दिल्ली सल्तनत के पतन के कारण और अंत

इतिहास में कई राजवंशों और साम्राज्य के उत्थान और पतन का दास्तां दर्ज़ है. दिल्ली सल्तनत का पतन भी इसी कड़ी का एक हिस्सा है. तुर्क आक्रमणकारी  मुहम्मद गोरी ने प्रसिद्ध शासक पृथ्वीराज चौहान को हराकर दिल्ली में अपना राज्य स्थापित किया था. मध्यकालीन इतिहास में इसे ही दिल्ली सल्तनत कहा गया है. इनका शासन औपचारिक रूप से 13वीं शताब्दी के आरंभ से बाबर द्वारा दिल्ली पर फतह करने तक रहा. फरगना के शासक इलबरी तुर्क बाबर ने 1526 में दिल्ली के शासक इब्राहिम लोदी को हरकार दिल्ली सल्तनत का अंत कर दिया और भारत में एक नए राजवंश, मुगलों के सत्ता का नींव पड़ा.

इस आक्रमण से दिल्ली सल्तनत का पतन हो गया. लेकिन इस लड़ाई में कमजोर पड़ने के पीछे कई कारण है. हमे ये समझना जरूरी है कि किन कारणों से दिल्ली सल्तनत कमजोर हुई, जो एक कबीलाई आक्रमण के कारण ढह गया. तो आइए जानते है दिल्ली सल्तनत के पतन के कारण.

दिल्ली सल्तनत के पतन के कारण

दिल्ली सल्तनत के पतन के कारण इस प्रकार है:

1. स्थायी सेना समाप्त करना

फिरोज शाह तुगलक ने स्थायी सेना समाप्त करके सामन्ती सेना का गठन किया. सैनिकों के वेतन के बदले भूमि अनुदान दिया गया. अमीरों के वंशानुगत भूमि के तरह सैनिकों की भूमि भी वंशानुगत कर दिया गया. स्थायी आय का स्त्रोत प्राप्त हो जाने पर सैनिक स्वच्छाचारिता पूर्ण कार्य करने लगे. उन्हें भूमि से बेदखल नहीं किया जा सकता था. इसलिए उन्हें किसी का डर भी नहीं था.

नियमित व निश्चित भूमिकर प्राप्त होने से सैनिक आलसी विलास प्रिय होने लगा. उसका अधिकांश समय लगान वसुली में बीतता था. राज्य सुरक्षा के लिए समय नहीं बच पाता था. इस प्रकार के शिथिल सेना का लाभ विदेशियों ने उठाया

2. गुलाम प्रिय शासक

दिल्ली सल्तनत गुलामों का शौकिन था. गुलामों को अपनी शक्ति मानकर उनके प्रशिक्षण के लिए पृथक विभाग की स्थापना किया. दासों को पर्याप्त वेतन और सुविधाएं देने के कारण राजकोष पर भारी आर्थिक दबाव पड़ा. आगे चलकर दास संगठित होकर तुगलक साम्राज्य के विरूद्ध विद्रोह करने लगे.

3. जजिया व अन्य कर लगाना

सुल्तान मुहम्मद तुगलक ने ब्राम्हणों व गैर मुसलमानों पर धार्मिक कर लगा दिया. यह हिन्दू व गैर मुसलमान के लिए सुल्तान से अलगाव का कारण बना.

4. न्याय व्सवस्था में लचीलापन

मुहम्मद तुगलक के न्याय शरियत के आधार पर न करके सभी अमानवीय दण्डों को शरियत के विरूद्ध मानकर बन्द कर दिया. उसने मुसलमानों के लिए मृत्यु दण्ड समाप्त कर दिया. मृत्यु दण्ड विद्रोहीयों को ही दिया जाने लगा. न्याय की लचीलापन के कारण प्रजा स्वतंत्रता व स्वेच्छाचारिता होने लगे. सुल्तान का जनता पर पकड़ ढीला होने लगा.

5. आर्थिक संकट

दिल्ली सल्तनत को अपना सत्ता कायम रखने के लिए निरंतर युद्ध करना पड़ा. इस काल में शांतिप्रिय शासकों का अभाव था. शासकों को आंतरिक विद्रोह का दमन तो करना ही पड़ता था, बाहरी आक्रमण भी होते थे. इस कारण राजस्व का बड़ा हिस्सा युद्ध और विजय में खर्च हो जाते थे. कृषि के विकास के लिए नहरें, तालाब, कुओं का निर्माण तो करवाया गया. लेकिन भूमि लगान वसूली में कोई सख्ती नहीं बरती गई. उलेमाओं के परामर्श से लगान उपज का 1/10 भाग निर्धारित किया गया. यह भारत में प्रचलित 1/6 भाग से काफी कम था.

6. दीवान-ए-खैरात

लोगों को नुकसान व आर्थिक संकट के समय आर्थिक सहायता प्रदान किए दीवान ए खैरात विभाग की स्थापना किया. यह मुसलमान विधवाओं और अनाथ बच्चों की आर्थिक सहायता करते थे. निर्धन मुसलमान लड़कियों के निकाह में आर्थिक सहयोग देता था. रोगियों के लिए अस्पताल की व्यवस्था किया था. लेकिन बदले में राज्य के विकास व राजस्व में इनसे न के बराबर योगदान मिलता था. इस तरह राजस्व का निष्फल निष्कर्षण हुआ.

7. प्रशासनिक दुर्बलता

फिरोज तुगलक के उदार हृदय ने सभी के दिलों को जीत लिया था. किन्तु कुछेक राज द्रोहीयों व शत्रुओं ने इसका नाजायज लाभ उठाना चाहा और स्थानिय राजाओं को भड़काना प्रारंभ किया. जिसके कारण प्रान्तीय राज्य जैसे- बंगाल, गुजरात, जौनपुर, मालवा स्वतंत्र होने लगे व दिल्ली सल्तनत से नाता तोड़ने लगा. इस कारण दिल्ली सल्तनत का क्षेत्र निरंतर सिकुड़ता रहा. अफ़गान शासन के समय राजत्व के सिद्धांत को लेकर अमीरों और सुल्तान में अनबन कायम रहा.

8. हिन्दू प्रतिरोध

दिल्ली सल्तनत तलवार के बल पर और इस्लाम की फ़तेह के रूप में स्थापित हुई थी और उसी के बल पर उसका अस्तित्व निर्भर करता था. दिल्ली के सुल्तानों ने अपनी नीतियों से कभी अपनी बहुसंख्यक गैर-मुस्लिम प्रजा का दिल जीतने की कोशिश नहीं की. उनकी धार्मिक तथा प्रशासनिक नीतियां बहुसंख्यक हिन्दू प्रजा के लिए हानिकारक थीं. दक्षिण भारत में विजयनगर साम्राज्य फल-फूल रहा था. मेवाड़ और मारवाड़ में राजपूत शक्तियां अपने शक्ति-विस्तार के प्रयास में सफल हो रही थीं. ग्वालियर में तोमरों ने भी अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी थी.

9. शासन का स्वरुप ढीला-ढाला होना

दिल्ली सल्तनत के एक भी राज्यवंश में लगातार योग्य शासक नहीं हुए और प्रायः एक योग्य शासक के बाद कोई एक अथवा कई अयोग्य शासक तख़्तनशीन हुए. दिल्ली सल्तनत के सुल्तान निरंकुश तो थे ही, उनके शासन का स्वरुप भी ढीला-ढाला और कामचलाऊ था.

10. राजनीतिक अस्थिरता

मुहम्मद बिन तुगलक़ के अव्यावहारिक एवं मूर्खतापूर्ण फ़ैसलों से दिल्ली सल्तनत के विघटन की प्रक्रिया तेज़ हो गयी थी और राज्य में अराजकता फैलने के साथ-साथ उसकी आर्थिक स्थिति भी संकटपूर्ण हो गयी थी.

11. अमीरों की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएँ

दिल्ली के सुल्तानों को कभी भी अपने अमीरों का पूर्ण समर्थन प्राप्त नहीं हुआ. तलवार के बल पर अमीरों से प्राप्त किया हुआ समर्थन और उनकी निष्ठा सुल्तानों के अयोग्य उत्तराधिकारियों के समय में स्वतः अंतर्ध्यान हो जाता था और महत्वाकांक्षी अमीर स्वयं तख़्त पर अधिकार करने का स्वप्न देखने लगते थे अथवा अपने लिए दिल्ली सल्तनत के किसी भाग पर स्वतंत्र राज्य स्थापित करने का प्रयास प्रारंभ कर देते थे.

दक्षिण में बहमनी राज्य की स्थापना ने दक्षिण भारत को दिल्ली सल्तनत से अलग कर दिया था. मालवा, गुजरात, बंगाल स्वतंत्र हो चुके थे और जौनपुर में शर्की दिल्ली सुल्तान के लिए सरदर्द बने हुए थे. पंजाब, सिंध और मुल्तान पर भी दिल्ली सुल्तान का नियंत्रण कर पाना कठिन हो गया था.

12. उत्तराधिकार के युद्ध

लगभग सभी सुल्तानों के मृत्यु के बाद उनके बच्चों में सत्ता के लिए संघर्ष हुआ. पारिवारिक एकता के अभाव ने अन्य लोगों पर निर्भरता बढ़ा दिया. ये अन्य लोग भी अति महत्वाकांक्षी थे और राज्य के बदले स्वयं के उन्नति का अधक प्रयास करते थे.

13. तैमूर का आक्रमण

तैमूर के आक्रमण ने पहले से लड़खड़ाती दिल्ली सल्तनत पर एक और ज़बरदस्त प्रहार किया. नाम का तुगलक़ सुल्तान का अब दिल्ली के आसपास के क्षेत्र पर भी अधिकार नहीं रह गया. तैमूर के आक्रमण के बाद दिल्ली सल्तनत की प्रतिष्ठा में बहुत कमी आई थी और केन्द्रीय शक्ति के अभाव में अनेक स्वतंत्र राज्य अस्तित्व में आ गए थे.

प्रारम्भिक आक्रमण

 तैमूर ने शीघ्र ही ट्रासं अक्सि माना, तुकीर्स्तान, अफगानिस्तान, पर्शिया, सीरिया, तुर्किस्तान एशिया माइनर का कुछ भाग बगदाद, जार्जिया, खारिज्म, मेसोपोटामिया आदि जीत लिया इसके पश्चात उनहोंने आक्रमण किया. भारत पर आक्रमण निम्न कारणों से किया था –

  1. धन प्राप्त करना: तैमूर का उद्देश्य भारत पर आक्रमण करके लुट मार करना व धन की प्राप्ति करना था. यहां की शांति प्रिय क्षेत्रों पर कब्जा करना व धन प्राप्ति करना था.
  2. शिया व गैर मुस्लिम धर्माविलम्बियों को समाप्त कर काफिरों व गद्दारों को डरा धमका कर मुस्लिम धर्म मानने के लिए बाध्य करना.
  3. अति महत्वाकांक्षा: तैमूर अति महत्वाकांक्षी व्यक्ति था जिसके कारण बहुदेव वाद व अन्ध विश्वास को समाप्त करके ईश्वर का समथर्क एव  सैि नक बनकर गाजी मुजाहिर कायद प्राप्त करना चाहते थे. 

तैमरू के आक्रमण का सामना

तात्कालिक शासक नासिरूद्दीन महमूद नहीं कर पाया और दिल्ली पर तैमूर का आक्रमण हो गए. तैमूर आक्रमण के दौरान मार्ग में लुटपाट करते हुए दिल्ली की ओर आने लगा, लोगों की हत्या आम बात हो गई. तैमूर पादन, दीपालपुर, भटनेर, सिरसा, कैथल पानीपत होता हुआ उन्हें लुटता तथा काण्ड करना हुआ.

1398 ई. को दिल्ली पहुचा. तैमूर के आक्रमण ने तुगलक वंश और दिल्ली सल्तनत दोनों लिए घातक बना. अकेले दिल्ली में ही लाखों लागों को बन्दी बनाए गये. व हिन्दुओं का कत्लेआम किया गया. तैमूरलंग की सेना और महमूद शाह की सेना के मध्य 17 दिसम्बर 1398 ई. को युद्ध हुआ. तैमूर आक्रमण होते ही तैमूर के प्रतिनिधि और मुल्तान के शासक ने पंजाब में अधिकार कर लिया, तुगलक वंश के समाप्त होते ही खिज्र खां पूरे दिल्ली पर अधिकार कर लिया और शासक बन गया.

तैमूर के आक्रमण का प्रभाव 

तैमूर आक्रमण अत्यन्त भयावह था. इनका प्रभाव पड़ा –

  1. महाविनाश: तैमूर  के आक्रमण ने दिल्ली, राजस्थान एवं उत्तर पश्चिमी सीमा पा्र न्त पूर्णत: उजाड़ दिया. फसलें नष्ट हो गई, व्यापार चौपट हो गया. हजारों व्यक्तियों के कत्लेआम के परिणामस्वरूप अकाल पड़ा. महामारी फैल गई. शवों के सड़ने से जल एवं हवाएं प्रदूषित हो गई. 
  2. सल्तनत की सीमा में कमी: प्रधानमंत्री मल्लू ने 1401 ई. में सुल्तान महमदू को दिल्ली बुलाया मल्लू 1405 ई. में खिज्र खां के साथ युद्ध में माया गया. सल्तनत की सीमा संकुचित हो गई.
  3. प्रादेशिक राज्यों की स्थापना: तैमूर के आक्रमण के बाद तुगलक साम्राज्य का विभाजन प्रारम्भ हो गया. पंजाब, गुजरात, मालवा, ग्वालियर, समाना, काल्पी, महोबा, खान देश, बंगाल आदि स्वतंत्र राज्यों की स्थापना हो गई.
  4. इस्लामी संस्कृति का प्रसार: जिन राज्यों में मुस्लिम शासन सत्ता की स्थापना हुई उनमें मुस्लिम सभ्यता एवं संस्कृति का विकास हुआ.
  5. पंजाब में अव्यवस्था: तैमूर के वंशजों ने पंजाब पर अपने अधिकार को नहीं भुलाया. फलत: अशान्ति एवं अव्यवस्था पंजाब में बनी रही.
  6. साम्प्रदायिक वैमनस्य की भावना: तैमूर के आक्रमण ने कत्लेआम के द्वारा हृदय विदारक स्थिति उत्पन्न कर दी फलत: हिन्दुओं एवं मुसलमानों में वैमनस्य बढ़ा.
  7. भारतीय कला का विस्तार: तैमरू कलाकारों को बन्दी बनाकर समरकन्द ले लगा. उन कलाकारों ने मस्जिदें तथा भवनों का निर्माण कर भारतीय कला का विस्तार किया. इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से तुगलक वंश के विकास एवं पतन तथा तैमूर लंग के भारतीय आक्रमण के संबधं में संक्षेप में जानकारी मिलती है.
  8. प्रान्तीय राज्यों की स्वतंत्रता: केन्द्रीय सत्ता के टुटते ही गुजरात हाकिम जफर खां, जौनपुर के मलिक सरवर, मालवा के दिशाबर खां ने दिल्ली से संबंध विच्छेद कर लिए और स्वतंत्र राजवंशों की स्थापना की. 
  9. तैमूर के आक्रमण से राजकोष खाली हो गया. स्थानीय राज्यों ने नजराना देना बंद कर दिया, सल्तनत में अकाल और महामारी फैली. 

तैमूर के आक्रमण ने दिल्ली सल्तनत के विघटन प्रक्रिया को तेज कर दिया. जनता का सल्तनत से विश्वास उठ गया. प्रान्तीय हाकिम शासकों ने दिल्ली सल्तनत की अधिनता त्याग दिया. वास्तव में, लंगड़े तैमूर लंग ने दिल्ली की अपार संपदा लूट कर दिल्ली को आर्थिक रूप से लंगड़ा बना दिया था.

14. पानीपत के प्रथम युद्ध से पहले बाबर के 4 आक्रमण

भारत पर बाबर का पहला आक्रमण 1519 में हुआ था. इसी वर्ष युसुफ़ज़ाइयों का दमन करने के लिए वह पेशावर तक पहुँच गया था. इसको बाबर का भारत पर दूसरा आक्रमण कहा जा सकता है. 1520 में अपने तीसरे आक्रमण में वह रावलपिंडी होते हुए, झेलम नदी पार कर सईदपुर तक पहुंचा और वहां लूटमार की किन्तु काबुल पर आक्रमण की खबर सुनकर उसे वहां से लौटना पड़ा.

भारत पर अपने तीसरे आक्रमण के बाद बाबर इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि भारत पर उसका आक्रमण तभी सफल हो सकता है जब कि वह कांधार पर अधिकार कर वहां से अपना अभियान संचालित करे. इसलिए अगले दो-तीन साल उसने गजनी से लेकर खुरासान तक के क्षेत्र पर अपना अधिकार करने के प्रयास में व्यतीत किए. इन क्षेत्रों पर अधिकार करने के बाद वह भारत पर एक बड़ा आक्रमण करने के लिए सक्षम हो गया.

इस बीच उसे अलाउद्दीन लोदी और लाहौर के दौलत खान लोदी द्वारा भारत पर आक्रमण करने के निमंत्रण मिले. अपने चौथे भारत आक्रमण में बाबर सिन्धु नदी, झेलम और चिनाब नदियों को पार करता हुआ लाहौर से दस मील दूरी तक पहुँच गया और उसने वहां लोदी सेना को पराजित किया और वह लाहौर पहुंचा. वहां से वह दीपालपुर पहुंचा जहाँ दौलत खान लोदी अपने पुत्र और अपनी सेना सहित उस से जा मिला किन्तु दोनों पक्षों में जीत के संभावित क्षेत्रों के बटवारे को लेकर मतभेद हो गए.

बाबर ने अपना अभियान स्थगित कर दिया और वह काबुल लौट गया. लेकिन बाबर लौटकर जैसे ही सिन्धु नदी को पार किया था कि पंजाब के हालात फिर से एक और आक्रमण के लिए अनुकूल हो गए. अलाउद्दीन लोदी ने उसे फिर से भारत पर आक्रमण करने का निमंत्रण दिया. बाबर उस समय बल्ख में उज़बेगों के साथ युद्ध में उलझा हुआ था. उसने अलाउद्दीन लोदी को सैनिक सहायत दी. किन्तु अलाउद्दीन का अभियान विफल रहा और वह दिल्ली भाग गया.

इन चार आक्रमणों से बाबर में भारत जीतने की समझ विकसित हुई. साथ ही, सीमांत क्षेत्रों व विरोधी सेनाओं में उसका आतंक का बीजारोपन हुआ.

15. पानीपत का प्रथम युद्ध (निर्णायक कारण)

दिल्ली सल्तनत के पतन के कारणों में यह युद्ध निर्णायक रहा. अब तक बाबर ने भारत पर अगले आक्रमण की तैयारियां पूरी कर ली थीं. वह खैबर दर्रे को पार करता हुआ पेशावर पहुंचा फिर उसने सिन्धु नदी पार की. फिर रावी और व्यास नदी पार करता वह मिलवात के किले पर पहुंचा

और उसने उस पर अधिकार कर लिया. उसने सतलज नदी को पार कर रूपर पर अधिकार कर लिया. फिर वह अम्बाला होता हुआ सिरसवा के निकट यमुना के तट तक पहुँच गया. दो और पड़ावों के बाद वह 12 अप्रैल, 1526 को दिल्ली के 53 मील उत्तर-पश्चिम पानीपत के मैदान तक पहुँच गया. इधर इब्राहीम लोदी भी अपने सेना लेकर बाबर का सामना करने के लिए पानीपत पहुँच गया था.

21 अप्रैल, 1526 को बाबर और इब्राहीम लोदी की सेनाओं के मध्य पानीपत का प्रथम युद्ध हुआ जिसमें इब्राहीम लोदी पराजित हुआ और रणक्षेत्र में ही मारा गया. इब्राहिम लोदी का मृत्यु लोदी वंश के शासन और दिल्ली सल्तनत के मृत्यु के समान साबित हुआ. विजयी बाबर ने 24 अप्रैल को दिल्ली पर तथा 4 मई को आगरा पर अधिकार कर लिया.

इस तरह अंतोतगत्वा तीन शताब्दी से अधिक तक दिल्ली पर राज करने वाले तुर्क-अफ़गान शासकों का दिल्ली सल्तनत समाप्त हो गया. वास्तव में, तैमूर के आक्रमण से खोखली हो चुकी दिल्ली सल्तनत रूपी पेड़ को बाबर ने जड़ से उखाड़ फेंका. बीमार दिल्ली सल्तनत के लिए यह मृत्यु समान हुआ. अब दिल्ली में नए तख्त का शासन आरंभ हुआ, जो मँगोल-तुर्क थे. बाबर का यह वंश मुगल वंश कहलाया, जो भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857) के अंत तक औपचारिक रूप से दिल्ली में कायम रहा.

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