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विदेश नीति और निर्धारक

    किसी देश के अंतर्राष्ट्रीय संबंध (International Relationship) के लिए स्थापित करने और अपने स्वार्थ की रक्षा के लिए तार्किक विदेश नीति एक आवश्यक कुंजी है. आज के वैश्विक युग में दो देशों के संबंध को समझना मुश्किल है. इसलिए, विदेश नीति का अध्ययन अंतर्राष्ट्रीय संबंधो का अति महत्वपूर्ण हिस्सा है. फेलिक्स ग्रॉस नामक विद्वान् ने तो अंतर्राष्ट्रीय संबंध को विदेश नीतियों के अध्ययन के रूप में परिभाषित किया है.

    साल 2022 में भारत के तत्कालीन विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने रेखांकित किया है कि वैश्विक गांव बन चुकी दुनिया में अगर एक जगह कुछ होता है, तो उसका असर हर जगह होता है. उदाहरण के लिए हम कोरोना महामारी और रूस-यूक्रेन युद्ध के प्रभाव को देख सकते हैं.

    उनकी यह बात भी गौरतलब है कि बदलती दुनिया में दो अहम घटनाक्रम चल रहा है- चीन का उभार और अमेरिका का बदलाव. वे पीएम नरेंद्र मोदी के संयुक्त राष्ट्र महासभा में रूस-यूक्रेन युद्ध टालने की अपील के कुछ समय बाद प्रतिक्रिया दे रहे थे. विदेश नीति के संबंध में ये दोनों बयान एक दूसरे के पूरक है. ये दुनियाभर में चर्चा का विषय बनी व सुर्खियां बटोरी. इसे काफी सराहा भी गया.

    विदेश नीति क्या है? (What is Foreign Policy in Hindi)

    आधुनिक समय में कोई भी राष्ट्र खुद को अंतर्राष्ट्रीय जीवन से पृथक नहीं रख सकता है. अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में भाग लेना प्रत्येक राष्ट्र के लिए जरुरी हो गया है. यह सहभागिता निश्चित और व्यवस्थित सिद्धांतों के आधार पर होती है. एक राष्ट्र जिस नीति का अनुसरण अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में अपनी भूमिका के निर्वाह के लिए करता है, उसे विदेश नीति कहते है. यह राष्ट्र के वैश्विक सोच की झलक होती है.

    कई बार दूसरे देश अपने व्यवहार में बदलाव नहीं लाते है. ऐसे में एक देश के विदेश-नीति का लक्ष्य पूरा नहीं हो पाता है. ऐसे स्तिथि में विदेश नीति का उद्देश्य अन्य राज्यों के व्यवहार में परिवर्तन लाना न होकर उसे नियंत्रित करना हो जाता है. नियंत्रण का अर्थ है कि अपने राष्ट्रिय हितों की प्राप्ति के लिए अन्य राज्यों के व्यवहार में अपेक्षित सुधार लाना.

    यह कार्य शक्ति के उपयोग से ही संभव है. इस तरह राष्ट्रहित और शक्ति, विदेश-नीति के दो मूल अंश है.

    विदेश नीति की परिभाषाएँ (Definition of Foreign Policy in Hindi)

    मॉडेलस्की(Modelski) के अनुसार, “कोई राज्य अन्य राज्यों के व्यवहार में परिवर्तन करवाने के लिए और अपनी गतिविधियों को अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण के अनुकूल बनाने के लिए जो उपाय करता है; उन्हें विदेश नीति कहा जाता है.”

    क्रैब (Crabb) ने लिखा है, “विदेश नीति के निर्माता पहले राष्ट्रिय उद्देश्यों की पहचान करते है और उनकी प्राप्ति के साधन सुनिश्चित करते है.” क्रैब का ये भी मानना है कि विदेश नीति के दो मूल तत्व होते है;- एक राष्ट्रिय उद्देश्य जिन्हें राष्ट्र प्राप्त करना चाहता है और दूसरा, उन्हें प्राप्त करने का साधन. राष्ट्रिय उद्देश्यों और उनकी प्राप्ति का साधनों के मध्य पारस्परिक सम्बन्ध राजनितिक शास्त्र का भी नैसर्गिक विषय रहा है.

    नार्मन पेडेल्फोर्ड एवं जॉन लिंकन लिखते है, “…एक राज्य की विदेश नीति अंतररष्ट्रीय वातावरण से उसके सम्पर्क (Dealings) का समग्र होती है. विदेश नीति सरकारी प्रपत्र, कार्य के औपचारिक रिकॉर्ड है. विदेश नीति विषयक कोई वक्तव्य साधारण संक्षिप्त हो सकता यही अथवा यह जटिल और विस्तृत हो सकता है. नीति उस प्रक्रिया का परिणाम होता है, जिसके द्वारा कोई राज्य विशिष्ट कार्य-प्रक्रिया में परिवर्तित करता है ताकि वह अपने लक्ष्यों और हितों की प्राप्ति कर सकें.”

    हार्टमेन के अनुसार- “विदेश नीति जानबूझ कर चयन किए गए राष्ट्रीय हितों का एक क्रमबद्ध वक्तव्य है.”

    ह्यूज गिब्सन के अनुसार- “विदेश नीति, ज्ञान और अनुभव पर आधारित एक ऐसी सुनिश्चित और वृहत योजना होती है, जिसके द्वारा किसी सरकार के शेष संसार के साथ सम्बन्धों का संचालन किया जाता है. इसका उद्देश्य राष्ट्रीय हितों को प्रोत्साहित और सुरक्षित करना होता है.”

    पी0ए0 रेनाल्डज के अनुसार-”विदेश नीति का अर्थ एक राष्ट्र के विभिन्न सरकारी विभागों द्वारा निर्धारित उन गतिविधियों की सीमाओं से है जिनके माध्यम से वे अपने सम्भावित राष्ट्रीय हितों की पूर्ति हेतु अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति से जुड़े अन्य राष्ट्रों के साथ कार्यरत् रहते है.”

    ग्लाइचर के अनुसार- “अपने व्यापक अर्थ में विदेश नीति उन उद्देश्यों, योजनाओं तथा क्रियाओं का सामूहिक रूप है जो एक राज्य अपने बाह्य सम्बन्धों का संचालित करने के लिए करता है.”

    विदेश-नीति का अध्ययन क्यों जरुरी है? (Why Foreign Policy is Necessary in Hindi)

    इसका अध्ययन दुनिया के ग्लोबल व एक गांव (Global Village) में सिमटने के वजह से महत्वपूर्ण हो गया है. भारत में इस विधा को कूटनीति (Foreign Policy Analysis-FPA) भी कहा जाता है.

    आज दुनिया के कई देश गरीब है. इनके यहाँ अनाज न पहुंचे तो यहां की जनता भुखमरी का शिकार हो जाएगी. फ़रवरी 2022 में रूस-यूक्रेन युद्ध छिड़ने के बाद दुनिया के कई हिस्सों को ऐसे ही हालात का सामना करना पड़ा था.

    अमेरिका द्वारा जापान के हिरोशिमा व नागासिका पर परमाणु बम गिराया जाना भी वैदेशिक नीति का हिस्सा था.

    आरम्भ में, दुनिया के किसी हिस्से में जरूरत के लगभग सभी सामान उपलब्ध होते थे. लेकिन, आज के वक्त स्थानीय वातावरण व संसाधन के अनुरूप कृषि एवं उद्योग विकसित हुए है. इसलिए, किसी इलाके में ख़ास वस्तुओं का आधिक्य व किसी में कमी रहती है. इसे अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के माध्यम से ही सुलझाया जा सकता है, जो दो देशों के बीच मैत्रीपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय संबंध से ही सम्भव है.

    आज के वक्त एक देश अपने जरुरत का सारा सामान खुद तैयार नहीं कर सकता. ये हकीकत है. इसलिए, ठोस वैश्विक व स्वीकार्य नीति अत्यंत जरुरी है.

    विदेश नीति के उद्देश्य (Objectives of Foreign Policy in Hindi)

    किसी राष्ट्र के विदेश नीति के निम्न उद्देश्य होते है-

    • राष्ट्र की अखंडता को बरकरार रखना
    • आर्थिक हितों को बढ़ावा देना
    • राष्ट्रिय सुरक्षा का प्रबंध करना
    • राष्ट्र की प्रतिष्ठा को बरकरार रखना और शक्ति बढ़ाना
    • विश्व शांति कायम रखना

    समग्र रूप से राष्ट्र का उद्देश्य राष्ट्रिय हितों को यथासम्भव पूर्ति करना और उनमें अभिवृद्धि करना हैं.

    मोर्गेंथाऊ ने इस बिंदु पर कहा है कि, “शक्ति के सन्दर्भ में परिभाषित राष्ट्रिय हित ही विदेश नीति है.”

    विदेश नीति पर राष्ट्रहित का प्रभाव (Impact of National Interest on Foreign Policy in Hindi)

    किसी भी देश के विदेश नीति में ‘राष्ट्रहित का अध्ययन’ एक महत्वपूर्ण अवयव है. मोर्गेंथाऊ ने तो ये साफ़ कह दिया कि विदेश नीति का प्रारम्भिक बिंदु ही राष्ट्रहित है. अल्फ्रेड टेलर के शब्दों में, “…स्व-हित वैध ही नहीं है, वरन राष्ट्रिय नीति का मूल आधार है. सरकारों से यह अपेक्षा करना कि वे राष्ट्रिय हित के अतिरिक्त किसी अन्य आधार पर कार्य करेंगे, निरर्थक है. उन्हें ऐसा करने का अधिकार भ्ही नहीं है, क्योंकि वे प्रतिनिधि है. पूर्ण सत्ताधारी नहीं…”

    ब्रिटिश राजनयिक पामर्सटन के अनुसार, “…हमारे न तो कोई सर्वकालिक मित्र है और न ही शत्रु. हमारे हित सार्वकालिक है और हमारा यह कर्तव्य है कि हम उनका संरक्षण करें.”

    कोई भी राष्ट्र चाहे कितना भी ताकतवर और बड़ा क्यों न हो, राष्ट्रहित के अतिरिक्त किसी अन्य तत्व पर अपनी विदेश नीति आधारित करने का साहस नहीं कर सकता. किसी भी राष्ट्र के आदर्श कितने भी उन्हें हो, अंततः उसकी विदेश नीति राष्ट्रिय हित पर ही आधारित होती है.

    मोर्गेंथाऊ और आर्नल्ड बुलफर्स जैसे विद्वान् इस विचारधारा के समर्थक है. लेकिन, कई ऐसे विद्वान भी है जो राष्ट्रहित की भूमिका विदेश नीति के निर्धारण में कम आंकते है.

    ये सत्य है कि राष्ट्रहित की अवधारणा एक अस्पष्ट अवधारणा है. इसका अलग-अलग संदर्भों में भिन्न अर्थ हो सकते है. फिर भी पेडेल्फोर्ड, लिंकन तथा ओलवी ने एकमत होकर कहा है कि राष्ट्रहित की धारणा समाज के मूल्यों पर निर्भर करती है. ये मूल्य है;- राष्ट्र का कल्याण, राजनैतिक विश्वास की सुरक्षा, राष्ट्रिय जीवन, क्षेत्रीय अखंडता तथा अपनी आत्म-रक्षा.

    कई लोग राष्ट्रहित का अभिप्राय, राजनितिक स्वतंत्रता और सीमाओं की सुरक्षा मानते है. मोर्गेंथाऊ के अनुसार, राष्ट्रहित के विषय-वस्तु का निर्धारण राजनितिक परम्परा और समग्र सांस्कृतिक संदर्भ द्वारा किया जाता है. इन्ही को ध्यान में रखकर राष्ट्र की विदेश नीति का निर्धारण किया जाता है. उनके अनुसार,, किसी राष्ट्र की मुख्य आवश्यकता अपनी भौतिक, राजनितिक और सांस्कृतिक अस्मिता को अन्य राष्ट्रों के अतिक्रमण से बचाने की होती है.

    अलग-अलग राष्ट्रों के भिन्न-भिन्न राष्ट्रिय हित हो सकते है. परन्तु इसका सार-तत्व सर्वत्र एक ही होता है. सभी राष्ट्र, राष्ट्रिय सुरक्षा, क्षेत्रीय अखंडता और राजनितिक स्वतंत्रता के आकांक्षी होते है. ये तीन तत्व राष्ट्रहित का सारतत्व है.

    कुछ राष्ट्रों के राष्ट्रहित में कुछ और तत्व शामिल हो सकते है, जैसे अंतर्राष्ट्रीय शांति बनाए रखना, अंतर्राष्ट्रीय कानून का सम्यक पालन और वैश्विक संगठन की स्थापना इत्यादि.

    यथार्थ में राष्ट्रहित का निर्धारण राष्ट्र की क्षमता और अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में उसके स्थान पर निर्भर करता है. कार्ल ड्युच ने अपनी पुस्तक, “The Analysis of International Relations” में ठीक ही कहा है, “…जो राष्ट्र जितना बड़ा और शक्तिशाली होता है, उसके राजनेता, अभिजन वर्ग और जनमानस की उतनी ही बड़ी महत्वकांक्षाएं अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में होती है.”

    राष्ट्रहित को विदेश नीति का उद्देश्य मानने से एक परेशानी हो सकती है या प्रायः होती है. राष्ट्रो के विदेश नीति में परस्पर टकराव हो सकते है.

    दूसरी बात, समकालीन अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में राष्ट्रीय हित को क्षेत्रीय हितों और वैश्विक हितों से भी चुनौती मिल रही है. सब कुछ होने के बाद भी यह निर्विवाद है कि राष्ट्रहित की प्राप्ति ही अंततः विदेश नीति का लक्ष्य होता है.

    विदेश नीति और राष्ट्रहित: आसान भाषा में (Explained in Easy Language of Hindi)

    1. राष्ट्रीय हित विदेश नीति को अन्तर्राष्ट्रीय परिवेश में प्रतिस्थापित करता है.
    2. राष्ट्रीय हित विदेश नीति को नियन्त्रिात करने वाले मापदण्डों का विकल्प प्रदान करता है.
    3. राष्ट्रीय हित विदेश नीति को निरन्तरता प्रदान करता है और उसे गतिशील बनाता है.
    4. विदेश नीति स्वयं को राष्ट्रीय हित के सन्दर्भ में परिवर्तित अन्तर्राष्ट्रीय परिवेश में समायोजित करती है, अर्थात स्वयं को बदली अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के अनुसार ढालती है.
    5. राष्ट्रीय हित विदेश नीति को मजबूत आधार प्रदान करते हैं क्योंकि ये समाज के समन्वित एवं सर्वसम्मति पर आधारित मूल्यों की अभिव्यक्ति होते हैं.
    6. राष्ट्रीय हित विदेश नीति का दिशा-निर्देशन करते हैं.

    राष्ट्र के विदेश नीति का निर्धारक कारक (Determining Factors of Foreign Policy in Hindi)

    विदेश नीति के निर्धारण में अनेक निर्धारक कारक होते है. इनमें कुछ स्थाई व कुछ अस्थाई होते है.

    जेम्स रोजनॉ (James Rasenau) ने अपनी पुस्तक, “The Study of Foreign Policy” (विदेश नीति का अध्ययन) में विदेश नीति के 12 निर्धारक बताए है. ये है- आकार, भूगोल, आर्थिक विकास, संस्कृति व इतिहास, बड़ी शक्तियों की संरचना, गठबंधन, प्रौद्योगिकी, सामाजिक संरचना, वैचारिक मनोभाव, राजनितिक उत्तरदायित्व, सरकार की संरचना और स्थितिपरक कारक.

    एक अन्य विद्वान् माइकेल बरेशर ने अपनी पुष्तक ‘India in World Politics’ में विदेश नीति के 6 प्रमुख कारक बताएं है. ये है- भूगोल, बाह्य वातावरण, निर्णय लेने वाले का व्यक्तित्व, आर्थिक स्तिथि, सैनिक स्तिथि और जनमत.

    इस तरह विदेश नीति को प्रभावित करने वाले कारक इस प्रकार है-

    भौगोलिक कारण (Geographical Factor in Hindi)

    यह विदेश नीति का अपरिवर्तनीय और प्राकृतिक कारक है. भौगोलिक कारक में राष्ट्र का आकार, जनसँख्या का विस्तार व स्वरुप, जलवायु व प्राकृतिक संसाधनों को रखा जा सकता है.

    आकार और जन्शंख्या प्रमुख भौगोलिक कारक है. सामान्यतया छोटे आकर और कम जनसंख्या वाले राष्ट्र अंतर्राष्टीर्य गतिविधियों में किसी बड़ी भूमिका की अपेक्षा नहीं रखते.

    कभी-कभी प्रचुर संसाधन वाले छोटे राष्ट्र भी विश्व घटनाक्रम में महत्वपूर्ण भूमिका के आकांक्षी होते है. इजरायल इसका एक उदाहरण है. यही स्तिथि तेल निर्यातक संपन्न देशों की है.

    राष्ट्र का आकार इतना बड़ा जरूर होना चाहिए कि निवासियों का भरप-पोषण हो सके. इसी प्रकार जनसंख्या उतनी जरूर हो, जिससे औद्योगिक प्रतिष्ठानों व रक्षा-सेवाओं में लोगों की कमी न पड़े.

    डेविड वाइटल के अनुसार, “किसी देश के क्षेत्रफल और उसकी जनसंख्या के आधार पर यह निश्चित किया जा सकता है कि वह देश महाशक्ति है या छोटा राष्ट्र.”

    सिर्फ बड़े आकार का राष्ट्र ही काफी नहीं है. इसकी भूमि भी उपयोगी होना चाहिए. जैसे कनाडा के पास विशाल भूभाग है, लेकिन इसका जनघनत्व कम है और अधिकांश हिस्सा बर्फ से ढका रहता है. ब्राजील का एक बड़ा हिस्सा अमेजन जंगल और ऑस्ट्रेलिया, सूडान व जैरे के बड़े हिस्से रेगिस्तान है. यदि इन राष्ट्रों के भूमि के नीचे बड़े मूल्य के खनिज संसाधन हो तो, ये देश विश्व में महत्वपूर्ण भूमिका का आकांक्षा कर सकते है. वास्तव में, भूमि, जनसंख्या आदि का गुणात्मक महत्व है, परिणात्मक नहीं.

    राष्ट्र का कम से कम एक हिस्सा समुद्र से घिरा होना चाहिए. अन्यथा इसे आयात-निर्यात के लिए अन्य राष्ट्र पर निर्भर रहना होगा. इस तरह की भौगोलिक स्तिथि, स्वतंत्र विदेश नीति के अनुपालन को कठिन बना देती है. इनपर सीमावर्ती देशों का हमेशा दवाब रहता है. नेपाल इसका एक उदाहरण है.

    वैसे तो प्रक्षेपास्त्रों व ड्रोन के वर्तमान युग में, भौगोलिक कारको का महत्व कम हुआ है. फिर भी, यदि राष्ट्र की भौगोलिक स्तिथि यथोचित हो तो राष्ट्र को स्वतंत्र विदेश नीति के अनुसरण में आसानी होती है.

    सांस्कृतिक व ऐतिहासिक मूल्य (Cultural and Economic Values in Hindi)

    किसी देश के सांस्कृतिक व ऐतिहासिक मूल्यों का भी उसकी विदेश नीति के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका होती है.

    सामान्य रूप से ये माना जाता है कि समान संस्कृति और ऐतिहासिक अनुभव वाले जनमानस से युक्त राष्ट्र एक मजबूत विदेश नीति का निर्माण करने में सफल होते है; क्योंकि इसे पुरे जनमानस का सहज ही सहयोग प्राप्त होता है. अपने ऐतिहासिक अनुभव से ही प्रेरणा लेकर भारत एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमरीका के देशों के मुक्ति संग्राम को प्रेरणा देता रहा है.

    आर्थिक विकास की स्तिथि (Situation of Economic Development in Hindi)

    यह देश के विदेश नीति का अत्यंत महत्वपूर्ण कारक है. आर्थिक दृष्टि से विकसित राष्ट्र का भुगतान संतुलन (Balance of Payment) उसके पक्ष में होता है. अर्थात उसका निर्यात-मूल्य (Export Value) उसके आयात मूल्य (Import Value) से अधिक होता है.

    ऐसे देशों को वित्तीय सहायता की काफी कम आवश्यकता होती है. एक विकसित राष्ट्र आसानी से समुन्नत प्राद्यौगिकी का आयात या स्वतः विकास कर सकता है.

    आर्थिक दृष्टि से कमजोर राष्ट्र प्रायः स्वतंत्र विदेश नीति का अनुसरण नहीं कर पाते; क्योंकि कमजोर आर्थिक विकास के कारण वे आर्थिक सहायता की खोज में अन्य राष्ट्रों पर निर्भर हो जाते है. आर्थिक निर्बलता उनके तांकिकी व सैन्य विकास कार्यक्रमों को प्रभावित करती है.

    तकनीकी विकास (Technological Development in Hindi)

    आधुनिक युग तकनीक का है. राष्ट्र के आर्थिक और सैनिक विकास से इसका सीधा संबंध है. इस रूप में तकनीकी विकास विदेश नीति को सीधा प्रभावित करता है. तकनीकी दृष्टि से विकसित राष्ट्र तकनीक आयात करने के लिए किसी अन्य देश पर निर्भर नहीं होते है.

    हाल के वर्षों में, जिन राष्ट्रो ने अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया यही, वे सभी तकनीकी दृष्टि से विकसित राष्ट्र है. ऐसे देश उच्चतम तकनीक (Higher Technology) का निर्यात करके भी विदेशी मुद्रा जुटा सकते है.

    रोजनॉ के अनुसार, “…तकनीकी परिवर्तन समाज की सैनिक और आर्थिक क्षमता में परिवर्तन ला सकता है. इससे अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में राष्ट्र की भूमिका प्रभावित होती है.”

    सैनिक शक्ति (Military Power in Hindi)

    विदेश नीति को आर्थिक, तकनीकी व सैनिक शक्ति लगभग समान रूप से प्रभावित करते है. सैनिक दृष्टि से सशक्त राष्ट्र ही अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में आक्रामक विदेश नीति का अनुसरण कर सकता है. ऐसे राष्ट्र के सेना का मनोबल काफी ऊँचा होता है. दूसरी ओर, सैनिक दृष्टि से कमजोर राष्ट्र की विदेश नीति भी कमजोर होती है. ऐसे राष्ट्र के लिए पूर्ण विदेश नीति अपनाना कठिन होता है.

    वैचारिक कारक (Ideological Factor in Hindi)

    विदेश नीति में वैचारिक कारक का भी अत्यंत महत्व है. हर राष्ट्र की अपनी एक विचारधारा होती है. विदेश नीति उसी विचारधारा को अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में प्रतिबिंबित करता है. विदेश नीति जिन लोगों के मष्तिष्क की कृति होती है. वे कही न कहीं इन वैचारिक मूल्यों से जुड़े होते है. ये मूल्य सामाजिक व्यवस्था के मूल्यों, सरकार के कार्यकरण और जीवन पद्धति से संबंधित हो सकते है.

    विद्वानों में इस विषय पर थोड़ा मतभेद है कि क्या विचारधारा का प्रसार राष्ट्र के राष्ट्रीय हित का भाग है? कभी-कभी ऐसा भी होता है कि राजनेता विचारधारा का प्रयोग अपने कृत्यों का औचित्य सिद्ध करने के लिए भी करते है. ऐसा भी देखा गया है कि राष्ट्र किसी अन्य राष्ट्र से युद्ध, राष्ट्रीय सुरक्षा के कारण नहीं, वरन अपनी विचारधारा उसपर आरोपित करने के लिए करते है.

    यथार्थवादी मानते है कि विचारधारा कोई नीतिगत उद्देश्य नहीं है. यह इस तथ्य से भी प्रमाणित है कि अलग-अलग विचारधारा वाले राष्ट्र लम्बे समय तक शांतिपूर्ण रहते रहे है. वैसे इसके विपरीत भी सत्य बताया जा सकता है. 1945 के बाद सोवियत संघ का एकमात्र उद्देश्य साम्यवादी विचारधारा का प्रसार करना रहा.

    हम यह कह सकते है कि विदेश नीति के कारक के रूप में विचारधारा का सिमित महत्व है. यह कहना ज्यादा उपयुक्त है कि विचारधारा विदेश नीति का प्रत्यक्षतः कारक नहीं होती है. यद्यपि यह उसकी दिशा को प्रभावित करती है.

    अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था का स्वरुप (Nature of International System in Hindi)

    यह विदेश नीति का सबसे प्रमुख कारक है. विदेश नीति अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में ही संचालित होती है. यह आवश्यक है कि अंतर्राष्ट्रीय व्यतवस्था के स्वरुप में परिवर्तनों के अनुकूल विदेश नीति की दशा व दिशा में परिवर्तन किया जाए.

    अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था एक-ध्रुवीय (Unipolar), द्वी-ध्रुवीय (Bi-Polar) या बहु-ध्रुवीय (Multi-Polar) हो सकती है. इसके अनुसार ही किसी देश को अपना विदेश नीति अनुकूलित करना पड़ता है.

    तात्कालीन अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में घट रहे घटनाक्रम भी वैदेशिक नीति को प्रभावित करते है. सन साथ के दशक में चीन-सोवियत मतभेद के चलते अमेरिका ने चीन के प्रति अपने विदेश नीति में परिवर्तन कर लिया.

    बांग्लादेश संकट (1971), अफगानिस्तान संकट (1979), चीन और अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को हथियारों की आपूर्ति ने तत्कालीन भारत के दक्षिण एशियाई विदेश नीति को काफी प्रभावित किया.

    साल 1991 में सोवियत संघ का विघटन हो गया. इससे पुरे दुनिया का अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था ही बदल गया. अब दुनिया दो-ध्रुवीय के स्थान पर एक-ध्रुवीय हो गई. इससे अधिकांश देशों के विदेश नीति में बदलाव हुए.

    जनमत (Public Opinion in Hindi)

    किसी देश में यदि कुछ गलत हो रहा है तो पुरे दुनिया की बहुसंख्यक जनता इसके खिलाफ हो जाती है. मीडिया भी कई बार सकारात्मक जनमत का निर्माण करती है. इस तरह वैश्विक जनता दवाब की राजनीति से गलत होने से रोकने का प्रयास करती है. कई बार लोकतान्त्रिक देश के नेता भी इससे प्रभवित होकर अपने विदेश नीति में थोड़ा बदलाव कर देते है.

    अंतर्राष्ट्रीय संगठन (International Organisations in Hindi)

    संयुक्त राष्ट्र जैसे संगठन का उद्देश्य विश्व में शांति कायम करना है. आज के समय में यह ग्लोबल लोक-हितकारी सरकार का रूप धारण कर रही है. कई बार इसके हस्तक्षेप से भी बड़े राष्ट्र दवाब नहीं बना पाते है.

    इस प्रकार अब आपको ज्ञात है कि विदेश नीति को प्रभावित करने वाले अनेक कारक होते है. ये ध्यान रखे कि सभी कारक परस्पर अंतरसंबन्धित है और इस रूप में ही विदेश नीति को प्रभावित करते है.

    इन कारको के अतिरिक्त, नीति-निर्माताओं का व्यक्तित्व भी विदेश नीति के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है.

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