684 ईसा पूर्व से 320 ईसा पूर्व तक भारत में मगध साम्राज्य का शासन था. मगध साम्राज्य का उदय राजा बिम्बसार (544-492 ई.पू.) के शासन काल में हुआ, जिन्होंने अपनी नीति और सैन्य ताकत से राज्य को शक्तिशाली बनाया. उनकी राजधानी राजगीर थी, जो नदियों और पहाड़ों से सुरक्षित थी, और उनके शासनकाल में कृषि और व्यापार का विकास हुआ. लोहे की खानों से बने हथियारों ने राज्य को और भी मजबूत बनाया. अंग राज्य को अपने साम्राज्य में शामिल करना उनकी महत्वपूर्ण उपलब्धि थी.
बिम्बसार के बाद उनके पुत्र अजातशत्रु ने भी मगध को और विस्तारित किया और राज्य की नई राजधानी पाटलिपुत्र का निर्माण किया. नंद वंश के शासनकाल में मगध साम्राज्य अपने शिखर पर पहुंचा. इस समय सिकंदर ने भारत पर आक्रमण किया, लेकिन नंदों की सेना के भय से आगे नहीं बढ़ सका. अंततः चन्द्रगुप्त मौर्य ने नंदों को हराकर मगध का शासन प्राप्त किया.
मगध की समृद्धि और ताकत का मुख्य कारण उसकी उपजाऊ भूमि, व्यापारिक मार्ग, और लोहे की खानों से बने हथियार थे, जिन्होंने राज्य को मजबूत और अत्यधिक शक्तिशाली बनाया.
मगध साम्राज्य का परिचय
बुद्ध के समय मगध साम्राज्य सोलह महाजनपदोंमें से एक था. बुद्धघोष के अनुसार, इसका नाम खत्तियों की एक जनजाति मगध (Magadhā) से पड़ा. शुरू में, राजगह (संस्कृत: राजगृह) इसकी राजधानी थी. उदायिन के समय राजधानी को पाटलिपुत्त (संस्कृत: पाटलिपुत्र) में स्थानांतरित कर दिया गया. राज्य का केंद्र गंगा के दक्षिण में आधुनिक बिहार का क्षेत्र था.
अधिकांश ब्राह्मण ग्रंथों में, मगध को आर्य और ब्राह्मण संस्कृति के दायरे से बाहर माना जाता हैं. इसलिए ब्राह्मण लेखकों द्वारा इसे नीची नज़र से देखा जाता था. बुद्ध के समय मगध राज्य दक्षिण में विंध्य पर्वत, पश्चिम में सोन नदी, उत्तर में गंगा और पूर्व में चंपा नदी से घिरा हुआ था.
मगध साम्राज्य का उदय
6वीं से 4थी शताब्दी ईसा पूर्व तक, चार महाजनपदों – मगध, कोसल, अवंती और वत्स – में प्रभुत्व के लिए जमकर प्रतिस्पर्धा हुई. अंततः, मगध ने जीत हासिल की और अपनी संप्रभुता स्थापित की. इस तरह मगध प्राचीन भारत में सबसे शक्तिशाली राज्य बन गया. मगध साम्राज्य की स्थापना बृहद्रथ के वंशज जरासंध ने की थी. महाभारत में भी दोनों का उल्लेख प्रमुखता से किया गया है.
मगध साम्राज्य के राजवंश
मगध राज्य की स्थापना का श्रेय बृहद्रथ को हैं. बृहद्रथ, जरासंध के पिता और वसु चौध-उपरिचर के पुत्र थे.
1. हर्यक वंश
मगध का पहला महत्वपूर्ण और शक्तिशाली शासक वंश हर्यंक राजवंश था. बिम्बिसार, अजातशत्रु और उदायिन इस वंश के प्रमुख शासक थे.
बिम्बिसार (558 ईसा पूर्व – 491 ईसा पूर्व)
संभवतः मगध साम्राज्य का प्रथम शासक राजा बिम्बिसार भट्टिया का पुत्र था. बौद्ध ग्रंथों के अनुसार, बिम्बिसार ने 544 ईसा पूर्व से 492 ईसा पूर्व तक 52 वर्षों के लिए शासन किया. वह गौतम बुद्ध और भगवान महावीर के समकालीन और अनुयायी थे. वे महावीर के प्रशंसक भी कहे जाते है.
बिम्बिसार के समय मगध महाजनपद की राजधानी गिरिव्रज/राजगृह (राजगीर) में थी. यह नगर 5 पहाड़ियों से घिरा हुआ था, जिसके द्वार चारों तरफ से पत्थर की दीवारों से बंद थे. इसने राजगृह को अभेद्य किला बना दिया था.
मगध पहला राज्य था जिसने स्थायी सेना रखने की शुरुआत की. इसलिए यहां के लोगों को स्रेनिया (या saniya) भी कहा जाता है. इस प्रथा ने राज्य के विस्तार में काफी अहम् भूमिका निभाया.
आरम्भ में बिम्बिसार ने अपने राजनीतिक स्थिति को मजबूत करने के लिए वैवाहिक संबंधों का उपयोग किया. उनहोंने तीन विवाह किए थे. एक शादी कोसलदेवी से की. वह कोसल के राजा की बेटी और प्रसेनजित की बहन थी. दूसरा विवाह चेल्लना से की, जो वैशाली के लिच्छवी प्रमुख की बेटी थी. तीसरी शादी पंजाब के मद्र के राजा की बेटी खेमा से की.
सैनिक युद्ध से विजय और विस्तार की नीति भी अपनाई गई. बिम्बिसार द्वारा की गई सबसे उल्लेखनीय विजय अंग की थी. संभवतः अवन्ति के राजा प्रद्योत के साथ भी बिम्बिसार का टकराव हुआ था. लेकिन, बाद में दोनों मित्र बन गए. जब प्रद्यौत को पीलिया रोग हो गया था तो बिम्बिसार ने अपना राजवैद्य जीवक को उनके सेवा में भेजा था.
उनके पास एक प्रभावी और उत्कृष्ट प्रशासनिक प्रणाली भी थी. उच्च पदों पर आसीन अधिकारी तीन भागों में विभाजित थे – कार्यकारी, सैन्य और न्यायिक. यह प्रशानिक व्यवस्था का आरम्भ था. इसी व्यववस्था से बाद में मगध के विशाल प्रशासनिक व्यवस्था का निर्माण हुआ.
अजातशत्रु (492 ईसा पूर्व – 460 ईसा पूर्व)
बिम्बिसार का पुत्र अजातशत्रु मगध पर शासन करने के लिए अधीर था. परिणामतः लगभग 492 ईसा पूर्व अपने पिता की हत्या कर दी और राजा बन गया. अजातशत्रु के माता का नाम चेल्लना था.
अजातशत्रु भी बौद्ध धर्म का अनुयायी था. उसने बुद्ध की मृत्यु के ठीक बाद 483 ईसा पूर्व में अपने राजधानी राजगृह में प्रथम बौद्ध परिषद का आयोजन करवाया. साथ में, राजगृह के चारों ओर धातुचैत्यों का निर्माण करवाया. उन्होंने 18 महाविहारों की मरम्मत करवाई. अजातशत्रु के बुद्ध के साथ साक्षात्कार की कहानी भी दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व की भरूच के शिलालेखों में बताई गई है.
उसने अपने पिता के साम्राज्य विस्तार की नीति को आगे बढ़ाया और कोसल और वैशाली के विरुद्ध युद्ध जीते. अजातशत्रु ने अपने माता के राज्य वैशाली के विरुद्ध भी युद्ध छेड़ दिया. उसकी माँ चेलन्ना एक लिच्छवि राजकुमारी थी. अजातशत्रु को वैशाली को परास्त कर अपने साम्राज्य में शामिल करने में 16 साल लग गए.
अजातशत्रु ने युद्ध में अभियांत्रिकी (Engineering) का भी बेहतरीन प्रयोग किए थे. उसने विशाल यंत्र के सहारे गुलेल की तरह पत्थर फेंके. उसके पास ऐसे रथ भी थे, जिन पर गदाएँ लगी होती थीं, जिससे सामूहिक हत्याएँ होती थीं. (संभवतः बाहुबली चलचित्र में युद्ध का एक दृश्य इसी रथ पर आधारित है.)
अवंती के शासक ने मगध पर आक्रमण करने की कोशिश की. इस खतरे को विफल करने के लिए अजातशत्रु ने राजगृह की किलेबंदी शुरू कर दी. अवन्ति उसके जीवनपर्यन्त राजगीर पर विजय नहीं पा सका. उसने गंगा के किनारे पाटलिग्राम को बसाया था. मौर्य काल में यह भारत का प्रमुख नगर बना और पाटलिपुत्र के नाम से मशहूर हुआ.
उदयभद्र/ उदयिन (460 ईसा पूर्व – 444 ईसा पूर्व)
उदयिन अजातशत्रु का पुत्र था और अंतिम हर्यक शासक था. उसने राजधानी को कुसुमपुर या पाटलिपुत्र (पटना) में स्थानांतरित किया. यह गंगा और सोन नदी के तट पर स्थित था. ऐसा राज्य के विस्तार के कारण राज्य संचालन में आ रही भौगोलिक दुरी को कम करने के उद्देश्य से किया गया था. अब मगध साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में छोटानागपुर की पहाड़ियों तक फैला हुआ था.
उदायिन ने अपने पूर्ववर्तियों द्वारा शुरू किए गए सैन्य अभियान जारी रखे तथा अवंती के पालका को कई बार पराजित किया. अंततः अवंती के राजा पालक के आदेश पर उदायिन की हत्या कर दी गई थी. इसके बाद तीन राजा हुए – अनिरुद्ध, मंदा और नागदासक. फिर मगध साम्राज्य पर सिसुनाग वंश का शासन कायम हुआ.
2. मगध साम्राज्य का सिसुनाग या शिशुनाग राजवंश
श्रीलंकाई ग्रंथों के अनुसार मगध के लोगों ने नागदसक के शासनकाल के दौरान विद्रोह किया. विद्रोहियों ने सिसुनाग (शिशुनाग) नामक एक अमात्य (मंत्री) को राजा बनाया. शिशुनाग राजवंश 413 ईसा पूर्व से 345 ईसा पूर्व तक चला.
शिशुनाग
ये मगध के राजा बनने से पहले काशी के वायसराय थे. इन्होंने अपनी राजधानी गिरिवराज/गिरिव्रज में स्थापित की. इनकी सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि अवन्ति का मगध में विलय था. इस तरह मगध और अवंती के बीच 100 साल पुरानी प्रतिद्वंद्विता को समाप्त हो गया. अवंती मौर्य शासन के अंत तक मगध साम्राज्य का हिस्सा रहा. शिशुनाग ने कुछ समय बाद राजधानी वैशाली में स्थानांतरित कर दिया था.
कालाशोक
कालाशोक, शिशुनाग का पुत्र था. कालाशोक को काकवर्ण या कालकसका के नाम से भी जाना जाता है. कालासोक ने पाटलिपुत्र को एक बार फिर से राजधानी बनाया. लेकिन वैशाली का भी महत्व बरकरार रहा. उसने वैशाली में द्वितीय बौद्ध परिषद का आयोजन किया. वह महल में हुई क्रांति में मारा गया. इसके बाद मगध साम्राज्य पर नंद वंश का शासन आरम्भ हुआ.
3. नंद वंश
इस वंश का पूर्व में किसी भी राज परिवार से सम्बन्ध नहीं था. इसलिए इतिहासकार नन्द वंश को गैर-क्षत्रिय राजवंश मानते है. 345 ईसा पूर्व से 321 ईसा पूर्व मगध साम्राज्य पर इनका कब्ज़ा था. इस वंश का पहला शासक महापद्म नंद था, जिसने कालाशोक के राजगद्दी पर कब्ज़ा किया था.
महापद्म नंद
चंद्रगुप्त मौर्य को भारत का पहला सम्राट कहा जाता हैं. साथ ही, महापद्मनंद को “भारत का पहला ऐतिहासिक सम्राट” कहा जाता है. महापद्म ने कालासोक की हत्या कर राजसत्ता प्राप्त की थी. इनके जन्म और वंश के बारे में अधिक जानकारी नहीं है. कुछ जैन ग्रंथों और ग्रीक लेखक कर्टियस के अनुसार, वे एक नाई और एक वेश्या के पुत्र थे. वहीं, पुराणों में सिसुनाग वंश के शासक महानंदी और एक शूद्र महिला का पुत्र बताया गया है. इस प्रकार, नंदों को अधार्मिक (जो धर्म के मानदंडों का पालन नहीं करते) माना जाता था. बौद्ध ग्रंथों में नंदों को अन्नतकुल (अज्ञात वंश) से संबंधित बताया गया है.
महापद्म ने अट्ठाईस वर्षों तक शासन किया. उन्हें “सर्व क्षत्रियंतक” (सभी क्षत्रियों का नाश करने वाला) और “एकराट” (एकमात्र शासक जिसने अन्य सभी शासक राजकुमारों को नष्ट कर दिया) भी कहा जाता है.
विशाल सेना के कारण पाली ग्रंथों में महापद्म नन्द को उग्रसेन कहा गया है. नंद बहुत अमीर और उन ही शक्तिशाली थे. उनके सेना में 200,000 पैदल, 60,000 घुड़सवार और 6000 हाथी थे. इतनी बड़ी सेना को केवल एक प्रभावी कराधान प्रणाली के माध्यम से ही बनाए रखा जा सकता था. इससे नंदों के उन्नत कराधान प्रणाली का पता चलता है.
महापद्म नन्द ने अपने शक्ति का उपयोग मगध साम्राज्य के विस्तार में किया. उसके समय मगध साम्राज्य उत्तर में कुरु, दक्षिण में गोदावरी घाटी, पूर्व में मगध और पश्चिम में नर्मदा तक फैला था. उन्होंने कई युद्ध किए और नए राज्यों पर विजय प्राप्त की. कलिंग को बलपूर्वक मगध का हिस्सा बनाया गया. विजय ट्रॉफी के रूप में जिन की एक प्रतिमा मूल मगध लाया गया. संभवतः कोसल ने उनके समय विद्रोह किया था. मौके का लाभ उठाकर उन्होंने कोसल पर भी कब्ज़ा कर लिया.
धना नंदा
यह अंतिम नंद शासक था. धनानंद को ग्रीक ग्रंथों में अग्राम्मेस (Agrammes) या ज़ैंड्रेमेस (Xandrames) के नाम से जाना जाता है. उसे महापद्म नंदा के 8 या 9 पुत्रों में से एक माना जाता है. धनानंद को नंदापाक्रमणी (एक विशेष उपाय) के आविष्कार का श्रेय दिया जाता है.
धनानंद के समय ही उत्तर-पश्चिमी भारत पर सिकंदर ने आक्रमण किया था. लेकिन उसके थके हुए सेना ने आगे बढ़ने से मना कर दिया. इस प्रकार सिकंदर और नंदों के सेना में टकराव नहीं हो पाया.
धना नंदा को अपने पिता से एक विशाल और शक्तिशाली साम्राज्य विरासत में मिला था. उसके पास 200,000 पैदल, 20,000 घुड़सवार, 3000 हाथी और 2000 रथों की एक स्थायी सेना थी. इस वजह से वह एक शक्तिशाली शासक बन गया.
संभवतः विशाल सेना के संचालन के लिए अत्यधिक धन की आवश्यकता थी. इसलिए उसने कर वसूली के लिए दमनकारी नीतियों का सहारा लिया. इसने नंदों को जनता में अलोकप्रिय बना दिया. साथ ही, अज्ञात वंश या शूद्र कुल में जन्मे होने का नुकसान भी नन्द वंश को हुआ.
अंत में, उन्हें चंद्रगुप्त मौर्य ने जनाक्रोश का फायदा उठाया और नंदों को मगध से उखाड़ फेंका. इस प्रकार मगध में मौर्य साम्राज्य की नींव पड़ी और प्राचीन भारत के सबसे शक्तिशाली वंश का शासन आरम्भ हुआ.
मगध साम्राज्य की सर्वोच्चता के कारक
मगध का उत्थान एक मजबूत केंद्रीकृत सरकार के तहत हुआ, जिसका श्रेय महत्वाकांक्षी राजाओं जैसे बिम्बसार, अजातशत्रु, और महापद्म नंद को जाता है, जिन्होंने साम्राज्यवादी नीतियों को अपनाया. धार्मिक दृष्टि से, जैन धर्म और बौद्ध धर्म का विकास यहीं हुआ, जिससे समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा. जन समुदाय कृषि और व्यापार की उन्नति से समृद्ध हुआ और उन्होंने बौद्ध और जैन धर्म को अपनाया.
मगध की राजधानियां, राजगीर और पाटलिपुत्र, सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण थीं. लोहे की समृद्ध खानों से बने हथियारों ने मगध को सैन्य और आर्थिक शक्ति प्रदान की. उष्ण जलवायु और उपजाऊ मिट्टी ने कृषि को फलने-फूलने में मदद की, जिससे अतिरिक्त अनाज और व्यापारिक समृद्धि प्राप्त हुई. युद्ध में हाथियों का प्रयोग और नदियों द्वारा सुगम जलमार्गों ने भी मगध की शक्ति को बढ़ावा दिया. इस प्रकार हम मगध साम्राज्य के उत्कर्ष के लिए निम्नलिखित कारणों को मुख्य मान सकते है:
भौगोलिक कारक
- मगध गंगा घाटी के ऊपरी और निचले हिस्सों पर स्थित था. नदी द्वारा बहाकर लाइ गई मिट्टी उपजाऊ होती थी. इससे राज्य के मुख्य पेशा कृषि का विकास हुआ और समृद्धि आई. हिमालय के कारण मानसूनी हवा से यहां वर्षा भी पर्यापत होती थी.
- यह पश्चिम और पूर्वी भारत के बीच मुख्य भूमि मार्ग पर स्थित था.
- मगध साम्राज्य तीन तरफ से नदियों से घिरा हुआ था, गंगा, सोन और चम्पा. जिससे यह क्षेत्र दुश्मनों के लिए अभेद्य था.
- राजगीर और पाटलिपुत्र दोनों ही सैन्य रूप से रणनीतिक स्थान थे.
आर्थिक कारक
- मगध में तांबे और लोहे के विशाल भंडार थे. इससे कृषि यंत्र और युद्ध के लिए हथियार बनाना आसान हो गया.
- यह पूर्व और पश्चिम के मुख्य व्यापारिक मार्ग पर स्थित था. इसलिए मगध साम्राज्य आसानी से व्यापार को नियंत्रित कर सकता था.
- विशाल आबादी का उपयोग कृषि, खनन, शहरों के निर्माण और सेना में किया जा सकता था.
- तुलनातमक रूप से अधिक पैदावार ने लोगों और शासकों के समृद्धि में विकास किया.
- गंगा पर आधिपत्य का मतलब आर्थिक आधिपत्य था. उत्तर भारत में व्यापार के लिए गंगा महत्वपूर्ण थी.
- बिम्बिसार द्वारा अंग के विलय के साथ, चम्पा नदी मगध साम्राज्य में जुड़ गई. दक्षिण-पूर्व एशिया, श्रीलंका और दक्षिण भारत के साथ व्यापार में चंपा का बहुत महत्व था.
सांस्कृतिक कारक
- मगध समाज अपरंपरागत चरित्र का था. शक्तिशाली गैर-आर्य लोगों के साथ ही आर्य भी निवास करते थे.
- जैन धर्म और बौद्ध धर्म के उदय ने दर्शन और विचार के मामले में क्रांति ला दी. उन्होंने उदार परंपराओं को बढ़ावा दिया. इस वैचिरिकी के प्रसार से राज्य में एकता, भाईचारा और शांति का माहौल बना. साथ ही अपराध भी कम हुए.
- समाज में ब्राह्मण धर्म का इतना वर्चस्व नहीं था. मगध के कई राजा मूल रूप से समाज के विभिन्न वर्गों से आते थे. ये कहा जा सकता है कि राजशाही में समन या श्रमण परम्परा के लोगों का प्रभाव था.
राजनीतिक कारक
- मगध भाग्यशाली था कि उसके पास कई शक्तिशाली और महत्वाकांक्षी शासक थे. महावीर और बुद्ध को आश्रय देने के कारण इनके प्रभाव का विकास हुआ. उनके पास मजबूत और स्थायी सेनाएँ थीं.
- लोहे की उपलब्धता ने उन्हें उन्नत हथियार विकसित करने में सक्षम बनाया.
- वे सेना में हाथियों का उपयोग करने वाले पहले राजा भी थे. युद्ध में विभिन्न कौशल और अभियांत्रिकी के उपयोग ने भी इनके शक्ति को बढ़ा दिया.
- प्रमुख राजाओं ने एक अच्छी प्रशासनिक व्यवस्था भी विकसित की.