उत्तर अटलांटिक संधि संगठन या नाटो (NATO) विश्व का सबसे बड़ा सैन्य गठबंधन हैं. यह संगठन राजनीतिक, सैनिक, आर्थिक और वैज्ञानिक क्षेत्रों में सहयोग एवं परामर्श के माध्यम से यूरोप और उत्तरी अमेरिका के 28 देशों को उनकी सामूहिक सुरक्षा के लिये एकजुट करता है. इसका औपचारिक नाम ऑर्गेनाइजेशन डू ट्रेटे डी आई अटलांटिके नॉर्ड (ओटीएएन) (Organisationdu Traite de I’Atlantique Nord–OTAN) हैं. इसका मुख्यालय बेल्जियम के ब्रुसेल्स में हैं.
नाटो के सदस्य (Members of NATO in Hindi)
वर्तमान में नाटो में कुल 32 सदस्य देश हैं. इनमें से 12 देश इसके संस्थापक सदस्य थे. यहां नाटो के सभी सदस्य देशों की सूची व जुडने का वर्ष नीचे दी गई है:
देश | वर्ष | देश | वर्ष |
अमेरिका | 1949 | स्पेन | 1982 |
यूके | 1949 | पोलैंड | 1999 |
बेल्जियम | 1949 | हंगरी | 1999 |
कनाडा | 1949 | चेक गणराज्य | 1999 |
डेनमार्क | 1949 | बुल्गारिया | 2004 |
फ्रांस | 1949 | लातविया | 2004 |
आइसलैंड | 1949 | लिथुआनिया | 2004 |
इटली | 1949 | एस्टोनिया | 2004 |
पुर्तगाल | 1949 | रोमानिया | 2004 |
लक्जमबर्ग | 1949 | स्लोवाकिया | 2004 |
नॉर्वे | 1949 | स्लोवेनिया | 2004 |
नीदरलैंड | 1949 | अल्बानिया | 2009 |
तुर्किये | 1952 | क्रोएशिया | 2009 |
ग्रीस | 1952 | मोंटेनेग्रो | 2017 |
पश्चिमी जर्मनी | 1955 | उत्तरी मैसेडोनिया | 2020 |
फ़िनलैंड | 2023 | स्वीडन | 2024 |
शांति सहभागिता हेतु भागीदार देश:
इस संगठन के ‘शांति के लिए साझेदारी’ (Partnership for Peace – PfP) कार्यक्रम के तहत वर्तमान में कुल 20 भागीदार देश हैं. इन देशों की अद्यतन और सही सूची दी गई है:
- अज़रबैजान
- आर्मेनिया
- आयरलैंड
- ऑस्ट्रिया
- कजाकिस्तान
- किर्गिस्तान
- जॉर्जिया
- फिनलैंड
- माल्डोवा (मोल्दोवा)
- स्वीडन
- स्विट्जरलैंड
- ताजिकिस्तान
- तुर्कमेनिस्तान
- यूक्रेन
- उज्बेकिस्तान
- सर्बिया
- बेलारूस
- बोस्निया और हर्जेगोविना
- रूस
- माल्टा
नोट:
- मिस्र, इजरायल, जॉर्डन, मोरक्को, ट्यूनीशिया, अल्जीरिया और मॉरिटानिया इसके ‘भूमध्यसागरीय संवाद’ (Mediterranean Dialogue) पहल के तहत भागीदार हैं.
- कुवैत, बहरीन, कतर और संयुक्त अरब अमीरात ‘इस्तांबुल सहयोग पहल’ (Istanbul Cooperation Initiative) के सदस्य हैं.
- मोंटेनेग्रो और उत्तरी मैसेडोनिया अब पूर्ण सदस्य हैं.
- बुल्गारिया, एस्टोनिया, लाटविया एवं लिथुआनिया वर्ष 2004 में शामिल हुए जबकि अल्बानिया और क्रोएशिया 2009 में नाटो में शामिल हुए.
- संगठन की आधिकारिक भाषा अंग्रेजी और फ्रांसीसी हैं.
नाटो का उद्भव एवं विकास
द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद पश्चिमी यूरोप की सुरक्षा एक बड़ी चिन्ता का विषय बन गया. तत्कालीन सोवियत संघ के मध्य एवं पूर्वी यूरोप पर बढ़ते प्रभाव के कारण यूरोपीय राष्ट्र आशंकित हैं. परिणामतः, मार्च 1948 में बेल्जियम, फ्रांस, लक्जमबर्ग, नीदरलैंड, और युनाइटेड किंगडम के विदेश मंत्रियों ने ब्रुसेल्स में आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सहयोग तथा सामूहिक आत्मरक्षा संधि पर हस्ताक्षर किए.
यह अनुभव किया गया कि संयुक्त राज्य अमेरिका के सहयोग के बिना ब्रुसेल्स संधि के सदस्य देश सोवियत संघ की शक्ति का सामना नहीं कर सकते थे. फिर, एक महीने के अन्दर ब्रुसेल्स शक्तियों ने विस्तृत सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था के लिये संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा के साथ वार्ताएं आयोजित करनी शुरू कर दी.
तदनन्तर, अप्रैल 1948 में वाशिंगटन डीसी में बेल्जियम, कनाडा, डेनमार्क, फ़्रांस, आइसलैंड, इटली, लक्जमबर्ग, नीदरलैंड, नार्वे, पुर्तगाल, ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रतिनिधियों ने अटलांटिक संघ की स्थापना के लिये उत्तर अटलांटिक संधि पर हस्ताक्षर किए.
उत्तर अटलांटिक संधि की क्रियान्वित करने के लिये सितम्बर 1949 में उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (North Atlantic Treaty Organisation–NATO) की स्थापना हुई. यह आज नाटो के संक्षिप्त नाम से प्रसिद्ध हैं. यूनान और तुर्की 1952 में, जर्मनी संघ गणराज्य 1955, स्पेन 1982 में तथा चेक गणराज्य, हंगरी और पोलैंड 1999 में नाटो के सदस्य बने, जिससे संगठन के कुल सदस्यों की संख्या 19 हो गई.
संधि के अनुच्छेद 5 के अंतर्गत, हस्ताक्षरकर्ता सदस्य इस बात पर सहमत होते हैं कि, यूरोप अथवा उत्तरी अमेरिका में एक या अधिक सदस्यों के विरुद्ध किसी सशस्त्र आक्रमण को सभी सदस्यों पर आक्रमण माना जाएगा.
मतलब नाटो के सदस्य इस बात पर सहमत होते हैं कि, ऐसे आक्रमण की स्थिति में प्रत्येक सदस्य संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर के अनुच्छेद 51 में स्वीकृत व्यक्तिगत या सामूहिक आत्मरक्षा के अधिकार के प्रयोग के तहत स्वयं या दूसरे पक्षों के साथ मिलकर आवश्यक कार्यवाहियों, जिसमें उत्तरी अटलांटिक क्षेत्र में सुरक्षा बनाये रखने के लिये सशस्त्र बल का प्रयोग भी सम्मिलित हैं, के माध्यम से आक्रमित सदस्य या सदस्यों की सहायता करेगा.
अनुच्छेद 6 में उल्लेखित प्रावधान, यूरोप और उत्तरी अमेरिका में किसी भी सदस्य के क्षेत्र में सशस्त्र आक्रमण संधि के भौगोलिक विस्तार को स्पष्ट करता है. अनुच्छेद 3 के अंतर्गत, नाटो के यूरोपीय सदस्यों को संयुक्त राज्य अमेरिका की सैन्य तथा अन्य रक्षा सहायता, जिसका कुल मूल्य संगठन के गठन के प्रथम बीस वर्षों के अन्दर 25 बिलियन डॉलर से अधिक था, उपलब्ध कराया गया.
अनुच्छेद 9 के अंतर्गत संगठन या संधि के लिये एक केन्द्रीकृत प्रशासनिक और नेतृत्व संरचना स्थापित की गयी तथा विस्तृत नागरिक संस्थाओं, सैनिक कमानों, कार्मिकों और गतिविधियों को विकसित किया गया.
फ्रांस 1966 में नाटो की एकीकृत सैन्य कमांड से बाहर हो गया. यद्यपि, वह संगठन का सदस्य बना रहा. फ्रांस पुनः 1995 में इस कमांड में सम्मिलित हुआ. यूनान भी 1974 में एकीकृत सैन्य तंत्र से बाहर हो गया, लेकिन 1980 में पुनः इसमें सम्मिलित हो गया.
नाटो के उद्देश्य
नाटो के प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार हैं-
- किसी सदस्य पर सशस्त्र आक्रमण की स्थिति में विश्वसनीय निवारण (deterrence) तथा वास्तविक तनाव शैथिल्य (detents) के सिद्धांतों पर आधारित एक सामूहिक रक्षा व्यवस्था प्रदान करना;
- संवाद और पारस्परिक सहयोग तथा सैनिक दृष्टि से महत्वपूर्ण, न्यायसंगत और प्रामाणिक निःशस्त्रीकरण समझौतों के माध्यम से सकारात्मक पूर्व-पश्चिम संबंधों की दिशा में कार्य करना, और;
- गठबंधन के भीतर आर्थिक, वैज्ञानिक, सांस्कृतिक तथा अन्य क्षेत्रों में सहयोग विकसित करना.
नाटो की संरचना
इसकी मूल संधि में संस्थागत पहलुओं का विस्तृत उल्लेख नहीं था; इसमें सिर्फ रक्षा समितियों और अन्य सहायक अंगों को गठित कने के लिए अधिकृत रक परिषद् के गठन का उल्लेख किया गया. सैनिक तथा असैनिक क्षेत्रों में नाटो के उत्तरदायित्वों को दृष्टिगत रखते हुए इसके संगठनात्मक ढांचे का विकास हुआ है.
असैनिक क्षेत्र में उत्तरी अटलांटिक परिषद नीतिगत विषयों के लिये सर्वोच्च निर्णयकारी अंग तथा परामर्श मंच है. सभी सदस्य देशों के प्रतिनिधियों से बनी इस परिषद की मंत्रिस्तरीय (वर्ष में दो बार) और शिखर स्तरीय बैठक होती है तथा स्थायी प्रतिनिधियों के स्तर पर यह स्थायी सत्र में कायम रहता है.
सभी स्तरों पर इसकी सत्ता और निर्णयकारी शक्तियां समान होती हैं. इसके सभी निर्णय सर्वसम्मति से लिये जाते हैं. 1968 में गठित रक्षा नियोजन समिति (डीपीसी) में उन देशों के प्रतिनिधि सम्मिलित होते हैं, जो एकीकृत सैन्य कमान-तंत्र के सदस्य हैं. सैनिक नीति की दृष्टि से यह नाटो की सर्वोच्च संस्था है. इसकी मंत्री और स्थायी प्रतिनिधि, दोनों स्तरों पर बैठकें होती हैं. नाभिकीय नियोजन समूह (एनसीजी) नाभिकीय विषयों पर चर्चा करता है.
सैनिक उत्तरदायित्वों के निर्वहन के लिये नाटो में एक सैन्य समिति (एमसी) का गठन किया गया है. यह डीपीसी और परिषद के समक्ष अनुशंसाएं प्रस्तुत करती है तथा संयुक्त कमांडरों को दिशा-निर्देश देती है; फ्रांस और आइसलैंड को छोड़कर (आइसलैंड के पास अपनी सैनिक संरचना नहीं है, इसका प्रतिनिधित्व असैनिक सदस्य के द्वारा संभव है).
सभी सदस्य देशों के सैनिक प्रतिनिधि इस समिति के सदस्य होते हैं. चीफ-ऑफ-स्टाफ्स के स्तर पर इसकी वर्ष में दो बैठकें होती हैं. सदस्य देशों के सैनिक प्रतिनिधियों के स्तर पर इसका स्थायी सत्र चालू रहता है. एमसी की सहायता के लिये अंतरराष्ट्रीय सैनिक स्टाफ (आईएमएस) होता है, जो एमसी की नीतियों और निर्णयों का क्रियान्वयन करता है तथा सैनिक विषयों पर सिफारिशें तैयार करता है और अध्ययन आयोजित करता है.
1994 से पहले संधि के अधीन आने वाले रणनीतिक क्षेत्र, तीन कमानों में विभाजित थे–संयुक्त कमान-यूरोप, संयुक्त कमान-अटलांटिक, और, संयुक्त कमान-चैनल (उदाहरणार्थ, इंग्लिश चैनल). 1994 में संयुक्त कमान-चैनल को भंग कर दिया गया और इसके उत्तरदायित्व संयुक्त कमान-यूरोप को सौंप दिये गये.
संयुक्त कमान-यूरोप का मुख्यालय, जिसे आधिकारिक रूप से यूरोपीय गठबंधन शक्तियों का सर्वोच्च मुख्यालय (Supreme Headquarters Allied Powers Europe—SHAPE) कहा जाता है, केस्टीयू (बेल्जियम) में अवस्थित है.
यूरोप कमान का सर्वोच्च गठबंधन कमांडर यूरोप-सेकुर (Supreme Allied Commander Europe—Saceur) होता है. इस कमान को तीन सहायक कमानों में विभक्त किया गया है-उत्तरी-पश्चिमी, मध्य और दक्षिणी. संयुक्त कमान-अटलांटिक का मुख्यालय नॉरफॉक (वर्जीनिया) में है तथा इसका सर्वोच्च अधिकारी सर्वोच्च गठबंधन कमांडर एत्लान्तिक-सेक्लेंट (Supreme Allied Commander Atlantic-Saclant) कहलाता है.
दोनों कमानों के अधिकारी संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के द्वारा नियुक्त (designated) होते हैं. शांति काल में इन कमानों का कार्य मित्र सेनाओं का वास्तविक शासन करना नहीं है, बल्कि उनके क्षेत्रों की रचना का नियोजन करना, सेनाओं का पर्यवेक्षण करना तथा अभ्यास कराना है. कनाडा-संयुक्त राज्य अमेरिका क्षेत्रीय नियोजन समूह संयुक्त राज्य अमेरिका-कनाडा क्षेत्र के लिये रक्षा योजना तैयार करता है.
इसके अतिरिक्त राजनीतिक, आर्थिक, सैनिक और अन्य विविध विषयों पर विचार करने के लिये विशिष्ट समितियां गठित की गई हैं. महासचिव परिषद् और डीपीसी के निर्णयों को क्रियान्वित करता है तथा उन्हें विशेषज्ञ (expert) सलाह देता है.
1955 में नाटो के सांसद सम्मेलन के रूप में उत्तर अटलांटिक सभा का गठन किया गया. यह सभा राष्ट्रीय संसदों द्वारा प्रत्यायोजित सदस्यों की बनी होती है. यह नाटो से स्वतंत्र है, लेकिन सदस्य देशों के सांसदों और नाटो संगठन के बीच एक अनौपचारिक कड़ी के रूप में कार्य करती है. इसमें नाटो की नीतियों पर राजनीतिक चर्चाओं को प्रोत्साहन दिया जाता है.
गतिविधियां
नाटो का प्राथमिक उद्देश्य सोवियत संघ और उसके वारसा संधि के मित्रों के द्वारा साम्यवाद के विस्तार के क्रम में पश्चिमी यूरोप पर आक्रमण की स्थिति में पश्चिमी मित्र राष्ट्रों के सैनिक प्रत्युत्तर में मजबूती लाना और एकजुटता उत्पन्न करना था. इस उद्देश्य से नाटो ने क्रमबद्ध तरीके से अपने सैनिकों को विकसित करना प्रारम्भ कर दिया.
1957 के पूर्वार्द्ध से पश्चिमी यूरोप के सैनिक अड्डों पर संयुक्त राज्य अमेरिका के परमाणु हथियारों की तैनाती शुरू कर दी गई. 1970 के पूर्वार्द्ध तक नाटो सेना के पास परमाणु अस्त्रों से सुसज्जित मध्यम दूरी के प्रक्षेपास्त्र और बड़ी संख्या में परम्परागत हथियार एकत्रित हो गये थे.
अगले दो दशकों तक अर्थात् 1980 के दशक के अंत तक, नाटो ने शस्त्र विस्तार के मुद्दे पर सोवियत रूस और उसके वारसा संधि मित्रों के साथ तनाव शैथिल्य के लिये वार्ताओं को जारी रखने तथा एक प्रभावशाली सामूहिक रक्षा प्रणाली को कायम रखने की दोहरी नीति का अनुसरण किया.
1980 के दशक के अंत में सोवियत नेता मिखाइल गोर्बाचेव के दूरगामी सुधारों ने शीत युद्ध और अंततः नाटो को जड़ से प्रभावित किया. 1989 के अंत और 1990 के प्रारम्भ की घटनाओं-सोवियत संघ द्वारा सम्पूर्ण पूर्वी यूरोप में साम्यवादी सरकारों के पतन तथा उनकी जगह निष्पक्ष रूप से निर्वाचित सरकारों (गैर-साम्यवादी) की स्थापना की मौन स्वीकृति.
बर्लिन दीवार (जिसे कभी कभी नाटो के अस्तित्व के चरम संकेत के रूप में निर्दिष्ट किया जाता था) का ढहना, और; जर्मनी का नाटो का सदस्य बनना, ने पश्चिम यूरोप को वारसा संधि से पूर्व में मिल रही अधिकांश धमकियों को समाप्त कर दिया. इससे नाटो को एक सैनिक संगठन के रूप में बनाये रखने के औचित्य पर प्रश्न चिह्न लग गया.
1990 में लंदन में आयोजित नाटो शिखर सम्मेलन ने शीत युद्ध की समाप्ति की पुष्टि की तथा पूर्व में एक-दूसरे के विरोधी रह चुके सदस्यों के समक्ष और गैर-आक्रमण संधि और एक परंपरागत अस्त्र समझौते का प्रस्ताव रखा.
लंदन घोषणा में अग्रवर्ती रक्षा (forward defence) के सिद्धांत, जिसके अंतर्गत पूर्वी-पश्चिमी सीमान्तों पर भारी संख्या में सैनिकों और अस्त्रों की तैनाती होती थी, के स्थान पर पूर्वकालीन अग्र सीमाओं (front lines) से पर्याप्त दूरी पर कम संख्या में तथा गतिशील सैनिकों की तैनाती पर सहमति हुई.
मई 1991 में नाटो के रक्षा मंत्री सैनिक व्यवस्था में व्यापक परिवर्तन के लिये तैयार हुये. इनमें सैनिकों की संख्या (यूरोप में अमेरिकी सैनिकों में कमी सहित) में भारी कमी तथा छोटे संकटों, जैसे-यूरोप महाद्वीप में जातीय वैमनस्यता से उत्पन्न संकट, से निबटने के लिये गठबंधन त्वरित कार्य बल की स्थापना सम्मिलित थी.
यूरोप के सैनिक परिदृश्य में परिवर्तन से यूरोपीय सुरक्षा मामलों में अमेरिकी भूमिका पर बहस छिड़ गई. नाटो को क्षेत्र से बाहर सैनिक गतिविधियों की अनुमति देना चर्चा का एक अन्य विषय था. इससे पूर्वी यूरोपीय देश अपनी सुरक्षा को लेकर आशंकित हो गये. इस चिन्ता की दृष्टिगत रखते हुए नाटो ने पूर्व वारसा संधि के सदस्यों और नाटो के बीच राजनीतिक संवाद के लिये 1991 में उत्तर अटलांटिक सहयोग परिषद (North Atlantic Cooperation Council– NACC) का गठन किया.
रोम शिखर सम्मेलन, 1991 में संगठन के लिये एक नई सामरिक अवधारणा को अपनाया गया तथा यूरोपीय सैनिक संधि से बाहर अस्त्र नियंत्रण प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया गया. नई युद्धनीतिक अवधारणा संगठन के मुख्य (सैन्य) कार्यों को प्रेरित करती है. साथ ही, यह सुरक्षा मामलों के प्रति राजनीतिक रुख के महत्व को भी स्वीकार करती है.
नाटो नेताओं ने महाद्वीप की सुरक्षा समस्याओं से निबटने के लिए सीएससीई (बाद में ओएससीई), ईसी तथा डब्ल्यूईयू जैसे संगठनों की भूमिका में वृद्धि का भी अनुमोदन किया, लेकिन इस बात पर बल दिया कि अखिल-यूरोपीय सैन्य बल यूरोप में नाटो सैनिकों के लिये अनुपूरक होगा न कि प्रतिस्थापक.
1992 में नाटो के विदेश मंत्री जातीय हिंसा से प्रभावित क्षेत्रों में शांति की स्थापना के लिये (case-by-case basis) पर सैनिकों की तैनाती के लिये तैयार हुये. 1993 में नाटो ने युगोस्लाविया संघ गणराज्य के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रतिबंध में भाग लेना प्रारम्भ कर दिया. 1994 में नाटो के सैन्य विमानों ने सर्बिया पर हवाई हमले किये. यह संगठन के इतिह्रास में पहली प्रत्यक्ष सैनिक कार्यवाही थी.
1994 में नाटो ने समस्त यूरोप में राजनीतिक और सैनिक सहयोग विकसित करने के उद्देश्य से शांति के लिये सहभागिता कार्यक्रम आरंभ किया. एनएसीसी द्वारा विकसित एवं विस्तृत राजनीतिक संवाद पर आधारित यह कार्यक्रम भागीदारों को सैन्य नियोजन, प्रशिक्षण और अभ्यासों, रक्षा एवं सुरक्षा सूचनाओं के आदान-प्रदान तथा नाटो/ओएससीई शांति मिशनों में संयुक्त भागीदारी में सैन्य सहयोग (न कि पूर्ण-विकसित सुरक्षा संधि) प्रदान करता है.
1999 में नाटो में कुल 26 शांति-सहभागी सम्मिलित थे. नाटो प्रत्येक ऐसे सक्रिय सहयोगी से परामर्श करता है, जिनको अपनी क्षेत्रीय एकता, राजनीतिक स्वतंत्रता और सुरक्षा पर प्रत्यक्ष खतरा नजर आता है. नाटो के विस्तार की प्रक्रिया में शांति हेतु सहभागिता कार्यक्रम में सक्रिय भागीदारी की महत्वपूर्ण भूमिका है.
1995 में नाटो के नेतृत्व में एक बहुराष्ट्रीय सैनिक बल, क्रियान्वयन सैन्य बल (आईएफओआर) ने बोस्निया में विभिन्न प्रतिद्वंद्वी गुटों के बीच हुए शांति समझौते के क्रियान्वयन और नागरिक एवं आर्थिक पुनर्निर्माण के लिये अनुकूल वातावरण उत्पन्न करने के उद्देश्य से संयुक्त प्रयास के नाम से अपनी कार्यवाही प्रारम्भ की. बोस्निया में आईएफओआर द्वारा की गई कार्यवाही नाटो की अब तक की सबसे बड़ी सैनिक कार्यवाही थी.
1996 में नाटो विदेश मंत्री संकट प्रबंधन और शांति सहयोग कार्यक्रमों के लिये संयुक्त सह-टास्क बल (Combined Joint Task Forces–CJTFs) को क्रियान्वित करने के लिए सहमत हुए.
1990 के दशक के मध्य में अनेक पूर्वी यूरोपीय देशों ने नाटो का सदस्य बनने की इच्छा व्यक्त की. नाटो के अनेक सदस्यों ने इनकी उम्मीदवारी का समर्थन किया, लेकिन रूस ने इसका घोर विरोध किया . रूस ने नाटो के विस्तार को अपने प्रभाव क्षेत्र में अतिक्रमण के रूप में लिया. 1990 के दशक के अंत में भी नाटो के विस्तार का मामला रूस और पश्चिम के बीच तनाव का एक स्रोत बना रहा.
वर्ष 1997 में नाटो और रूस ने पारस्परिक संबंध, सहयोग और सुरक्षा स्थापना अधिनियम पर हस्ताक्षर किये, जिसके अंतर्गत दोनों पक्ष एक-दूसरे को विरोधी के रूप में देखने की प्रवृत्ति को रोकने तथा मौलिक रूप से नये संबंधों की स्थापना के लिये सहमत हुये. सुरक्षा मामलों पर चर्चा के लिये एक स्थायी नाटो-रूस परिषद का गठन किया गया.
1997 में ही शांति हेतु सहभागिता कार्यक्रम को विकसित करने तथा नाटो के पूर्णकालिक सदस्यों और भागीदार सदस्यों के मध्य राजनितिक संबंधों को प्रोत्साहित करने के लिए एनएसीसी के स्थान पर एक नये अंग-अटलांटिक भागीदारी परिषद, का गठन हुआ.
1999 में कोसोवो संकट के समाधान के लिये युगोस्लाविया के अधिकारियों के साथ हुई समझौता वार्ता के विफल होने के बाद नाटो ने सर्बियाई सैनिक ठिकानों के विरुद्ध सैन्य कार्यवाही की.
11 सितंबर, 2001 को अमेरिका पर हुए आतंकवादी हमले के पश्चात् अमेरिका द्वारा इसके पीछे ओसामा बिन लादेन तथा उसके संगठन अल-कायदा के हाथ होने के पुष्ट प्रमाण प्रस्तुत करने के बाद नाटो द्वारा पहली बार अक्टूबर 2001 में अनुच्छेद 5 के तहत पारस्परिक रक्षा धारा को औपचारिक रूप से अधिनियमित किया गया.
राजनीतिक रूप से, संगठन के भूतपूर्व वारसा पैक्ट के देशों के साथ बेहतर संबंध रहे, जिनमें से अधिकतर 1999 और 2004 में नाटो में शामिल हुए. संगठन ने कई भूमिकाएं निभाई हैं जिनमें संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् प्रस्ताव 1973 के अनुरूप वर्ष 2011 में लीबिया में नो-फ्लाई जोन प्रवृत्त करना शामिल है.
वर्ष 2004 के इस्तांबुल शिखर बैठक में नाटो ने फारस की खाड़ी के चार देशों के साथ इस्तांबुल सहयोग पहल को जारी किया. मार्च 2004 में नाटो की बाल्टिक एयर पोलिसिंग शुरू हुई, जिसने अवांछित आकाशीय घुसपैठ की प्रतिक्रिया हेतु लड़ाके प्रदान करके लाटविया, लिथुआनिया एवं एस्टोनिया की संप्रभुता का समर्थन किया.
वर्ष 2006 के रीगा (लाटविया) शिखर बैठक में ऊर्जा सुरक्षा के मामले पर प्रमुखता से विचार किया गया. यह नाटो का पहला ऐसा शिखर सम्मेलन था जिसे ऐसे देश में आयोजित किया गया जो सोवियत संघ का हिस्सा रहा था. अप्रैल 2008 के बुखारेस्ट (रोमानिया) सम्मेलन में नाटो क्रोएशिया एवं अल्बानिया दोनों के नाटो में सम्मिलन पर सहमत हो गया जो अप्रैल 2009 में नाटो में शामिल हो गए.
2014 के क्रीमिया संकट के चलते पूर्वी यूरोप के कई सदस्य देश नाटो पर इस बात के लिए जोर दे रहे हैं कि वह उनकी धरती पर स्थायी रूप से एक सैनिक टुकड़ी की स्थापना करे और यह 1997 में किए गए रूस के साथ सहयोग समझौते के परिप्रेक्ष्य में कहा गया है. यद्यपि नाटो ने उस समझौते की कानूनी बाध्यता को नकार दिया.
2012 से नाटो अपने उद्देश्य को लेकर बेहद व्यापक हो गया है जिसकी बैठकों में काउंटर पाइरेसी और तकनीकी आदान-प्रदान के मामलों पर भी बातचीत की जाती हैं.
नाटो (NATO) के अभियान और मिशन
नाटो एक व्यापक संकट प्रबंधन, सैन्य अभियान और मिशनों में शामिल है. नाटो वर्तमान में अफगानिस्तान, कोसोवो, भूमध्य सागर और अन्य क्षेत्रों में सक्रिय है.
कोसोवो में मिशन
नाटो ने जून 1999 से कोसोवो में शांति और स्थिरता को मजबूत करने के उद्देश्य से एक शांति सहायता अभियान का नेतृत्व किया है. इस अभियान के तहत, कोसोवो फोर्स (KFOR) का गठन किया गया, जिसका मुख्य उद्देश्य सुरक्षित वातावरण स्थापित करना, सार्वजनिक व्यवस्था और सुरक्षा बनाए रखना है. KFOR ने मित्रोविका-उत्तर और मित्रोविका-दक्षिण में COVID-19 के खिलाफ लड़ाई में व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण (PPE) भी उपलब्ध कराए हैं.
इराक में प्रशिक्षण मिशन
2018 में, नाटो ने इराक में उसके सुरक्षा बलों, रक्षा और सुरक्षा संस्थानों, और राष्ट्रीय रक्षा अकादमियों की क्षमता बढ़ाने के लिए नाटो प्रशिक्षण मिशन (NMI) शुरू किया. इस मिशन का उद्देश्य इराक के सुरक्षा बलों को मजबूत करके और आतंकवादी समूह ISIL (इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड द लेवेंट) या DAECH के पुनरुत्थान को रोकने में मदद करके आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में योगदान देना है.
मध्य-पूर्व में बढ़ते तनाव के कारण, जनवरी 2020 की शुरुआत में इस मिशन की फील्ड प्रशिक्षण गतिविधियों को अस्थायी रूप से निलंबित कर दिया गया था. इराक उन “वैश्विक भागीदारों” में से एक है जिनके साथ नाटो संबंध विकसित करने के लिए प्रतिबद्ध है.
समुद्री सुरक्षा अभियान
समुद्री सुरक्षा नाटो की सर्वोच्च प्राथमिकताओं में से एक है. इसके लिए, नाटो ने “सी गार्जियन” नाम से एक समुद्री सुरक्षा अभियान शुरू किया है. वर्तमान में, यह अभियान भूमध्य सागर में तैनात है और समुद्री सुरक्षा से संबंधित सात कार्यों में से तीन पर ध्यान केंद्रित करता है:
- समुद्री स्थितिजन्य जागरूकता के लिए समर्थन.
- आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में योगदान.
- समुद्री सुरक्षा क्षमताओं के निर्माण में योगदान.
- अन्य कार्य: नाटो के अन्य चार कार्य हैं:
- नेविगेशन की स्वतंत्रता को लागू करना.
- समुद्री अंतःविषय क्रियाएं करना.
- सामूहिक विनाश के हथियारों के प्रसार और परिवहन को रोकना.
- महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे की रक्षा करना.
2008 के बाद, नाटो ने संयुक्त राष्ट्र के अनुरोध पर अफ्रीका के हॉर्न और हिंद महासागर में अदन की खाड़ी में समुद्री डकैती से निपटने के लिए अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों का समर्थन किया. नाटो ने ऑपरेशन ओशन शील्ड का नेतृत्व किया, जिसने न केवल जहाजों की रक्षा की, बल्कि समुद्री डकैती को रोकने और विफल करने में भी मदद की. यह मिशन 15 दिसंबर, 2016 को समाप्त कर दिया गया था, लेकिन नाटो अभी भी समुद्री डकैती के खिलाफ लड़ाई में सक्रिय है.
अफ्रीकी संघ के साथ सहयोग
नाटो ने अफ्रीकी संघ के साथ तीन मुख्य क्षेत्रों में सहयोग विकसित किया है:
- सोमालिया में अफ्रीकी संघ मिशन (AMISOM) के लिए रणनीतिक हवाई और समुद्री परिवहन सहायता प्रदान करना.
- अफ्रीकी संघ की क्षमता को मजबूत करने में मदद करना.
- अफ्रीकी स्टैंडबाई फोर्स (ASF) की स्थापना और निरंतरता में मदद करना.
- नाटो और अफ्रीकी संघ के बीच साझेदारी को मजबूत करने के लिए एक सहयोग समझौते पर भी हस्ताक्षर किए गए हैं.
नाटो स्काई पुलिस
नाटो स्काई पुलिस एक सामूहिक और विशुद्ध रूप से रक्षात्मक मिशन है. इसमें इंटरसेप्टर की निरंतर उपस्थिति होती है जो हवाई क्षेत्र के उल्लंघन या घुसपैठ की स्थिति में तुरंत प्रतिक्रिया करने में सक्षम होते हैं. नाटो के वे सदस्य देश जो संसाधन संपन्न हैं, वे उन देशों की मदद करते हैं जिनके पास अपने हवाई क्षेत्र की निगरानी के लिए पर्याप्त साधन नहीं हैं.
अफगानिस्तान में मिशन
नाटो अफगानिस्तान में ‘संकल्प सहायता मिशन’ (Resolute Support Mission) के तहत ‘गैर-युद्ध मिशन’ चलाता है. इस मिशन का उद्देश्य अफगान सुरक्षा बलों और संस्थानों को प्रशिक्षण, सलाह और सहायता देना है. यह मिशन निम्नलिखित कार्यों में योगदान करता है:
- योजनाओं, प्रोग्रामिंग और बजट को समर्थन देना.
- पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करना.
- कानून के शासन और सुशासन के सिद्धांतों को बढ़ावा देना.
- बल उत्पादन, भर्ती, प्रशिक्षण, प्रबंधन और कर्मचारियों का विकास करना.
नाटो ने संयुक्त राष्ट्र के जनादेश के तहत अगस्त 2003 से दिसंबर 2014 तक अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा सहायता बल (ISAF) का नेतृत्व किया था. जनवरी 2015 में ISAF के बाद ‘संकल्प सहायता मिशन’ शुरू किया गया. 18 वर्षों से अधिक चले संघर्ष के पश्चात् 29 फरवरी, 2020 को अमेरिका और तालिबान ने अफगानिस्तान में “शांति के लिये एक समझौता” पर हस्ताक्षर किए. इस तरह अफ़ग़ानिस्तान से नाटो के सैनिकों की वापसी संभव हुई.
NATO की 75वीं वर्षगाँठ
वर्ष 2024 में नाटो (North Atlantic Treaty Organization) ने अपनी 75वीं वर्षगाँठ मनाई. यह गठबंधन, जो 1949 में वाशिंगटन संधि के माध्यम से स्थापित हुआ था, शीत युद्ध के दौरान पश्चिमी यूरोप और उत्तरी अमेरिका के बीच सामूहिक सुरक्षा का सबसे बड़ा स्तंभ बना. अपनी दीर्घ यात्रा में नाटो ने न केवल सोवियत संघ और वारसा पैक्ट जैसी चुनौतियों का सामना किया, बल्कि शांति स्थापना, संकट प्रबंधन और सामूहिक रक्षा के क्षेत्र में भी सक्रिय भूमिका निभाई.
हालाँकि, बीते कुछ दशकों में वैश्विक सुरक्षा परिदृश्य में तेज़ और जटिल बदलाव हुए हैं.
- महान शक्ति प्रतिद्वंद्विता का पुनरुत्थान: रूस-यूक्रेन संघर्ष और एशिया-प्रशांत में अमेरिका-चीन प्रतिस्पर्धा ने भू-राजनीतिक तनाव बढ़ाया है.
- नए प्रकार के अंतर्राष्ट्रीय खतरे: आतंकवाद, साइबर हमले, अंतरिक्ष सुरक्षा, जैविक एवं रासायनिक हथियारों की आशंका, और वैश्विक आपूर्ति शृंखला पर संकट जैसी चुनौतियाँ नाटो के सामने हैं.
- तकनीकी श्रेष्ठता की दौड़: कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI), क्वांटम कंप्यूटिंग और हाइपरसोनिक हथियार जैसी नई प्रौद्योगिकियाँ सुरक्षा समीकरण बदल रही हैं.
इन परिस्थितियों में, नाटो के लिये आवश्यक है कि वह केवल सैन्य गठबंधन न रहकर एक व्यापक सुरक्षा मंच के रूप में अपनी भूमिका निभाए. इसके लिये:
- रक्षा क्षमताओं में बड़े पैमाने पर निवेश,
- निर्णय-निर्माण प्रक्रियाओं को तेज़ और पारदर्शी बनाना,
- साइबरस्पेस और अंतरिक्ष जैसे नए क्षेत्रों को अपने सामरिक ढाँचे में समाहित करना,
- और तकनीकी नवाचार में श्रेष्ठता बनाए रखना अनिवार्य हो गया है.
इसके अतिरिक्त, गठबंधन के भीतर आंतरिक एकता बनाए रखना भी एक चुनौती है. अमेरिका, यूरोपीय संघ के देशों और तुर्की जैसे सदस्य देशों के हित कई बार परस्पर भिन्न होते हैं. इसलिए नाटो को केवल सामरिक ही नहीं बल्कि राजनीतिक सामंजस्य की दिशा में भी कार्य करना होगा.
इस प्रकार, अपनी 75वीं वर्षगाँठ पर नाटो एक महत्त्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है. अतीत में इसने अपने सदस्य देशों को सुरक्षा और स्थिरता प्रदान की है, परंतु भविष्य में इसे वैश्विक शांति का एक विश्वसनीय स्तंभ बने रहने के लिए निरंतर सुधार, अनुकूलन और एकजुटता बनाए रखनी होगी.
NATO शिक्षर सम्मेलन, 2025
नाटो का सबसे हालिया शिखर सम्मेलन जून 2025 में नीदरलैंड के हेग में आयोजित किया गया था. यह शिखर सम्मेलन कई महत्वपूर्ण निर्णयों और चर्चाओं के लिए महत्वपूर्ण था.
मुख्य निर्णय और एजेंडा
- रक्षा खर्च में वृद्धि: शिखर सम्मेलन का सबसे महत्वपूर्ण निर्णय सदस्य देशों के लिए अपने वार्षिक सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का 5% रक्षा पर खर्च करने का एक नया लक्ष्य निर्धारित करना था. इस लक्ष्य को 2035 तक प्राप्त करने का उद्देश्य रखा गया है. इसमें से 3.5% सैन्य खर्च के लिए और 1.5% अन्य सुरक्षा क्षेत्रों (जैसे साइबर सुरक्षा और बुनियादी ढाँचा) के लिए आवंटित किया जाएगा. इस निर्णय पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने विशेष रूप से जोर दिया था.
- सामूहिक सुरक्षा की पुष्टि: सदस्य देशों ने नाटो की सामूहिक सुरक्षा गारंटी की फिर से पुष्टि की, जो अनुच्छेद 5 में निहित है. इस अनुच्छेद में कहा गया है कि किसी एक सदस्य देश पर हमला सभी सदस्य देशों पर हमला माना जाएगा. यह प्रतिबद्धता गठबंधन की एकता को मजबूत करने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम था.
- यूक्रेन के लिए समर्थन: शिखर सम्मेलन में यूक्रेन के लिए दीर्घकालिक सैन्य सहायता पर भी चर्चा हुई. सदस्य देशों ने यूक्रेन को मजबूत समर्थन देने का संदेश दिया, जिसमें सैन्य सहायता और प्रशिक्षण कार्यक्रम शामिल हैं.
- वैश्विक सुरक्षा चुनौतियाँ: इस सम्मेलन में रूस-यूक्रेन संघर्ष, ईरान के परमाणु कार्यक्रम और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन की बढ़ती आक्रामकता जैसी जटिल वैश्विक पृष्ठभूमि पर भी विचार-विमर्श किया गया.
- नेतृत्व परिवर्तन: यह शिखर सम्मेलन नीदरलैंड के पूर्व प्रधान मंत्री मार्क रूटे के नाटो के नए महासचिव के रूप में कार्यभार संभालने के बाद उनकी पहली प्रमुख उपस्थिति थी.
NATO की कार्यप्रणाली से संबंधित विभिन्न चिंताएँ
अनियंत्रित रूप से आक्रामक
नाटो की स्थापना 1949 में मूलतः सदस्य देशों की सामूहिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये की गई थी, किंतु इतिहास गवाही देता है कि इसे किसी बड़े बाहरी आक्रमण का सामना कभी नहीं करना पड़ा. इसके विपरीत, अपने सदस्य देशों की रक्षा के नाम पर नाटो स्वयं आक्रामक होता चला गया. पिछले सात दशकों में यह संगठन 200 से अधिक सैन्य संघर्षों में शामिल रहा, जिनमें 20 बड़े संघर्ष भी सम्मिलित हैं. इस कारण इसकी छवि एक रक्षात्मक गठबंधन की बजाय आक्रामक संगठन के रूप में उभर आई है.
गैर-सदस्य देशों में दुस्साहसिक कदम
यूगोस्लाविया पर 1999 की बमबारी, इराक पर 2003 का आक्रमण, लीबिया की सत्ता का पतन (2011), सीरिया में गैर-कानूनी सैन्य हस्तक्षेप और अफगानिस्तान में लंबे समय तक चली कार्रवाई—ये सभी नाटो की तथाकथित “मानवाधिकार” एवं “लोकतंत्र रक्षा” की नीतियों की आड़ में किए गए हस्तक्षेप थे. इन कार्रवाइयों ने न केवल क्षेत्रीय स्थिरता को भंग किया, बल्कि लाखों नागरिकों के जीवन और आजीविका को भी नष्ट कर दिया.
रूस-यूक्रेन युद्ध को भड़काना
1991 के बाद नाटो के पाँच दौर के विस्तार (बावजूद इसके कि रूस से विस्तार न करने का आश्वासन दिया गया था) और यूक्रेन को रूस के विरुद्ध रणनीतिक स्प्रिंगबोर्ड में बदल देना यूरोप की सबसे बड़ी सुरक्षा चुनौती सिद्ध हुआ. 2022 के मैड्रिड शिखर सम्मेलन में नाटो ने रूस को यूरो-अटलांटिक क्षेत्र की स्थिरता एवं शांति के लिये सबसे बड़ा खतरा घोषित कर दिया, जबकि रूस ने औपचारिक रूप से ऐसा आक्रामक रुख कभी नहीं अपनाया था.
पश्चिमी आधिपत्य को बनाए रखना
कठोर यथार्थ यह है कि नाटो उन देशों पर सैन्य दबाव डालता है जो “नियम-आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था” (rules-based order) को स्वीकार नहीं करते. यह व्यवस्था वस्तुतः पश्चिमी शक्तियों की प्रभुत्ववादी नीति को ढकने का एक माध्यम है. इस दृष्टि से नाटो आज भी पश्चिम के औपनिवेशिक अभ्यासों की आधुनिक निरंतरता प्रतीत होता है.
अनुचित विस्तार और नई रणनीतियाँ
नाटो केवल यूरोप तक सीमित नहीं रहा. इसकी गतिविधियाँ अब बाह्य अंतरिक्ष, साइबरस्पेस और एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका जैसे क्षेत्रों तक फैलाई जा रही हैं. नाटो के “पूर्वी अंग” को नए सैन्य संसाधनों से सुसज्जित किया जा रहा है ताकि रूस एवं अन्य उभरती शक्तियों को घेराबंदी की जा सके. यह संगठन विभिन्न देशों के बीच सहयोग एवं पारंपरिक घनिष्ठता को कमजोर करने की दिशा में सक्रिय रूप से कार्य कर रहा है.
हिंद-प्रशांत क्षेत्र में विस्तार
नाटो अब यूरो-अटलांटिक और इंडो-पैसिफिक सुरक्षा की “अविभाज्यता” की अवधारणा को आगे बढ़ाकर पूर्वी गोलार्द्ध में अपनी भूमिका का विस्तार कर रहा है. अमेरिका AUKUS (ऑस्ट्रेलिया-यूके-यूएस), “यूएस-जापान-दक्षिण कोरिया ट्रोइका” और “टोक्यो-सियोल-कैनबरा-वेलिंगटन क्वार्टेट” जैसे छोटे गठबंधनों के जरिये नाटो के साथ व्यावहारिक सहयोग का मार्ग प्रशस्त कर रहा है. यह चीन की बढ़ती शक्ति को रोकने और हिंद-प्रशांत में शक्ति-संतुलन अपने पक्ष में बनाए रखने का प्रयास है.
सदस्य देशों पर बोझ
नाटो अपने सदस्य देशों से लगातार सैन्य खर्च बढ़ाने की मांग करता है. “5% जीडीपी” की अनिवार्यता ने कई देशों की आर्थिक नीतियों पर दबाव डाला है. यूरोप के भीतर कई देशों में यह चिंता है कि अमेरिका की रणनीतिक प्राथमिकताओं के चलते उन्हें ऐसे संघर्षों में शामिल होना पड़ सकता है जिनसे उनका प्रत्यक्ष हित नहीं जुड़ा.
आंतरिक मतभेद और आलोचनाएँ
फ्रांस, जर्मनी और तुर्की जैसे सदस्य देशों ने समय-समय पर नाटो की दिशा पर सवाल उठाए हैं. फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने इसे “ब्रेन-डेड” (मृतप्राय) संगठन तक कहा था. तुर्की ने भी सीरिया और ग्रीस से संबंधित मामलों में नाटो की निष्पक्षता पर प्रश्न उठाए. यह स्पष्ट करता है कि नाटो केवल बाहरी चुनौतियों से ही नहीं, बल्कि आंतरिक असहमति से भी जूझ रहा है.
इस प्रकार NATO की कार्यप्रणाली न केवल उसकी मूल स्थापना उद्देश्यों से भटक चुकी है, बल्कि यह वैश्विक स्थिरता के लिए स्वयं एक चुनौती बनती जा रही है.