदार्थ उपलब्ध होते हैं, जिससे लोगों को पोषण में भी सुधार होता है.
- आर्थिक स्थिरता: छोटे और सीमांत किसान भी नई तकनीकों का उपयोग कर सकते हैं, जिससे उनकी आय बढ़ती है और आर्थिक असमानता कम होती है.
- पारिस्थितिकी संतुलन: सदाबहार हरित क्रांति के अंतर्गत पारिस्थितिकी तंत्र को ध्यान में रखकर कृषि पद्धतियाँ विकसित की जाती हैं, जिससे भूमि, जल और जैव विविधता का संरक्षण होता है.
निष्कर्ष
सदाबहार हरित क्रांति एक ऐसा दृष्टिकोण है, जो कृषि को न केवल उत्पादकता की दृष्टि से बल्कि पर्यावरण और समाज के प्रति भी जिम्मेदार बनाता है. यह हरित क्रांति के प्रतिकूल प्रभावों को सुधारने का एक प्रयास है, जिसमें पर्यावरणीय और सामाजिक स्थिरता को प्राथमिकता दी जाती है. सदाबहार हरित क्रांति से हम एक ऐसी कृषि व्यवस्था की ओर बढ़ सकते हैं जो आने वाली पीढ़ियों के लिए भी टिकाऊ और लाभकारी हो.