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भारतीय संविधान: इतिहास और 20 विशेषताएं

भारतीय संविधान मौलिक नियमों का वह संग्रह है जो सरकार के विभिन्न अंगों के रुपरेखा, संरचना, अधिकार क्षेत्रों व उत्तरदायित्वों का निर्धारण करती है. इसका निर्माण ब्रिटिश सत्ता से आजादी मिलने पर संविधान सभा द्वारा किया गया था. संविधान से तात्पर्य (सम+विधान) उन मूल नियमों के संग्रह है, जिससे किसी राज्य या संगठन का अभिशासन लागू होता है. दुनिया के अधिकांश देशों ने सभी के लिए समान कानून लागु किए है. भारतीय संविधान की भी यही खासियत है. इसलिए इसे संविधान कहा जाता है.

संविधान किसी राज्य के नियमों और उपनियमों का एक ऐसा लिखित दस्तावेज है, जिसके अनुसार सरकार का संचालन किया जाता है. इससे प्रशासनिक व राजनीतिक व्यवस्था का बुनियादी ढाँचा निर्धारित होता है. संविधान राज्य की विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की स्थापना, उनकी शक्तियों तथा दायित्वों का सीमांकन एवं जनता तथा राज्य के मध्य संबंधों का विनियमन करता है.

हमारा देश भारत ‘राज्यों का संघ’ है, जो स्वंतंत्र व संप्रभु है. सरकार की संसदीय प्रणाली वाली यह देश समाजवादी लोकतांत्रिक गणराज्य है. हमारा गणतंत्र संविधान के अनुसार शासित है, जिसे 26 नवंबर 1949 को संविधान सभा द्वारा अपनाया गया था और 26 जनवरी 1950 को सम्पूर्ण देश में लागू किया गया.

भारतीय संविधान सरकार के संसदीय स्वरूप का प्रावधान करता है. इस सरकार की संरचना कुछ एकात्मक सुविधाओं के साथ संघीय है. केंद्रीय कार्यपालिका का संवैधानिक प्रमुख राष्ट्रपति होता है. वहीं राज्यों में राज्यपाल को राष्ट्रपति के तरह ही शासन में लगभग समान भागीदारी होता है.

भारत में कई राज्य है. इनका संघ मिलकर ही भारत का निर्माण करता है. कई मामलों में राज्यों को स्वायत्ता भी प्राप्त होती है. लेकिन किसी भी राज्य को केंद्र सरकार के विपरीत आचरण का अनुमति नहीं है. दोनों में विवाद की स्थिति में केंद्र का कानून ही मान्य होता है.

इसमें भारतीय समाज और लोकतंत्र की सफलता को ध्यान में रखते हुए कई प्रावधान किए गए है. इसलिए यह दुनिया का सबसे विशाल और विस्तृत लिखित संविधान बन जाता है. इसके निर्माण में भी काफी गहन विचार और अध्ययन किए गए. इस वजह से ही हमारे देश में एक सफल संविधान का निर्माण हो सका. इसलिए हमें भारतीय संविधान के विकास क्रम को समझना भी काफी जरुरी है. तो आइए इससे जुड़े हरेक पहलुओं को जानते-समझते है-

आसान भाषा में: भारतीय संविधान क्या है? (Definition of Indian Constitution in Hindi)

भारतीय संविधान काफी विस्तृत है. इसलिए इसकी कुछ शब्दों में व्याख्या नहीं की जा सकती है. लेकिन, इसके प्रस्तावना से इसके स्वरुप व उद्देश्य का मौलिक ज्ञान प्राप्त हो जाता है. हमारा प्रस्तावना जवाहरलाल नेहरू के ‘उद्देश्य’ प्रस्ताव पर आधारित है, जिसे उन्होंने 13 दिसंबर 1946 को संविधान सभा में प्रस्तुत किया था.

हमारे संविधान में सरकार के विभिन्न ढांचों और संरचनाओं का वर्णन है. साथ ही, राजनैतिक, प्रशासनिक व न्यायिक प्रक्रियाओं का भी वर्णन है. इसमें मौलिक अधिकार और कर्तव्य, केंद्र, राज्य व समवर्ती सूचि, निति-निर्देशक तत्व व संसद का वर्णन है.

भारतीय संविधान का प्रस्तावना (Preamble of the Indian Constitution in Hindi)

कुछ लोगों ने प्रस्तावना को भारतीय संविधान का आत्मा भी कहा है. भारतीय संविधान के प्रथम पृष्ठ में प्रस्तावना लिखा गया है. यह भारतीय संविधान के उद्देश्यों पर प्रकाश डालता है.

इसका शुरुआती शब्द, ‘हम भारत के लोग’, ‘संयुक्त राज्य अमेरिका’ के संविधान से लिया गया है. प्रस्तावना की भाषा ऑस्ट्रेलिया के संविधान से ली गई है.

1973 तक सर्वोच्च न्यायालय का मानना था कि प्रस्तावना में संसोधन नहीं किया जा सकता है. लेकिन केशवानंद भारती मामले में प्रस्तावना को संविधान का अंग माना गया और इस तरह इसमें नियमानुसार संसोधन की अनुमति संसद को प्राप्त हो गई. प्रस्तावना में लिखा संप्रभुता, लोकतंत्र, गणराज्य, पंथनिरपेक्ष, एकता एवं अखंडता को भारतीय संविधान का मूल ढांचा माना गया है. मतलब संसद इनमें किसी भी प्रकार का संसोधन नहीं कर सकती है.

प्रस्तावना में संसोधन पहली और आखिरी बार 42वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 के द्वारा किया गया. इस संसोधन द्वारा प्रस्तावना में ‘समाजवाद’, ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘राष्ट्र की अखंडता’ शब्द जोड़े गए. इस संसोधन के पश्चात प्रस्तावना का स्वरुप कुछ इस तरह है-

प्रस्तावना
“हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न,
समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य
 बनाने के लिए
और इसके समस्त नागरिकों को:
सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय,
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म
और उपासना की स्वतंत्रता,
प्रतिष्ठा और अवसर समता प्राप्त कराने के लिए,
तथा उन सब में
व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता तथा अखंडता
सुनिश्चित करने वाली बंधुत्व बढ़ाने के लिए
दृढ़ संकल्पित होकर अपनी इस संविधान सभा में
आज तारीख दिनांक 26 नवम्बर 1949 को एतत द्वारा
इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं.”

प्रस्तावना में वर्णित शब्दों का स्पष्ट छाप हमारे संविधान पर है. इसकी व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है-

संविधान के अधिकार का स्रोत (Source of Authority of Constitution in Hindi)

भारतीय संविधान को शक्ति ‘हम भारत के लोग’ यानि भारत की जनता से मिलती है. इसलिए भारत की जनता को भारतीय संविधान का स्त्रोत कहा जाता है.

यह भारतीय जनता के एकता और एकजुटता को भी इंगित करता है. साथ ही, यह भारतीय जनता का संविधान के प्रति आस्था और समपर्ण को भी दर्शाता है. मतलब सम्पूर्ण भारत की जनता ने इसे स्वीकार किया है और इसके अनुरूप आचरण व उद्देश्य प्राप्ति का निर्णय लिया है.

स्वरुप (Form)

प्रस्तावना के शुरुआत के 5 शब्द इसके स्वरुप का निर्धारण करती है. यह हमारे शासन-प्रणाली के निति और उद्देश्य पर भी प्रकाश डालता है. भारत की प्रकृति को- 1. संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न 2. समाजवादी 3. पंथनिरपेक्ष 4. लोकतंत्रात्मक 5. गणराज्य – इंगित करते है.

1. संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न (Full Dominance in Hindi)

इसका तात्पर्य देश की पूर्ण स्वतंत्रता से है. मतलब भारत अब ब्रिटिश शासन के अधीन नहीं रहा और बिना किसी बाहरी दवाब के स्वयं के फैसले लेगा. अब भारत न तो किसी अन्य देश पर निर्भर है और न ही किसी का डोमिनियन राज्य है. यह बिना किसी बाहरी दवाब के अपने आंतरिक और बाह्य फैसले खुद ही लेने में सक्षम है. अब भारत किसी अन्य देश के फैसले मानने के लिए बाध्य नहीं है.

2. समाजवादी (Socialist in Hindi)

भारत में लोकतांत्रिक समाजवाद है. लोकतान्त्रिक समाजवाद का अर्थ, उत्पादन और वितरण के साधनों पर निजी और सार्वजानिक दोनों क्षेत्रों का अधिका, से है. इसका चरित्र गांधीवादी समाजवाद से प्रेरित है, जिसका उद्देश्य अभाव, उपेक्षा और अवसरों की असमानता का अंत करना है. यह जनकल्याण को महत्त्व देकर सभी लोगों को राजनैतिक व आर्थिक समानता प्रदान करने के साथ ही वर्ग आधारित शोषण को भी समाप्त करता है. इस तरह इसका उद्देश्य लोकतान्त्रिक तरीके से आर्थिक समानता स्थापित करना है.

3. पंथनिरपेक्ष (Secular in Hindi)

भारतीय संविधान धर्म के आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं करेगा. साथ ही, राज्य का अपना कोई धर्म नहीं होगा. इसलिए सरकार किसी धर्म विशेष को बढ़ावा नहीं देती है और न किसी धर्म के आंतरिक मामले में दखल देती है. सरकार किसी भी धर्म को न तो संरक्षण या बढ़ावा दे सकती है. सरकार धर्म से जुड़े सभी किर्याकलापों से खुद को अलग रखती है. पंथनिरपेक्ष व धर्मनिरपेक्ष का मतलब अंग्रेजी में सामान यानि सेक्युलर (Secular) होता है.

4. लोकतंत्रात्मक (Democratic in Hindi)

भारतीय संविधान में लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली को अपनाया गया है. जनता अपने प्रतिनिधि का चयन गुप्त मतदान द्वारा करती है. यह व्यवस्था प्रचलित संप्रभुता के सिद्धांत पर आधारित है अर्थात सर्वोच्च शक्ति जनता के हाथ में है. भारत ने अपने यहाँ संसदीय लोकतंत्र अपनाया है.

5. गणराज्य (Republic in Hindi)

जहाँ राजशाही में राज्य का प्रमुख वंशानुगत आधार पर चुना जाता है, वहीं गणतंत्र में राज्य-प्रमुख का चयन प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तरीके से किया जाता है. भारत में राज्य प्रमुख्य यानि राष्ट्रपति का चयन अप्रत्यक्ष, वहीं अमेरिका में प्रतियक्ष तरीके से किया जाता है. ये दोनों गणतंत्रीय शासन-प्रणाली का उदाहरण है.

उद्देश्य (Objectives in Hindi)

संविधान के आखिरी पांच शब्द इसका उद्देश्य को दर्शाते है. ये है-

1. न्याय (Justice in Hindi)

प्रस्तावना में सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय का वर्णन मिलता है. इसका तात्पर्य है कि अपवादों को छोड़कर सभी को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक क्रियाकलापों में भाग लेने का खुली छूट होगी.

सामाजिक न्याय का तात्पर्य जाति, रंग, धर्म, लिंग के आधार पर भेदभाव से निषेध से है. समाज में सभी को गरिमापूर्ण जीवन का आधार है. इसी के आधार पर छुवाछुत, जातीय उत्पीड़न व जाति आधारित श्रम प्रणाली का निषेध किया गया है. समाज में किसी भी तरह का भेदभाव को भारतीय संविधान ने इंकार किया है.

आर्थिक न्याय से तात्पर्य आय व संपत्ति के आधार पर फैली असमानता दूर करने से है. इसलिए हमारी सरकार गरीबी उन्मूलन के लिए कई कार्यक्रम चलाती है. सरकार का उद्देश्य गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए सभी तक संपत्ति व धन की पहुँच सुनिश्चित करना होता है.

राजनैतिक न्याय का तात्पर्य सभी को मतदान करने और उम्मीदवार के तौर पर चुनाव में खड़े होने के अधिकार से है. सभी को अपना राजनैतिक दल बनाने और इसके विचार जनता तक पहुँचाने की आजादी होती है. किसी भी व्यक्ति को राजनैतिक किर्याकलाप में भाग लेने से नहीं रोका जा सकता है. हालाँकि, सरकारी सेवक और कैदियों को कुछ मामलों में ऐसा करने से रोका जा सकता है.

2. स्वतंत्रता (Liberty in Hindi)

भारतीय नागरिकों को स्वयं व अपने समूह के विकास के लिए कई प्रकार के स्वतंत्रता दिए गए है. माना जाता है कि इन स्वतंत्रताओं के बाद लोग स्वयं का विकास कर सकेंगे जो देश के विकास में योगदान करेगा. विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता इसके कुछ उदाहरण है.

3. समता (Equality in Hindi)

समानता का तात्पर्य कानून के समक्ष समानता से है. सरकार सभी के साथ समान रूप से पेश आती है और समान व्यवहार किया जाता है. इसके लिए संविधान में कई प्रावधान किए गए है. प्रस्तावना प्रतिष्ठा और अवसर की समता से जुड़ा है.

4. व्यक्ति की गरिमा (Dignity of Person in Hindi)

भारतीय संविधान में सभी से दूसरे व्यक्ति की गरिमा का ख्याल रखने का प्रावधान है. प्रस्तावना में वर्णित गरिमा का तात्पर्य है व्यक्ति के आत्म-सम्मान की रक्षा करना. भारतीय संविधान में जनता को गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार दिया गया है.

5. राष्ट्र की एकता और अखंडता बढ़ाने वाला ‘बंधुता’ (Fraternity that enhances the unity and integrity of the nation)

भारत में विविध प्रकार के समूह बसते है. एक समूह का दूसरे समूह से टकराव होने से देश के एकता और अखंडता पर खतरा हो सकता है. इसलिए प्रस्तावना में नागरिकों के बीच बंधुता बढ़ाकर राष्ट्र की एकता और अखंडता बरकरार रखने का प्रयास किया गया है.

भारतीय संविधान का ऐतिहासिक विकास (Historical Development of the Indian Constitution)

ब्रिटिश शासन के दौरान कई अधिनियम और कानून पारित किए गए. इनमें कई थोड़े-बहुत बदलाव या हूबहू आजाद भारत के संविधान का हिस्सा बन गए. इस तरह हम भारतीय संविधान के विकास को दो हिस्सों में बाँट सकते है-

A. ईस्ट इंडिया कंपनी शासन (Rule of East India Company in Hindi) (1773-1858)

ईस्ट इंडिया कम्पनी को ब्रिटिश क्राउन द्वारा शासन करने का अधिकार प्राप्त था. इस दौरन निम्न कानून बनाए गए-

1. रेग्युलेटिंग एक्ट (Regulating Act), 1773

  • इस अधिनियम के द्वारा बंगाल का शासन चार सदस्य परिषद् और गवर्नर जनरल में निहित किया गया.
  • बंगाल के गवर्नर जनरल को बंगाल, बम्बई तथा मद्रास प्रेसिडेंसी का शासन सौंप दिया गया. इस तरह ब्रिटिश भारत में बंगाल प्रेसिडेंसी का हुकूमत कायम हुआ. वारेन हेस्टिंग्स प्रथम गवर्नर जनरल बने.
  • परिषद् के बहुमत से कोई भी निर्णय लिया जाता था.
  • गवर्नर जनरल का कार्यकाल पांच वर्ष का था और परिषद की सिफारिश पर केवल ब्रिटिश क्राउन ही उन्हें पद से हटा सकता था.
  • अब गवर्नर जनरल के परिषद् को भी कानून बनाने का अधिकार था. लेकिन ये कानून निदेशक बोर्ड के अनुमति से ही लागू हो सकते थे.
  • बंगाल के कलकत्ता में एक उच्चतम न्यायालय की स्थापना का निर्णय लिया गया. फिर 1774 में फोर्ट में इसे स्थापित कर दिया गया. इसमें मुख्य न्यायाधीश समेत चार न्यायाधीश थे.
  • सर एलिजा इम्पे को ब्रिटिश भारत के उच्चतम न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) का प्रथम मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया. इस न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध इंग्लैंड स्थित प्रिवी कौंसिल में अपील की जा सकती थी.
  • कंपनी के संचालक मंडल का कार्यकाल चार वर्ष कर दिया गया. साथ ही, अब 500 पौंड के स्थान पर 1000 पौंड के अंशधारियों को संचालक चुनने का अधिकार दिया गया.
  • इस प्रकार 1773 के अधिनियम के द्वारा भारत में कंपनी के कार्यों में ब्रिटिश क्राउन का हस्तक्षेप व नियंत्रण प्रारंभ हुआ. साथ ही, कम्पनी के शासन के लिए भारत में पहली बार एक लिखित संविधान प्रस्तुत किया गया.

2. संशोधन अधिनियम (Amendment Act), 1781

इसे डिस्पोजल एक्ट 1781 भी कहा जाता है. इसके द्वारा रेगुलेटिंग एक्ट 1773 में कुछ संसोधन किए गए.

5 अगस्त 1776 को एक संभ्रांत ब्राहमण नन्द कुमार को अंग्रेजों ने फांसी दे दी थी. नंदकुमार पहले सिराजुद्दौला के सेना में बड़े पद पर था. प्लासी की लड़ाई 1757 में उसने अंग्रेजों से मिलकर सिराजुद्दौला को धोखा दिया था. बाद में मीरजाफर और मीरकासिम की तरह नंदकुमार भी अंग्रेजों को खटकने लगे. कहा जाता है कि इसी वजह से अंग्रेजों ने नंदकुमार को जालसाजी के आरोप में फंसकर फांसी दे दी.

चतुर्वर्णीय समाज में किसी ब्राह्मण को मिलने वाली यह पहली फांसी थी. इसलिए उच्च वर्गों ने अंग्रेजों का तीखा विरोध किया और स्थानीय रीती-रिवाज के अनुसार व्यवहार का दवाब बनाने लगे.

  • परिणामतः 1781 के संसोधन में स्थानीय सामाजिक व धार्मिक रीतिरिवाज के अनुसार व्यवहार करने का प्रावधान किया गया.
  • गवर्नल जनरल और उनके परिषद् को सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से दूर किया गया. सरकारी सेवकों के कार्यों को भी यह छूट मिली. साथ ही कंपनी के राजस्व को भी सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से दूर किया गया.
  • कलकत्ता सरकार को बंगाल, बिहार और उड़ीसा के लिए भी विधि बनाने का अधिकार प्रदान किया गया.
  • प्रांतीय न्यायलय और परिषद् के लिए नियम बनाने के अधिकार गवर्नर जनरल के अधीन परिषद को अधिकार दिया गया.


3. पिट्स इंडिया अधिनियम (Pits India Act), 1784

  • कंपनी के अधीन भारतीय क्षेत्रों को ‘ब्रिटिश अधिकृत प्रदेश’ कहा गया.
  • गवर्नर जनरल के परिषद् में सदस्यों की संख्या 4 से घटाकर 3 कर दी गई. ऐसा प्रांतीय परिषद् में भी किया गया.
  • राजनैतिक मामलों को बोर्ड ऑफ़ कण्ट्रोल (नियंत्रण बोर्ड) और वाणिज्यिक मामलों को कोर्ट और डायरेक्टर्स के अधीन कर दिया गया.
  • बोर्ड ऑफ़ कण्ट्रोल को भारत में ब्रिटिश नागरिकों की संपत्ति, राजस्व व सैन्य संचालन के निगरानी का काम भी सौंपा गया.
  • देसी राज्यों से युद्ध और संधि के लिए गवर्नर जनरल को कम्पनी से स्वीकृति लेना आवश्यक कर दिया गया.
  • कम्पनी के कर्मियों में भ्रष्टाचार रोकने के प्रयास किए गए. इन्हें पुरस्कार ग्रहण करने से प्रतिबंधित कर दिया गया. साथ ही, भारत में कार्यरत अंग्रेज अधिकारीयों के सुनवाई के लिए इंग्लैंड में एक कोर्ट की स्थापना की गई.
  • चाय और अफीम को छोड़कर कंपनी के व्यापार का एकाधिकार समाप्त कर दिया गया.
  • कम्पनी के मामलों और परेशान अब सीधे ब्रिटिश क्राउन के नियंत्रण में आ गया.

4. संशोधन अधिनियम 1786

  • विशेष परिस्तिथियों में गवर्नर जनरल को परिषद् के फैसले न मानकर अपने फैसले लागू करने के अधिकार दिया गया.
  • गवर्नर जनरल को सैन्य शक्ति भी दी गई.
  • लार्ड कार्नवालिस ये अधिकार प्राप्त करने वाले पहले गवर्नर जनरल बने.

5. चार्टर एक्ट (Charter Act), 1893

  • राजस्व प्रशासन और न्यायपालिका को अलग कर दिया गया. इसलिए राजस्व से जुड़े नए अदालतों, मॉल अडालटस, का विकास किया गया.
  • बंगाल में गवर्नर जनरल की अनुपस्तिथि में, वह अपने असैन्य सदस्यों में से एक को उपाध्यक्ष नियुक्त कर सकता था.
  • ईस्ट इंडिया कंपनी को अगले 20 साल तक व्यापार का एकाधिकार दिया गया. लाभांश को भी 10 फीसदी तक बढ़ाने की अनुमति दी गई.
  • पूर्व के महत्वपूर्ण कानूनों को इस अधिनियम में जगह ही दी गई. लिखित कानून के आधार पर शासन की व्यवस्था की गई. न्यायालय को इन कानूनों के व्याख्या का अधिकार मिला.
  • नियंत्रक मंडल के सदस्यों और कर्मचारियों का वेतन भारतीय कोष से दिया जाने लगा.
  • 12 वर्षों से भारत में रह रहा व्यक्ति ही गवर्नर जनरल के परिषद् का सदस्य हो सकता था.
  • नियंत्रक बोर्ड में एक राष्ट्रपति और दो सदस्य की व्यवस्था की गई. इनका प्रिवी पर्स का सदस्य होना जरुरी नहीं रहा.
  • कंपनी को भारतीय राजस्व से सलाना 5 लाख रूपये ब्रिटिश सरकार को अदा करना था.
  • कर्मियों के बिना अनुमति के भारत छोड़ने पर रोक लगा दी गई. ऐसा करना इस्तीफा माने जाने का प्रावधान किया गया.
  • भारत में व्यापार करने का लाइसेंस जारी करने का अधिकार कम्पनी को प्राप्त हुआ. अपने कर्मी या किसी अन्य व्यक्ति को यह जारी किया जा सकता था.

6. चार्टर एक्ट 1813

  • चीन से व्यापार तथा चाय के व्यापार को छोड़कर कम्पनी के अन्य व्यापारिक अधिकार समाप्त कर दिए गए.
  • भारत में ईसाई मिशनरियों को धर्म प्रचार की अनुमति मिल गई.
  • भारतीयों की शिक्षा के लिए सरकार को प्रतिवर्ष 1 लाख रुपये खर्च करने का निर्देश दिया गया.
  • कम्पनी को अगले 20 वर्षों के लिए भारतीय प्रदेशों तथा राजस्व पर नियंत्रण का अधिकार दे दिया गया.
  • नियंत्रण बोर्ड की शक्ति को परिभाषित किया गया तथा उसका विस्तार भी किया गया.

7. चार्टर एक्ट 1833

अब तक अंग्रेजों ने भारत के एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया था. इस सत्ता को स्थायित्व प्रदान करने के लिए नया चार्टर लाया गया.

  • 1833 के चार्टर में अंग्रेजों के चाय का कारोबार और चीन के साथ व्यापार के एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया. इस तरह कंपनी पूर्णतः राजनैतिक और प्रशानिक इकाई बना दी गई.
  • बंगाल के गवर्नर जनरल को भारत का गवर्नर जनरल बनाया गया. इस तरह बंगाल के तत्कालीन गवर्नर जनरल विलियम बेंटिक भारत के प्रथम गवर्नर जनरल बने.
  • भारत के गवर्नर जनरल की परिषद् द्वारा पारित कानूनों को अधिनियम कहा गया.
  • विधि के संहिताकरण के लिए आयोग के गठन का प्रावधान किया गया. लॉर्ड मैकाले इसके प्रथम अध्यक्ष नियुक्त हुए.
  • भारत में दास-प्रथा गैरकानूनी किया गया और 1843 में इसे निषिद्ध कर दिया गया.
  • कंपनी में नियुक्ति के समय धर्म, वंश, रंग या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव समाप्त कर दिया गया.
  • सपरिषद गवर्नर जनरल को ही सम्पूर्ण भारत के लिए कानून बनाने का अधिकार प्रदान किया गया. मद्रास और बम्बई के परिषद् से ये अधिकार छीन लिए गए.

8. चार्टर एक्ट 1853

कंपनी के शासन के अधीन यह आखिरी कानून था. इसे गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी की रिपोर्ट पर तैयार किया गया था.

  • विधायी और प्रशासनिक कार्यों का विभाजन.
  • बंगाल के लिए अलग गवर्नर के नियुक्ति का फैसला.
  • गवर्नर जनरल को अपनी परिषद् का उपाध्यक्ष नियुक्त करने का अधिकार.
  • केंद्रीय विधानपरिषद् के 6 सदियों में चार मद्रास, बम्बई, बंगाल और आगरा के स्थानीय सरकार द्वारा नियुक्ति का प्रावधान किया गया.
  • कार्यकारिणी परिषद के कानून सदस्य को परिषद का पूर्ण सदस्य्ता प्रदान किया गया.
  • ब्रिटिश संसद को कम्पनी के भारतीय शासन का अंत करने का अधिकार दिया गया.
  • भारतीय विधि आयोग के रिपोर्ट पर विचार करने के लिए इंग्लैंड में विधि आयोग का गठन करने का फैसला.
  • भारतीयों के लिए खुली प्रतियोगिता, भारतीय सिविल सेवा (ICS), का शुरुआत किया गया.
  • निदेशक मंडल में सदस्यों की संख्या 24 से घटाकर 18 कर दी गयी.

B. ब्रिटिश क्राउन का शासन (Rule of British Crown) (1858-1947)

11857 के विद्रोह के बाद अंग्रेजों के भारतीय संविधान में काफी सारे बदलाव किए गए. ब्रिटैन की महारानी ने भारत का शासन सीधे अपने ताज के अधीन कर लिया. इसके बाद नीचे वर्णित कानून बनाए गए-

1. भारत शासन अधिनियम (Government of India Act), 1858

इस अधिनियम को 1857 के गदर को ध्यान में रखकर तैयार किया गया था. इसमें निन्म प्रावधान किए गए थे-

  • कंपनी से शासन छीनकर ब्रिटिश संसद को सौंप दिया गया.
  • गवर्नर जनरल का पद समाप्त कर वायसराय का पद सृजित किया गया. वायसराय ब्रिटिश क्राउन के प्रतिनिधि थे. लार्ड कैनिंग भारत के पहले वायसराय थे.
  • नियंत्रण बोर्ड और कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स को समाप्त कर दिया गया.
  • ब्रिटेन में ब्रिटिश क्राउन के अधीन भारत सचिव का पद सृजित किया गया. इनके अधीन वाइसराय आते थे.
  • भारत या राज्य सचिव ब्रिटिश भारत के शासन के लिए पूर्ण रूप से जिम्मेदार माने गए. इनके सहायता के लिए 15 सदस्यीस परिषद बनाई गई.
  • सचिव को ब्रिटिश संसद में प्रतिवर्ष भारतीय बजट पेश करने का अधिकार मिला.
  • ब्रिटिश भारत के जनता को ब्रिटेन के जनता के समान माना गया.
  • कम्पनी की सेवा ब्रिटिश शासन के अधीन कर दिया गया.
  • भारतीयों के भौतिक व नैतिक उन्नति का संकल्प लिया गया.

2. भारतीय परिषद अधिनियम (Indian Council Act), 1861

यह अधिनियम भारतीय संविधान के विकास के इतिहास में एक महत्वपूर्ण और युगांतकारी घटना है. ऐसा इसमें किए गए दो प्रावधानों के कारण है. पहला, गवर्नर जनरल (वायसराय) को अपने परिषद में भारतीय जनता के प्रतिनिधियों को नामजद करके उन्हें विधायी कार्य से संबद्ध करने का अधिकार मिला. दूसरा गवर्नर जनरल के शक्तियों को विकेन्द्रीकृत करते हुए बम्बई और मद्रास के गवर्नर को भी विधायी शक्तियां दी गई. इस अधिनियम के अन्य उल्लेखनीय प्रावधान निम्न है-

  • गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी परिषद का विस्तार किया गया. अब गवर्नर जनरल के परिषद में सदस्यों की संख्या 6 से 12 के बीच तय की गई. इनमें आधे का गैर-सरकारी होना जरुरी था.
  • वायसराय लार्ड कैनिंग ने तीन भारतियों; बनारस के राजा, पटियाला के महाराजा, और सर दिनकर राव को अपने परिषद में शामिल किया. हालाँकि इनका कार्य सलाह तक ही सिमित था. इन्हे वित्तीय मामलों पर बोलने का अधिकार नहीं था.
  • गवर्नर जरनल को बंगाल, उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत और पंजाब में विधान परिषद स्थापित करने की शक्ति प्रदान की गई. उन्हें नए प्रांतो के निर्माण के साथ-साथ उनमें गवर्नर या लेफ्टिनेंट गवर्नर नियुक्त करने का अधिकार भी मिला.
  • आपातकाल में वायसराय को अध्यादेश जारी करने का अधिकार मिला. इसकी वैधता 6 माह तय की गई.
  • कलकत्ता के वायसराय को पुरे ब्रिटिश भारत के लिए कानून बनाने का अधिकार था. लेकिन जनता के बेहतरी को ध्यान में रखकर मद्रास और बम्बई भी ऐसा कर सकते थे. इस तरह ब्रिटिश भारत में संघीय प्रणाली और स्थानीय सरकार का उदय हुआ.

3. भारतीय वन अधिनियम (Indian Forest Act), 1865

वर्ष 1864 में इम्पीरियल फ़ॉरेस्ट डिपार्टमेंट स्थापित किया गया. इसने विभिन्न वनमंडलों द्वारा वनों पर ब्रिटिश नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास किया. इस विभाग द्वारा ब्रिटिश सरकार को वृक्षों से आच्छादित किसी भी भूमि को सरकारी जंगल घोषित करने और उसके प्रबंधन के लिये नियम बनाने का अधिकार दिया. इस तरह भारतीय संविधान में सरकार द्वारा वनों का नियंत्रण का आरम्भ हुआ था.

4. भारतीय परिषद अधिनियम 1892

कांग्रेस और भारतीय व्यापारियों द्वारा कई तरह की मांगे की जा थी थी. इसलिए सर जॉर्ज चिजनी की अध्यक्षता में एक कमिटी बनाई गई. इसकी सिफारिश पर यह अधिनियम पारित किया गया था. इसमें निम्न प्रावधान किए गए थे-

  • केन्द्रीय तथा प्रांतीय विधान परिषद् में गैर आधिकारिक सदस्यों की संख्या में बढ़ोतरी की गई. कांग्रेस की मुख्य मांग भी यही थी. इसके द्वारा भारत के मुख्य वर्गों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो गया.
  • पहली बार सिमित अप्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली का शुरुआत किया गया. यह गैर-आधिकारिक सदस्यों के लिए थी.
  • परिषद् में बजट पेश करना अनिवार्य किया गया.
  • सदस्यों को कार्यपालिका के संबंध में सवाल पूछने का अधिकार मिला. हालाँकि, अनुपूरक सवाल पूछने की मनाही थी और जवाब देना जरूरी नहीं था.

5. भारतीय परिषद अधिनियम 1909

कांग्रेस 1892 के सुधार से असंतुष्ट थे. इसलिए भारत सचिव लॉर्ड मार्ले और भारत के वायसराय लार्ड मिंटो नए सुधार करना चाह रहे थे. इसके लिए सर अरुण्डेल की अध्यक्षता में एक कमिटी बनाई गई. इसी के सिफारिश पर 1909 का अधिनियम पारित किया गया. इसे मार्ले-मिंटो सुधार के नाम से भी जाना जाता है. इसके द्वारा भारतीय संविधान में निम्न प्रावधान जोड़े गए-

6. भारत शासन अधिनियम 1919

इस अधिनियम को अक्टूबर 1919 में ब्रिटिश पार्लियामेंट द्वारा पारित किया गया. इसे “माले-मिंटो अधिनियम” भी कहा जाता है. भारतमंत्री लॉर्ड मांटेग्यू ने 20 अगस्त, 1917 को ब्रिटिश संसद में घोषणा की थी कि ब्रिटिश सरकार का उद्देश्य भारत में उत्तरदायी शासन की स्थापना करना है. इसी उद्देश्य के तहत, ब्रिटिश भारत के शासन में कई सुधार किए गए. ये सुधार ‘मोंटफोर्ड रिपोर्ट-1918’ पर आधारित है. 

इसे 1921 में लागू किया गया. अब शासन में भारतीयों को भी शामिल किया गया. लेकिन भारत को पूर्णतः ब्रिटिश शासन के नियंत्रण में ही रखा गया. “द्वैध शासन”  इसकी विशेषता है. 

इसके माध्यम से निम्न परिवर्तन किए गए-

  • भारतीय नागरिकों को मौलिक अधिकार दिए गए. इसके बचाव के लिए उन्हें न्यायालय में याचिका दायर करने का अधिकार भी प्राप्त हुआ.
  • प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष निर्वाचन की शुरुआत की गई. निर्वाचन आयोग नियुक्त करने का प्रावधान किया गया. यह आयोग जनता के मतदान द्वारा प्रतिनिधियों का चयन करती थी. मतदान का अधिकार शिक्षा, सम्पत्ति और कर के आधार पर दिया गया.
  • अधिनियम के तहत, प्रान्तीय और केंद्रीय राज्य मंत्रिपरिषदें स्थापित की गईं, जिनमें स्थानीय प्रतिनिधियों और नियुक्त सदस्यों का समावेश था.
  • आठ प्रमुख प्रांतों में जिन्हें ‘गवर्नर का प्रांत’ कहा जाता था, में “द्वैध शासन” की शुरुआत की गयी. प्रांतीय सूची के विषयों को दो भागों में बांटा गया- सुरक्षित और हस्तांतरित. 
  • सुरक्षित सूची पर गवर्नर अपने कार्यकारिणी की सहायता से निर्णय लेते थे. हस्तांतरित विषय भारतीय मंत्रियों को सौंपे गए. इन मंत्रियों की नियुक्ति भारतीय सदस्यों में से होती थी.
  • असम, बंगाल, बिहार और उड़ीसा, मध्य प्रांत, संयुक्त प्रांत, बॉम्बे, मद्रास और पंजाब में द्वैध शासन लागु की गई थी.
  • गवर्नर जनरल के अध्यक्षता में एक केंद्रीय परिषद (Central Legislative Council) की स्थापना की गई, जिसमें ब्रिटिश के साथ ही भारतीयों का भी चयन किया जाता था. विदेशी मामले रक्षा, राजनीतिक संबंध, सार्वजनिक ऋण, संचार, दीवानी तथा फ़ौजदारी मामले इन्हें सौंपे गए.
  • गवर्नर-जनरल की कार्यकारिणी में 8 सदस्य थे. इनमें 3 पद भारतीयों के लिए आरक्षित थे. भारतीय सदस्यों को विधि, श्रम, शिक्षा, स्वास्थ व उद्योग विभाग सौंपे गये. 
  • स्वास्थ्य, स्थानीय स्वशासन, भूमिकर प्रशासन, शिक्षा, चिकत्सा, जलसंभरण, अकाल सहायता, शान्ति व्यवस्था, कृषि इत्यादि विषय प्रांतों को सौंपा गया.
  • गवर्नर-जनरल को अध्यादेश जारी करने का अधिकार मिला. यह 6 महीने तक प्रभावशाली रहती थी.
  • वायसराय को विधायिका को संबोधित करने, बैठकों को  आहूत करने, स्थगित करने या विधानमंडल को निरस्त या खंडित करने का अधिकार जारी रहा.
  • भारतीय राजकोष से वेतन प्राप्त  एक नया अधिकारी ‘भारतीय उच्चायुक्त’ नियुक्त किया गया. ये भारतीय मामलों को देखते थे.
  • साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली में सिक्खों को भी शामिल किया गया.
  • यह अधिनियम बाद में 1935 में भारत शासन अधिनियम 1935 के रूप में संशोधित किया गया, जो भारत को लगभग पूर्ण स्वायत्तता और व्यवस्थित शासन प्रदान करने का प्रयास था।  
  • केंद्र और प्रांतो को अलग-अलग बजट बनाने का अधिकार मिला. बजट पर बहस की अनुमति दी गई, लेकिन मतदान को अनिवार्य नहीं किया गया.
  • भारतीयों को सिविल सेवा के उच्च पदों पर नियुक्ति के लिए, पहली बार लोक सेवा आयोग के गठन का प्रावधान किया गया.

7. सायमन कमिशन 1927 (Simon Commission in Hindi)

भारत के राज्य सचिव लॉर्ड बर्किनहेड के सिफारिश पर सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में सात ब्रिटिश सदस्यीय साइमन कमिशन का गठन 8 नवंबर 1927 को मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों को जांच करने के लिए किया गया था. सर जॉन साइमन, क्लिमेंट एटली, जॉर्ज लेन फॉक्स, डोनाल्ड हावर्ड, एडवर्ड कैडागन, बर्नोन हॉर्टशॉर्न और हैरी लेवी लासन इसके सदस्य थे. लॉर्ड इरविन के सिफारिश पर भारतियों को इसमें शामिल नहीं किया गया था.

साइमन कमीशन 3 फरवरी, 1928 को भारत के बंबई पहुंचा. कांग्रेस ने इसका पुरजोर विरोध किया. लोगों ने इसे काले झंडे दिखाए. शहर में हड़ताल का भी आयोजन हुआ. साइमन गो बैक (Simon Go Back) के नारे लगे. इसे ”’श्वेत कमिशन” भी कहा गया. कांग्रेस ने अधिक स्वायत्ता की मांग की.

साइमन कमिशन का एक उद्देश्य ब्रिटिश भारत में संवैधानिक सुधारों को आगे बढ़ाना भी था. भारतीय राज्यों के विभाजन, प्रशासनिक व्यवस्था, संघीयता और राज्यपाल पद के सम्बंध में सिफारिश करना, इसके गठन का अन्य उद्देश्य थे. इसने दूसरी बार अक्टूबर 1928 में भारत का दौरा किया और मई 1930 में अपनी रिपोर्ट सौंप दी.

आगे चलकर, साइमन कमिशन (1930) की सिफारिश, गोलमेज सम्मलेन (1930, 1931 और 1932 ), गांधी-इरविन समझौता और आंबेडकर-गांधी समझौते के आधार पर भारत शासन अधिनियम 1935 लागू किया गया.

8. नेहरू रिपोर्ट 1928 (Nehru Report in Hindi)

आजादी से पूर्व भारतीय संविधान निर्माण का पहला प्रयास 1928 में मोतीलाल नेहरू के अध्यक्षता में गठित प्रारूप समिति ने किया था. यह नेहरू रिपोर्ट 1928 के नाम से विख्यात है. आधुनिक भारतीय संविधान पर नेहरू रिपोर्ट का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है.

साइमन कमीशन के उग्र विरोध के बाद अंग्रेजों ने कहा कि भारतीय संविधान निर्माण में सक्षम नहीं है. इसलिए उन्हें साइमन कमिशन में शामिल नहीं किया गया है. तत्कालीन भारत सचिव लार्ड बिर्कनहेड ने चुनौती दी की सभी गुट व दल मिलकर ऐसा भारतीय संविधान तैयार नहीं कर सकते, जो सभी को मान्य हो.

भारतीयों ने इस चुनौती को स्वीकार किया और 1928 में सर्वदलीय बैठक आहूत की गई. पहली बैठक दिल्ली व दूसरी पुणे में आयोजित की गई. इसमें पंडित मोतीलाल नेहरू के अध्यक्षता में 9 सदस्यता उपसमिति का गठन किया गया, जो इस प्रकार है-

  • मोतीलाल नेहरू (अध्यक्ष)
  • जवाहरलाल नेहरू (सचिव)
  • अली इमाम
  • तेज बहादुर सप्रू
  • मंगल सिंह
  • एम. एस. अने
  • सुभाष चंद्र बोस
  • शूएब कुरैशी
  • जी. आर. प्रधान
इस उपसमिति द्वारा निम्न 13 सिफारिशें की गई-
  1. भारत को ब्रिटिश राष्ट्रमंडल के भीतर अधिराज्य का दर्जा (Dominion Status) की मांग की गई.
  2. जहाँ मुस्लमान अल्पसंख्यक थे, वहाँ उनके लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया. इस तरह संयुक्त निर्वाचन प्रणाली की शुरुआत की गई.
  3. भाषाई आधार पर प्रांतो का गठन.
  4. शासन का केंद्र और राज्य के तर्ज पर विभाजन, जिसमें केंद्र अधिक शक्तिशाली हो.
  5. व्यस्क मताधिकार, समानता, संघ बनाने की स्वतन्त्रता जैसे 19 मौलिक अधिकार.
  6. मुस्लिमों के धार्मिक व सांस्कृतिक अधिकारों का संरक्षण.
  7. शासन का पूर्ण धर्मनिरपेक्ष स्वरुप.
  8. विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी कार्यपालिका.
  9. अवशिष्ट शक्तिया केंद्र में समाहित करते हुए केंद्र व राज्य में शक्तियों का विभाजन.
  10. सिंध को बम्बई से पृथक कर एक अलग राज्य की स्थापना.
  11. उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत को ब्रिटिश भारत के अन्य राज्यों की भाँती वैधानिकता प्रदान करना.
  12. देसी राज्यों और रियासतों के अधिकारों व विशेषाधिकारों की रक्षा. उत्तरदायी सरकार के आश्वासन पर ही किसी राज्य को संघ में शामिल करना.
  13. प्रतिरक्षा समिति, उच्चतम न्यायालय और लोक सेवा आयोग के स्थापना का सुझाव.

अंततः भारतीयों द्वारा पहली बार बनाए गए भारतीय संविधान के इस प्रारूप पर विवाद हो गया. पंडित जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस जैसे युवा राष्ट्रवादी नेता अधिराज्य के बदले पूर्ण स्वराज चाहते थे.

ज्ञात हो कि नए प्रांतों के स्थापना, मान्यता और वर्तमान प्रांतों के विभाजन का उद्देश्य मुस्लिम बहुल इलाकों को अलग राज्य बनाना था. ये राज्य थे – सिंध, बलूचिस्तान और उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत. हिन्दू महासभा ने नए प्रांतों के गठन पर आपत्ति जताई और एकमत निर्वाचन प्रणाली की मांग की. इसके बाद ही मुस्लिमों के लिए सिर्फ उन इलाकों में आरक्षण का प्रावधान किया गया, जहाँ वे अल्पसंख्यक थे. साथ ही, सिंध, बलूचिस्तान जैसे इलाकों में हिन्दुओं के अधिकारों की रक्षा का वकालत किया गया.

1928 में कलकत्ता सर्वदलीय सम्मेलन में जिन्ना ने रिपोर्ट में तीन संशोधन प्रस्तावित किए:

मुसलमानों का केन्द्रीय विधानमंडल में एक तिहाई प्रतिनिधित्व.
पंजाब और बंगाल में मुसलमानों को व्यस्क मताधिकार लागु होने तक आबादी के अनुपात में आरक्षण.
अवशिष्ट शक्तियाँ केंद्र के बदले प्रांतों में निहित हो.

जिन्ना की ये माँगें स्वीकार नहीं हुई. फिर उनहोंने मार्च 1929 में ‘चौदह सूत्री’ प्रस्ताव दिया, जो मुस्लिम लीग के सभी भविष्य के एजेंडे का आधार बना.

  1. संघीय संविधान, जिसमें अवशिष्ट शक्तियां प्रांतों को मिलेगी.
  2. प्रांतीय स्वायत्तता.
  3. राज्यों की सहमति से संवैधानिक संशोधन.
  4. किसी प्रांत में मुस्लिम बहुमत को अल्पसंख्यक या समानता में कम किए बिना सभी विधायिकाओं और निर्वाचित निकायों में पर्याप्त मुस्लिम प्रतिनिधित्व होना चाहिए।
  5. सेवाओं और स्वशासी निकायों में मुसलमानों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व.
  6. मुसलमानों को केन्द्रीय विधानमंडल में एक तिहाई प्रतिनिधित्व.
  7. मुस्लिमों का केन्द्रीय एवं राज्य मंत्रिमंडल में एक तिहाई सदस्य.
  8. पृथक निर्वाचक मंडल.
  9. अल्पसंख्यक समुदाय का तीन-चौथाई हिस्सा विधेयक को अपने हितों के विरुद्ध माने तो पारित नहीं किया जाएगा.
  10. क्षेत्रों के किसी भी पुनर्गठन से बंगाल, पंजाब और उत्तर पश्चम सीमांत प्रान्त (North West Frontier State) में मुस्लिम बहुमत प्रभावित नहीं होगा.
  11. बॉम्बे और सिंध का विभाजन.
  12. बलूचिस्तान और उत्तर पश्चिम सीमांत प्रान्त में संवैधानिक सुधार.
  13. सभी समुदायों के लिए पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी.
  14. मुसलमानों के धार्मिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक और भाषाई अधिकारों की सुरक्षा का प्रावधान.

इसके बाद लखनऊ में डॉ अंसारी के अध्यक्षता में पुनः सर्वदलीय सम्मलेन हुआ, जिसमें सभी प्रस्तावों को स्वीकार कर लिया गया. इसे नेहरू रिपोर्ट के नाम से जाना गया. जहाँ नेहरू रिपोर्ट ने भविष्य में भारतीय संविधान के मार्गदर्शक की भूमिका निभाई, वहीँ हिन्दू-मुस्लिम समुदायों के बीच में दरारे आने लगी. इसमें कोई दो राय नहीं कि इस विभाजन के पीछा डॉ जिन्ना का कुटिल स्वार्थ था. बाद में यह भारत और भारतीय संविधान सभा के विभाजन के रूप में सामने आया.

9. भारत सरकार अधिनियम, 1935

भारतीय संविधान के विकास में भारत सरकार अधिनियम 1935 महत्वपूर्ण दस्तावेज है, जिसका उद्देश्य ब्रिटिश भारत में सत्ता का विकेंद्रीकरण और प्रांतों को सीमित स्वायत्तता प्रदान करना था. संघीय ढांचे की स्थापना इसकी एक अन्य विशेषता है. भारतीय राज्यों का ग्यारह प्रांतों में बिभाजन कर संघीय और प्रांतीय दोनों स्तरों पर द्विसदनीय विधायिका की शुरुआत की गई. इससे भारतीयों का शासन में अधिक प्रतिनिधित्व और भागीदारी सुनिश्चित हुई.

इसका एक अन्य महत्वपूर्ण प्रावधान प्रांतीय स्वायत्तता था. प्रांतों को कुछ विधायी शक्तियाँ दी गई और अपने अधिकार क्षेत्र में कानून बनाने का अधिकार भी इन्हें दिया गया. इससे भारतियों में जहां सत्ता का समझ बढ़ा, वहीँ दुस्तरी ओर स्वतंत्रता आंदोलन में भी लोगों की भागीदारी बढ़ने लगी.

ज्ञात हो कि भारतीय संविधान में 1935 के अधिनियम के कई धाराओं को हूबहू स्थान दिया गया है. इसलिए, नेहरू रिपोर्ट की तरह ही 1935 के अधिनियम का भारतीय संविधान पर अमिट छाप है. इसके मुख्य प्रावधान इस प्रकार है-

  1. अखिल भारतीय संघ के स्थापना का प्रस्ताव, जिसमें प्रांतों और रियासतों को राज्य का दर्जा दिया गया. शक्तियों का विभाजन तीन सूचियों – संघीय सूचि (59 विषय), राज्य सूचि (54 विषय) और सम्प्रति सूचि (34 विषय) – के रूप में किया गया. लेकिन, रियासतों ने इस प्रस्ताव को मानने से इंकार कर दिया, जिससे यह योजना सफल नहीं हो सका.
  2. प्रांतों में द्वैध शासन की समाप्ति और स्वायत सत्ता की शुरुआत की गई, जो 1937 से 1939 तक कायम रहा. गवर्नर को राज्य विधायिका के प्रति उत्तरदायी मंत्री के साथ काम करने की शक्ति मिली.
  3. केंद्र में द्वैध शासन की शुरुआत की गई और शक्तियों का विभाजन किया गया. लेकिन यह कभी लागू नहीं किया गया.
  4. कई प्रतिबन्धी के साथ 11 में से 6 प्रांतो, बंगाल, बिहार, मद्रास, असम, बम्बई और संयुक्त प्रान्त, में द्विसदनीय विधायिका का शुरुआत किया गया.
  5. दलित, महिला व मजदूरों के लिए सांप्रदायिक निर्वाचन की भाँती अलग निर्वाचन की भांति व्यवस्था की गई.
  6. मताधिकार का विस्तार करते हुए लगभग 10 फीसदी आबादी को मतदान का अधिकार मिला.
  7. भारत शासन अधिनियम, 1958 द्वारा बनाए गए भारत परिषद् को समाप्त कर दिया गया. इस तरह इंग्लैण्ड में भारत सचिव को सलाहकार की एक टीम मिल गई.
  8. भारतीय मुद्रा और साख पर नियंत्रण के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक की स्थापना की गई.
  9. केंद्रीय लोक सेवा आयोग व प्रांतो में प्रांतीय सेवा आयोग या दो या दो से अधिक प्रांतो के लिए संयुक्त लोक सेवा आयोग की स्थापना की गई.
  10. 1937 में संघीय न्यायलय की स्थापना की गई.
  11. इस अधिनियम के माध्यम से बर्मा (अब म्यांमार) भारत से अलग कर दिया गया.

इस तरह भारत शासन अधिनियम ने भारतीय संविधान के लिए सशक्त आधार का मार्ग प्रशस्त किया.


10. अगस्त प्रस्ताव 1940 (August Proposals in Hindi)

द्वितीय विश्वयुद्ध में भारतीय नेताओं को विश्वास में लिए बिना भारत को युद्ध में शामिल कर दिया गया था. इसपर कांग्रेस समेत सभी भारतीय पक्षों ने नाराजगी जताई. इसके बाद भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो ने 8 अगस्त, 1940 ई. को एक घोषणा की, जो अगस्त प्रस्ताव के नाम से विख्यात है. इसमें पहली बार भारतीय संविधान की वकालत की गई थी. जहाँ कांग्रेस ने इसपर निराशा व्यक्त की, वहीँ लीग का रुख मिलाजुला रहा. इस प्रस्ताव के प्रमुख प्रावधान इस प्रकार थे-

  1. भारत को अधिराज्य का दर्जा.
  2. अल्पसंख्यक राजनीतिक और धार्मिक समूहों के समर्थन के साथ युद्ध के बाद भारतीय संविधान के निर्माण के लिए संविधान सभा का प्रस्ताव.
  3. वायसराय के सलाहकार समिति का विस्तार व वायसराय की कार्यकारिणी में अधिक भारतियों को प्रतिनिधित्व.
  4. युद्ध पर विचार हेतु ‘युद्ध परामर्श समिति’ का गठन.

आगामी भारतीय संविधान सभा में मुस्लिमों के प्रतिनिधित्व का लीग ने स्वागत किया, लेकिन कांग्रेस ने ‘अगस्त प्रस्ताव’ को पूरी तरह ख़ारिज कर दिया. कांग्रेस ने डोमिनियन स्टेट के जगह पूर्ण स्वतंत्र का मांग जारी रखा, जो पिछले 10 वर्षों से मांगी जा रही थी.

इसी बीच, 9 सितम्बर, 1941 ई. को ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल ने कहा कि “‘एटलांटिक चार्टर’ भारत पर लागू नहीं होगा.” इस प्रकार चर्चिल की इस घोषणा से भारतीयों में यह भावना प्रबल हो गयी कि ब्रिटिश अंग्रेज़ सरकार भारतीय स्वतंत्रता के प्रति ईमानदार नहीं है.

अंततः, वर्ष के अंत तक अधिकांश राजनीतिक दलों ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया.


11. क्रिप्स मिशन 1942 (Cripps Mission in Hindi)

अगस्त प्रस्ताव के विफलता के बाद भारतियों ने अंग्रेजों को सहयोग न देने की निति अपना रखी थी. इस वक्त ब्रिटिश प्रधान मंत्री विंस्टन चर्चिल के युद्ध मंत्री भी थे. ऐसे में भारतियों के तुष्टिकरण के लिए मार्च 1942 में सर स्टैफोर्ड क्रिप्स की अध्यक्षता में एक मिशन भारत भेजा गया था, इसे ही क्रिप्स मिशन कहा गया. इसका मकसद कुछ संवैधानिक सुधार कर भारतीयों का सहयोग द्वितीय विश्व युद्ध के लिए प्राप्त करना था.

सरदार बल्लभ भाई पटेल, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, मोहम्मद अली जिन्ना जैसे नेता युद्ध में ब्रिटेन की सहायता करना चाहते थे. लेकिन महात्मा गांधी ने पूर्ण स्वतंत्रता का मांग रखते हुए असहयोग का निति अपना रखा था. जिन्ना ने पूर्ण स्वायत्ता के जगह भारत विभाजन की मांग की और कांग्रेस के रुख का आलोचना किया.

क्रिप्स मिशन के मुख्य प्रावधान इस प्रकार है-
  1. युद्ध के बाद भारत को डोमिनियन स्टेटस देने के साथ ही ब्रिटिश राष्ट्रमंडल से सम्बन्ध विच्छेद की स्वायत्ता भारत को देने की बात कही गई.
  2. भारत संघ राष्ट्रमंडल, संयुक्त राष्ट्र और अन्य अंतरराष्ट्रीय निकायों के साथ अपने संबंध स्थापित करने के लिए स्वतंत्र होगा.
  3. भारतीय संविधान के निर्माण के लिए एक सभा गठित होगी, जो अंशतः प्रांतीय विधानसभाओं द्वारा निर्वाचित और अंशतः रियासतों द्वारा मनोनीत होंगे. इस तरह भारतीय संविधान के निर्माण के लिए पहली बार ठोस प्रस्ताव की पहल की गई.
  4. संघ में शामिल न होने वाले प्रान्त या रियासत को अलग संविधान बनाने की अनुमति.
  5. भारतीय संविधान में नस्लीय और धार्मिक अल्पसंख्यकों की रक्षा के लिए पर्याप्त प्रावधान होने और भारतीय संविधान के निर्माण होने तक अंग्रेजी शासन यथावत कायम करने की शर्त.

भारतीय कांग्रेस ने पूर्ण स्वायत्ता के बदले डोमिनियन स्टेटस और संघ में शामिल न होने वाले रियासतों/प्रांतो को अलग संविधान का विरोध किया. महात्मा गांधी ने प्रस्ताव को ‘उत्तर दिनांकित चेक’ तक कह दिया . हालाँकि, कांग्रेस ने प्रस्ताव पर चर्चा के लिए जवाहर लाल नेहरू और मौलाना अबुल कलाम आजाद को आधिकारिक तौर पर भेजा था, लेकिन मांग के विपरीत होने के कारण इसे ठुकरा दिया गया. वहीं, मुस्लिम लीग भारत विभाजन के मांग पर अड़ा रहा.
अंततः वर्ष 1942 में ही भारत छोड़ो आंदोलन आरंभ हो गया था.

12. राजगोपालाचारी फार्मूला 1944 (Rajagopalachari Formula in Hindi)

मद्रास में कांग्रेस के बड़े नेता चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने महात्मा गाँधी के सहमति से लीग और कांग्रेस के बीच गतिरोध को समाप्त करने के लिए एक फॉर्मूले को प्रस्तुत किया था. इसे ही राजाजी फॉर्मूला के रूप में भी जाना जाता है, जो 10 जुलाई 1944 को प्रस्तुत की गई. यह फार्मूला वास्तव में भारत-विभाजन के प्रस्ताव का समर्थक था और विभाजन के कारयोजना को इसमें शामिल किया गया था. फॉर्मूले में शामिल थे:

  • एक अस्थायी सरकार का गठन जो ब्रिटिश भारत के सभी प्रांतों का प्रतिनिधित्व करेगी.
  • प्रांतो को पूर्ण स्वायत्ता और लीग सरकार संचालन में कांग्रेस का सहयोग करेगी.
  • द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्ति के बाद एक आयोग का गठन का प्रस्ताव रखा गया. आयोग को मुस्लिम बहुल जिलों को पहचान कर वहां पकिस्तान के निर्माण सम्बन्धी जनमत का संग्रह करने का काम सौंपे का प्रस्ताव दिया गया.
  • जनमत संग्रह द्वारा मुस्लिम बहुल उत्तर पश्चिम व पूर्वी भागों के लोगों से पाकिस्तान निर्माण के सम्ब्नध में लोगों का राय जानना था.
  • पाकिस्तान के निर्माण के मामले में, एक संयुक्त आयोग का गठन किया जाएगा जो पाकिस्तान और भारत के बीच सीमाओं का निर्धारण करेगा.
  • देश विभाजन के स्तिथि में, रक्षा, विदेश मामलों, आवागमन और संचार जैसे क्षेत्रों में भारत और पाकिस्तान के बीच एक संयुक्त समझौता होगा.
  • उपरोक्त फार्मूला भारत को पूर्ण स्वतंत्रता मिलने के स्तिथि में लागू करने की बात कही गई थी.

हालाँकि, सन 1944 में गांधी और मोहम्मद अली जिन्ना ने राजाजी के फॉर्मूले पर वार्ता की. लेकिन यह वार्ता विफल रही, जिन्ना चाहते थे कि कांग्रेस टू नेशन थ्योरी को स्वीकार करे. वह सिर्फ मुस्लिम आबादी से ही जनमत संग्रह करवाना चाहते थे. साथ ही, साझा केंद्र का सुझाव भी उन्हें स्वीकार नहीं था. साथ ही, कांग्रेस भारत विभाजन का धुर विरोधी था. ऐसे में लीग और कांग्रेस, दोनों ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया.

आगे चलकर लगभग इसी फॉर्मूले पर भारत विभाजन किया गया. इसलिए यह फार्मूला भारत-पकिस्तान के इतिहास में काफी महत्वपूर्ण माना जाता है.

13. वेवेल योजना 1945 (Wavell Plan in Hindi)

द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त हो चुका था. सिर्फ जापान ही मित्र राष्ट्रों के समक्ष खड़ी थी, जो अब भी जवाब देने में सक्षम था. ऐसे में जापान द्वारा भारत पर हमले का खतरा भी बरकरार था. साथ ही, युद्ध समाप्ति के बाद बेरोजगारी व अन्य समस्याओं से कांग्रेस को जनसमर्थन मिलने की उम्मीद थी. ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल इन परिस्तिथियों से भलीभांति वाकिफ थे और भारत के संवैधानिकता को जल्द हल करना चाहते थे. इसलिए उन्होंने भारतीय वायसराय लार्ड वेवेल को इसके लिए प्रयास करने को कहा.

लार्ड वेवेल ने जेलों में कैद सभी स्वतंत्रता सेनानियों व नेताओं को रिहा कर दिया. फिर 25 जून 1945 को भारत के ग्रीष्मकालीन राजधानी शिमला में एक सम्मेलन आयोजित किया गया. इसे शिमला सम्मेलन कहा जाता है. इस सम्मेलन में निम्न प्रस्ताव दिए गए:

  • भारत को एक संघीय राज्य में बदल दिया जाना था, जिसमें दो प्रांत होंगे: एक हिंदू बहुल प्रांत और दूसरा मुस्लिम बहुल प्रांत.
  • इन प्रांतों को एक संघीय सरकार द्वारा शासित किया जाना था, जिसमें सभी प्रांतों के प्रतिनिधि शामिल होंगे.
  • गवर्नर जनरल और सेनाध्यक्ष के पद के अलावा सभी पद भारतीयों को सौंप दिए जाएंगे.
  • वायसराय की कार्यकारिणी में हिंदुओं और मुसलमानों की संख्या बराबर होंगे और ये कार्यकारिणी 1935 के भारत शासन अधिनियम के अंतर्गत एक अंतरिम सरकार के रूप में कार्य करेगी.
  • राजनीतिक दलों की एक संयुक्त बैठक बुलाकर कार्यकारिणी के सदस्यों की नियुक्ति के लिए एक सर्व सम्मत सूची तैयार का प्रस्ताव भी इसमें दिया गया.
  • कार्यकारिणी के लिए सर्वसम्मत सूचि न होने पर अलग-अलग सूचियां प्रस्तुत करने का विकल्प भी दिया गया.

वेवेल योजना को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस आधार पर अस्वीकार कर दिया कि यह योजना भारत को पूर्ण स्वतंत्रता नहीं प्रदान करती थी. कांग्रेस ने मांग की थी कि भारत को पूर्ण स्वतंत्रता मिलनी चाहिए, जिसमें सभी प्रांतों को एकीकृत होना चाहिए. कांग्रेस ने अंग्रेजों पर उन्हें सवर्ण हिन्दुओं पार्टी साबित करने का आरोप भी लगाया और सभी सम्प्रदायों से सदस्यों को मनोनीत करने का अधिकार माँगा.

मुस्लिम लीग ने भी वेवेल योजना को अस्वीकार कर दिया था, क्योंकि इस योजना में मुस्लिम बहुल प्रांतों को हिंदू बहुल प्रांतों के साथ एकीकृत किया जाना था. मुस्लिम लीग ने मांग की थी कि मुस्लिम बहुल प्रांतों को एक अलग देश का दर्जा मिलना चाहिए.

इस तरह वेवेल योजना विफल हो गई. इसके कारण भारत को स्वतंत्रता प्राप्त करने में और भी वक्त लगा.


14. केबिनेट मिशन 1946 (Cabinet Mission in Hindi)

द्वितीय विश्व युद्ध के समाप्ति के बाद ब्रिटेन में चुनाव हुए और लेबर पार्टी की जीत हुई. लेबर पार्टी के क्लीमेंट एटली नए प्रधानमंत्री बने. दूसरी ओर, द्वितीय विश्वयुद्ध का भारत के राजनैतिक, आर्थिक व सामाजिक जीवन पर काफी असर हुआ था. अंग्रेजों की सत्ता पर पकड़ ढीली हो गई थी.

असहयोग आंदोलन के बर्बरतापूर्ण कार्रवाही की यादें आमजन में ताजा थी. बम्बई में नौसेना विद्रोह ने सभी स्तर पर भारतियों में आक्रोश को सतह पर ला दिया था. ऐसे में अंग्रेज समझौते के रास्ते से, भारत से निकल जाना चाहते थे, ताकि भविष्य में राष्ट्रमंडल के सुरक्षा में भारत का सहयोग पाया जा सकें.

फिर, फ़रवरी 1946 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने भारत को शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण के संभावनाओं व उपायों को तलाशने के उद्देश्य से तीन सदस्यीय शिष्टमंडल भेजने की घोषणा की. इसमें ब्रिटिश कैबिनेट के सदस्य लार्ड पांथिक लॉरेंस (भारत सचिव), सर स्टैफ़ोर्ड क्रिप्स (व्यापार बोर्ड के अध्यक्ष) और ए. वी. अलैक्जेंडर (नौसेना मंत्री) शामिल थे.

24 मार्च 1946 को कैबिनेट मिशन दिल्ली पहुंची, जहां विभिन्न दलों के साथ आंतरिक सरकार, भारत को स्वतंत्रता देने और संविधान निर्माण के आवश्यक सिद्धांत व उपाय पर विस्तृत चर्चा हुई. लेकिन, भारत विभाजन या एकीकृत भारत के मसले पर मुस्लिम लीग और कांग्रेस में कोई एक राय नहीं बन पाई.

इसके बाद, 1946 में शिमला में एक त्रिदलीय सम्मेलन बुलाया गया. इसमें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, मुस्लिम लीग और ब्रिटिश सरकार के तरफ से वायसराय व कैबिनेट मिशन के सदस्य शामिल हुए. कांग्रेस की तरफ से जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल और मौलाना अबुल कलाम आजाद, जबकि मुस्लिम लीग की तरफ से मोहम्मद अली जिन्ना, लियाकत अली खान और नवाब इस्माइल खान शामिल हुए थे.

5 से 11 मई तक चले इस सम्मेलन में मुस्लिम लीग के अड़ियल रवैया के कारण कोई भी सर्व सम्मत समाधान नहीं निकल सका था. मुस्लिम लीग किसी भी कीमत पर पृथक पाकिस्तान चाहती थी. ऐसे में कैबिनेट मिशन ने अपने प्रस्ताव पेश कर दिए. इसके मुख्य प्रस्ताव इस प्रकार है:

  • पाकिस्तान निर्माण की योजना त्याग दी गई. साथ ही, असंयुक्त संघ के निर्माण की योजना भी त्याग दी गई, क्योंकि इससे संविधान निर्माण व राज्य संचालन मुश्किल हो जाता.
  • ब्रिटिश प्रांतो व देसी रियासतों का विलय कर भारतीय संघ का निर्माण किया जाएगा. इसे कर लगाने का अधिकार भी दिया गया.
  • संघ को विदेश, रक्षा व संचार के मामले सौंपे गए. प्रांतों को शेष विषयों के साथ ही अवशिष्ट शक्तियां भी सौंपी गई.
  • प्रांतीय विधानमंडल को तीन समूहों में विभाजित किया गया.
  • समूह क में, मद्रास, बम्बई, मध्य प्रान्त, संयुक्त प्रान्त, बिहार एवं उड़ीसा आदि हिन्दू बहुसंख्यक प्रांत शामिल किए गए. समूह ‘ख’ में पंजाब, सिंध और उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत जैसे मुस्लिम बहुल प्रांत शामिल थे और समूह ‘ग’ के अंतर्गत बंगाल और असम नामक मुस्लिम बहुसंख्यक प्रांत शामिल किए गए थे.
  • संविधान सभा के निर्माण का प्रस्ताव. इसके सदस्यों का निर्वाचन समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के आधार पर 10 लाख की आबादी पर एक प्रतिनिधि द्वारा करने का निर्णय लिया गया.
  • देसी रियासतों को सदस्य मनोनीत कर संविधान सभा में भेजने को कहा गया. वहीँ, ब्रिटिश प्रांतों के विधानसभा द्वारा सदस्यों का अप्रत्यक्ष निर्वाचन की व्यवस्था की गई.
  • संविधान सभा के सदस्यों की संख्या 389 तय की गई. इनमें 292 सदस्य भारतीय प्रांतों से, 4 आयुक्तों के प्रांतों से व शेष 93 सदस्य देसी रियासतों से चुने जाने का प्रावधान किया गया था.
  • तीनों प्रांतीय समूहों को खुद में चर्चा करने और सामूहिक रूप से संविधान सभा में सम्मिलित होने का विकल्प दिया गया. सभी समूह संघ के लिए अकेले संविधान निर्माण के लिए भी स्वतंत्र थे.
  • कार्यपालिका और व्यवस्थापिका का तीन स्तरीय, केंद्रीय, प्रांतीय व सामूहिक स्तर पर विभाजन किया गया.
  • साम्प्रदायिकता से सम्बंधित विषय पर बहुमत से फैसला करने का प्रस्ताव दिया गया.

कैबिनेट मिशन के प्रस्तावों को लीग ने 6 जून और कांग्रेस ने 24 जून को स्वीकार कर लिया. संविधान सभा के निर्वाचन के लिए जुलाई में प्रांतीय व्यवस्थाकीयों में चुनाव संपन्न हुए. कांग्रेस को ब्रिटिश भारत के प्रांतों में 296 में से 208 सीटें, लीग को 73 और शेष 15 सीटों पर स्वतंत्र उम्मीदवारों को जीत मिली. इसके बाद वायसराय ने 14 सदस्यीय अंतरिम सरकार बनाने का प्रस्ताव रखा. इसमें 6 सदस्य कांग्रेस, 5 सदस्य लीग और तीन सदस्य अन्य अल्पसंख्यकों से चुने जाने का निर्णय लिया गया.

12 अगस्त को पंडित जवाहर लाल नेहरू अंतरिम सरकार यानि वायसराय की कार्यकारिणी में शामिल हुए. इसके चार दिन बाद ही 16 अगस्त को एम. ए. जिन्ना ने पाकिस्तान निर्माण के लिए प्रत्यक्ष कार्रवाही दिवस की घोषणा कर दी. इसके बाद 9 दिसंबर को बिना लीग के उपस्तिथि में ही डॉ राजेंद्र प्रसाद को संविधान सभा का अध्यक्ष निर्वाचित कर लिया गया.

हैदराबाद रियासत ने भी संविधान सभा का बहिष्कार कर रखा था. बाद में हैदराबाद को बलपूर्वक भारत में मिला लिया गया था.

15. बाल्कन योजना

कैबिनेट मिशन को असफल होते देख, वायसराय लार्ड माउंटबेटन ने मार्च से मई 1947 के दौरान भारत-विभाजन के लिए एक नै योजना पेश की. इसे बाल्कन योजना के नाम से जाना जाता है. इस योजना के द्वारा, ब्रिटिश सरकार ने पहली बार द्विराष्ट्र सिद्धांत का समर्थन किया था.

बाल्कन प्लान के तहत, पंजाब को दो भागों में विभाजित किया गया था, पश्चिमी पंजाब और पूर्वी पंजाब. पश्चिमी पंजाब को पाकिस्तान में शामिल किया गया था, जबकि पूर्वी पंजाब को भारत में शामिल किया गया था. बंगाल को भी दो भागों में विभाजित किया गया था, पश्चिमी बंगाल और पूर्वी बंगाल. पश्चिमी बंगाल को भारत में शामिल किया गया था, जबकि पूर्वी बंगाल को पाकिस्तान में शामिल किया गया था.

बाल्कन प्लान के सामने आते ही, भारत और पाकिस्तान से पलायन शुरू हो गया. इससे लाखों लोगों को अपने घरों से विस्थापित होना पड़ा था. इस विभाजन के कारण हिंसा और अराजकता भी फैल गई थी. यह भारतीय उपमहाद्विप के इतिहास का एक काला अध्याय है. पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इस योजना की तीखी आलोचना की, जिसके बाद इसे त्याग दिया गया. इसके बाद माउंटबेटन योजना प्रस्तुत की गई.

16. माउन्टबेटन योजना, 1947 और भारत और विभाजन (Mountbatten Plan and Partition of India in Hindi)

कैबिनेट मिशन योजना विफल होते दिख रही थी. साथ ही, प्रत्यक्ष कार्रवाही के बाद देश दंगों के आग में झुलस रहा था. ऐसे में ब्रिटिश सरकार की तरफ से वायसराय लार्ड माउंटबेटन ने 3 जून 1947 को नया योजना प्रस्तुत किया. इसे ही माउंटबेटन योजना के नाम से जाना जाता है. इस योजना में सत्ता हस्तांतरण को सरल बनाने के लिए भारत विभाजन और इसके लिए जनमत संग्रह का योजना बनाया गया. इसमें निम्न प्रावधान किए गए थे:

  • संघ को भारत और पाकिस्तान नाम के दो डोमिनियन में विभाजित किया जायेगा.
  • बंगाल और पंजाब का विभाजन किया जायेगा, एक मुस्लिम बहुल इलाके और दूसरे अन्य.
  • विभाजित इलाकों के सदस्य ये तय करेंगे कि वे विभाजन चाहते है या नहीं.
  • सामान्य बहुमत से विभाजन होने पर बंगाल और पंजाब के प्रत्येक विभाजित भाग ये तय करेंगे कि वे तत्कालीन संविधान सभा में रहेंगे या अलग होकर अपने नए देश पाकिस्तान के लिए संविधान तैयार करेंगे.
  • उत्तर पूर्वी सीमा प्रान्त और असम के सिलहट जिले में जनमत संग्रह करवाने का निर्णय लिया गया.
  • इस तरह पश्चिमी पंजाब और पूर्वी पकिस्तान ने अलग होने का निर्णय लिया. इसके बाद वायसराय माउंटबेटन ने 26 जुलाई को पाकिस्तान के लिए एक नए संविधान सभा के निर्माण की घोषणा कर दी.
  • रियासतों को भारत या पाकिस्तान में शामिल होने की छूट दे दी गई.
  • 15 अगस्त 1947 का दिन भारत के स्वतंत्रता यानि सत्ता हस्तांतरण का दिन घोषित किया गया.

द्विराष्ट्र सिद्धांत पर आधारित इस सिद्धांत ने भारत और पाकिस्तान नामक दो राष्ट्रों के उदय में मदद की. कांग्रेस और लीग समेत सभी दलों ने इस योजना को स्वीकार कर लिया. इसके साथ ही, ब्रिटिश सरकार ने सर रेडक्लिफ की अध्यक्षता में दो आयोगों का गठन किया, जिसे विभाजन के साथ ही दोनों नए राष्ट्रों के अंतर्राष्ट्रीय सीमा का निर्धारण करना था.

भारत विभाजन के कारण पकिस्तान से हिन्दुओं और सिखों, तथा भारत से मुसलामानों के बड़ी संख्या में पलायन हुआ. इस दौरान दंगे भी भड़के जिससे, जानमाल की काफी क्षति हुई. यह दुनिया के सबसे बड़े पलायनों में से एक माना जाता है, जिसमें मौतों की संख्या हजारों-लाखों में है.

17. भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 (Indian Independence Act in Hindi)

इस योजना के द्वारा माउंटबेटन योजना को लागु किया गया था. माउंटबेटन योजना को लागु करने के लिए, इसे 15 जुलाई को कॉमन्स की सभा और 16 जुलाई को लॉर्ड्स की सभा में पेश किया गया. फिर, 18 जुलाई को शाही हस्ताक्षर प्राप्त कर लिए गए.

यह अधिनियम 1947 में ब्रिटिश संसद द्वारा पारित एक महत्वपूर्ण क़ानूनी प्रस्ताव है, जिसने भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अंत और भारत के स्वतंतत्रता को इतिहास में अंकित किया. प्रस्ताव के अनुसार, ब्रिटिश भारत का विभाजन, भारत और पाकिस्तान नाम के दो राज्यों में किया जाएगा और यह 15 अगस्त 1947 को लागू होगी.

  • इसमें प्रावधान किया गया कि संविधान निर्माण तक या फिर स्वतंत्र राष्ट्र के द्वारा संसोधन तक, संघ व राज्यों का सत्ता 1935 के अधिनियम के अनुसार संचालित होंगे.
  • दोनों नए राष्ट्रों में एक गवर्नर जनरल के नियुक्ति का प्रावधान किया गया. नेहरू के अनुरोध पर माउंटबेटन ने भारत का पहला गवर्नर जनरल बनना स्वीकार किया. दूसरी ओर, मोहम्मद अली जिन्ना पाकिस्तान के नए गवर्नर जेनेरल बने.
  • रियासतों पर से ब्रिटिश ताज का प्रभुत्व समाप्त कर दिया गया. साथ ही, रियासतों या शासकों और ब्रिटिश ताज के बीच हुए सभी संधियां भी इस विधेयक के लागू होते ही यानि 15 अगस्त 1947 से समाप्त होने की घोषणा की गई.
  • सत्ता का हस्तांतरण भारत और पकिस्तान नाम के उदित दो नए देशों को करने की घोषणा की गई.
  • पाकिस्तान के हिस्से में ब्रिटिश शासित बलूचिस्तान, सिंध, उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रान्त, पश्चिमी पंजाब और पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) शामिल थे. ब्रिटिश शासन के अधीन शेष हिस्से भारतीय संघ का हिस्सा बने.
  • भारत और पकिस्तान के लिए अलग-अलग संविधान निर्माण की मंजूरी दी गई.

15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्रता अधिनियम लागु हो गया, इसके साथ ही भारत और पाकिस्तान को आजादी मिल गई और अधिनियम के सभी प्रस्ताव लागू हो गए. भारतीय क्षेत्रों से चुने गए सदस्य यथावत भारतीय संविधान सभा के सदस्य बने रहे. इन्होंने डॉ राजेंद्र प्रसाद के अध्यक्षता में भारतीय संविधान का निर्माण जारी रखा, जो अंततः 26 जनवरी 1950 को पूरी तरह लागु हो गए.

भारतीय संविधान का निर्माण (Making of the Indian Constitution in Hindi)

संविधान सभा की स्थापना, 6 दिसंबर 1946 को फ्रेंच प्रथा के अनुसार की गई. इसकी पहली बैठक 9 दिसंबर 1946 को नई दिल्ली स्थित काउंसिल चैम्बर के पुस्तकालय भवन में सम्पन्न हुई. इसी दिन सबसे बुजुर्ग सदस्य, डॉ सच्चिदानंद सिन्हा के अस्थायी अध्यक्षता में सभा आरम्भ हुआ. सबसे पहले जे. बी. कृपलानी ने इसे सम्बोधित किया. दो दिन बाद, 11 डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह को स्थायी अध्यक्ष चुना गया, जो आगे चलकर देश के प्रथम राष्ट्रपति बने. साथ ही, हरेंद्र कुमार मुखर्जी उपाध्यक्ष निर्वाचित हुए.

अभी भारतीय संविधान का निर्माण जारी था, ऐसे में सभा ही संसद के रूप में काम करने लगी. सदन की कार्रवाही पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा 13 दिसंबर को प्रस्तुत उद्देश्य प्रस्ताव के साथ आरम्भ की गई. चर्चाओं के बाद, इसे 22 जनवरी 1947 को स्वीकार कर लिया गया. इसके साथ ही, सभा ने कई समिति और उपसमिति का चयन किया, जिसने अपने दायित्वों को पूरा कर संविधान निर्माण में सहयोग दिया.

देश के विभाजन के बाद भारतीय संविधान सभा की कुल सदस्य संख्या 324 नियत की गई, जिसमें 235 स्थान ब्रिटिश सत्ता के अधीन प्रांतों के लिय और 89 स्थान देसी राज्यों (रियासतों) के लिए आवंटित थे.

बीएन राव द्वारा डॉ भीमराव आम्बेडकर के नेतृत्व में संविधान का आरम्भिक प्रारूप पेश किया गया. इसके बाद, 29 अगस्त 1947 को प्रारूप समिति का गठन किया गया. डॉ भीमराव आम्बेडकर को इसका अध्यक्ष निर्वाचित किया गया. मूलतः इसी प्रारूप समिति द्वारा भारतीय संविधान को तैयार किया गया. इसलिए, डॉ भीमराव आम्बेडकर के बाद बीएन राव को संविधान का महत्वपूर्ण शिल्पकार माना जाता है. ज्ञात हो कि बेनेगल नरसिंह राऊ (बीएन राव) को एक विशेषज्ञ के रूप में चुना गया था, वे संविधान सभा के सदस्य नहीं थे.

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बेनेगल नरसिंह राऊ
सन 1960 में प्रकाशित बी शिवा राव की पुस्तक 'इंडियाज़ कॉन्स्टीट्यूशन इन द मेकिंग' के प्राक्कथन में डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने लिखा था, "अगर डॉक्टर भीमराव आंबेडकर संविधान निर्माण के विभिन्न चरणों में एक कुशल पायलट की भूमिका में थे, तो बेनेगल राऊ वो व्यक्ति थे जिन्होंने संविधान की एक स्पष्ट परिकल्पना दी और उसकी नींव रखी. संवैधानिक विषयों को साफ़-सुथरी भाषा में लिखने की उनमें कमाल की योग्यता थी."

प्रारूप समिति ने संविधान के प्रारूप पर विचार विमर्श करने के बाद 21 फरवरी, 1948 ई. को संविधान सभो को अपनी रिपोर्ट पेश की. संविधान सभा में संविधान का प्रथम वाचन 4 नवंबर से 9 नवंबर, 1948 ई. तक, दूसरा वाचन 15 नवंबर 1948 ई० से 17 अक्टूबर, 1949 ई० और तीसरा 14 नवंबर, 1949 ई० से 26 नवंबर 1949 ई० तक चला.

आखिरी वाचन के दिन ही भारतीय संविधान को सभा द्वारा पारित कर दिया गया. इसमें कुल 22 भाग, 395 अनुच्छेद और 8 अनुसूचियां थीं. इसी दिन 15 अनइच्छेदों को लागु भी कर दिया गया. ये अनुच्छेद है- 5, 6, 7, 8, 9, 60, 324, 366, 367, 372, 380, 388, 391, 392 तथा 393. शेष प्रावधानों को अगले साल 26 जनवरी को लागु किया गया. इस दिन यानि 26 नवम्बर को 284 सदस्य सदन में उपस्तिथ थे.

ambedkar rajendra prasad
25 नवम्बर 1949 को डॉ आम्बेडकर, डॉ राजेन्द्र प्रसाद को भारतीय संविधान का अन्तिम मसौदा सौंपते हुए

संविधान के प्रारूप पर कुल 114 दिन बहस हुई और इसे बनाने में कुल 2 वर्ष 11 महीना और 18 दिन लगा. 24 जनवरी 1950 को संविधान सभा की आखिरी बैठक बुलाई गई. इसी दिन सभी उपस्तिथ सदस्यों ने इसपर हस्ताक्षर कर दिए. साथ ही, डॉ राजेंद्र प्रसाद को भारतीय गणतंत्र का पहला राष्ट्रपति चुन लिया गया. दो दिन बाद, 26 जनवरी 1950 को इसे पूर्णरूपेण लागू कर दिया गया. बताते चले कि करीब 6 करोड़ 40 लाख रूपये इसके निर्माण में खर्च हुए थे.

भारतीय संविधान के निर्माण से जुड़े महत्वपूर्ण तारीख (Important dates related to the making of Indian Constitution)

  • 22 जुलाई 1947: संविधान सभा ने तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज स्वीकार किया.
  • 29 अगस्त 1947: मसौदा समिति बनी, जिसके अध्यक्ष डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर बनाए गए. मसौदा समिति के सात सदस्य अल्लादी कृष्णस्वामी अय्यर, एन. गोपालस्वामी, बी. आर.अंबेडकर, के. एम. मुंशी, मोहम्मद सादुल्लाह, बी. एल. मित्तर और डी. पी. खेतान थे.
  • 16 जुलाई 1948: हरेंद्र कुमार मुखर्जी वी.टी. कृष्णामचारी संविधान सभा के दूसरे उपाध्यक्ष निर्वाचित किये गये.

संविधान सभा की समितियां (Committees of the Constituent Assembly of India)

भारतीय संविधान सभा ने भारतीय संविधान के सरलता से निर्माण के लिए 22 समितियों का गठन किया था. इन सभी को भारतीय संविधान से जुड़े अलग-अलग काम सौंपे गए. चूँकि, डॉ भीमराव आंबेडकर प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे, इसलिए उन्ही के अधीन सारा काम आ गया. अंततः उन्होंने इस चुनौती को स्वीकार किया और भारतीय संविधान निर्माण के काम को पूरा किया.

प्रमुख समितियों के नामअध्यक्ष
संघ शक्ति समिति
संघ संविधान समिति
राज्य समिति
पंडित जवाहरलाल नेहरू
प्रांतीय संविधान समितिसरदार वल्लभ भाई पटेल
मसौदा समितिडॉ. बी. आर. अंबेडकर
सलाहकार समितिसरदार वल्लभ भाई पटेल
मौलिक अधिकार उप-समितिजेबी कृपलानी
अल्पसंख्यक उप समितिएच.सी. मुखर्जी
उत्तर पूर्व सीमांत जनजातीय क्षेत्र और असम बहिष्कृत और आंशिक रूप से बहिष्कृत क्षेत्र उप-समितिए.वी. ठक्करी
बहिष्कृत और आंशिक रूप से बहिष्कृत क्षेत्र उप-समितिए.वी. ठक्करी
नियम और प्रक्रिया समिति
संचालन समिति
डॉ राजेंद्र प्रसाद
नियम समितिडॉ. राजेंद्र प्रसाद
संघ शक्ति समितिपंडित जवाहर लाल नेहरू
संघ संविधान समितिपंडित जवाहर लाल नेहरू
प्रांतीय संविधान समितिसरदार वल्लभ भाई पटेल
संचालन समितिडॉ. राजेंद्र प्रसाद
प्रारूप समितिडॉ. भीमराव अम्बेडकर
झण्डा समितिजे. बी. कृपलानी
राज्य समितिपंडित जवाहर लाल नेहरू
परामर्श समितिसरदार वल्लभ भाई पटेल
सर्वोच्च न्यायालय समितिएस. वारदाचारियार
मूल अधिकार उपसमितिजे. बी. कृपलानी
अल्पसंख्यक उपसमितिएच. सी. मुखर्जी
संविधान समीक्षा आयोगएम एन बैक्टाचेलेया
भारतीय संविधान सभा की मुख्य समितियां, उपसमितियां व आयोग

भारतीय संविधान के विदेशी स्रोत (Foreign Sources of Indian Constitution)

संविधान निर्माता डॉ भीमराव आंबेडकर ने भारतीय संविधान के निर्माण से पहले दुनिया के कई देशों के संविधान का अध्ययन किया था. इस दौरान कई देशों के दौरे किए गए व विशेषज्ञों से चर्चा की गई. जहाँ आजादी से पूर्व अंग्रेजों द्वारा बनाए गए कई कानूनों को जारी रखा गया या उनमे थोड़े-बहुत बदलाव कर भारतीय संविधान में उन्हें शामिल कर लिया गया; वहीं विदेशी संविधानों के अच्छे हिस्सों को भी इनमें शामिल किया गया. ये विदेशी स्त्रोत इस प्रकार है:-

ब्रिटेन सेनाममात्र का प्रमुख– राष्ट्रपति ( जैसे ब्रिटेन की महारानी )
मंत्रियों की कैबिनेट प्रणाली
प्रधानमंत्री का पद
सरकार का संसदीय प्रकार
दो सदन वाली संसद
अधिक शक्तिशाली निचला सदन
मंत्रि परिषद का निचले सदन के प्रति जिम्मेदार होना
लोकसभा में अध्यक्ष
अमेरिका सेलिखित संविधान
देश का कार्यकारी प्रमुख जिसे राष्ट्रपति कहा जाता है और वह सैन्य बलों का सर्वोच्च कमांडर होगा
राज्य सभा के पदेन अध्यक्ष के तौर पर उप–राष्ट्रपति
मौलिक अधिकार
सुप्रीम कोर्टराज्यों का प्रावधान
न्यायपालिका और न्यायिक समीक्षा की स्वतंत्रता
प्रस्तावना
सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालय के जजों को हटाना
यूएसएसआर सेमौलिक कर्तव्य
पंचवर्षीय योजना
ऑस्ट्रेलिया सेसमवर्ती सूची
प्रस्तावना की भाषा
व्यापार, वाणिज्य और मेल–जोल के संदर्भ में प्रावधान
जापान सेकानून जिस पर सुप्रीम कोर्ट काम करता है
कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया
जर्मनी के संविधान से आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकारों का निलंबन
कनाडा सेसशक्त केंद्र के साथ संघ की योजना
केंद्र और राज्यों एवं स्थानों के बीच सत्ता का वितरण
केंद्र के पास बाकी के अधिकार
आयरलैंड सेराज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों की अवधारणा (आयरलैंड ने इसे स्पेन से उधार लिया था)
राष्ट्रपति के निर्वाचन की पद्धति
राष्ट्रपति द्वारा राज्य सभा में सदस्यों का नामांकन
दक्षिण अफ्रीकी संविधान सेसंविधान का संशोधन
राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव
भारतीय संविधान के विदेशी स्त्रोत

भारतीय संविधान का मूल ढांचा (Basic Structure of the Indian Constitution in Hindi)

आपको ज्ञात होगा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 में संसद द्वारा संविधान में संशोधन करने का प्रावधान है. इस बात को लेकर अक्सर विवाद होते थे कि संसद संविधान के किसी भी हिस्से में बदलाव कर सकता है या नहीं? इस मसले पर सभी के राय बंटे हुए थे. इसलिए केशवानंद भारती वाद में सर्वोच्च अदालत के 13 सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने इसपर सुनवाई की.

सुप्रीम कोर्ट ने 24 अप्रैल 1973 को केशवानंद भारती केस में ऐतिहासिक फैसला सुनाया. फैसले में कोर्ट ने भारतीय संविधान के ‘बुनियादी ढांचे’ का सिद्धांत दिया. 7-6 के बहुमत से फैसला सुनाते हुए अदालत ने कहा कि भारतीय संविधान के मूल ढांचे यानि बेसिक स्ट्रक्चर (Basic Structure ) में बदलाव नहीं किया जा सकता.

मतलब, सरकार भारतीय संविधान में कोई भी ऐसा बदलाव नहीं कर सकती जो भारतीय लोकतंत्र की प्रकृति और लोगों के अधिकारों और स्वतंत्रता की रक्षा में खतरा हो. भारतीय संविधान का यह मूल संरचना सिद्धांत संविधान के भावना की रक्षा और संरक्षण में मदद करता है. इस फैसले के आज 50 वर्ष से अधिक बीत गए है. लेकिन यह फैसला आज भी कायम है.

भारतीय संविधान की विशेषताएं (Features of Indian Constitution in Hindi)

भारत जितना अधिक विविध है, इसका संविधान भी उतना ही अधिक विस्तृत, समावेशित व सुस्पष्ट है. केंद्र व राज्य के लिए एक ही संविधान है, जो संविधानिक एकता और राष्ट्रवाद के मूल्यों को बढ़ावा देता है. भारतीय संविधान में केंद्र व राज्यों के अधिकार सुरक्षित है, जो देश में स्थायित्व कायम करता है. इसके निम्नांकित विशेषताएं है-

सबसे बड़ा लिखित व निर्मित संविधान (The biggest written and constituted Constitution)

भारतीय संविधान विश्व का सबसे बड़ा लिखित व निर्मित संविधान है. इसे भारतीय संविधान सभा द्वारा, ब्रिटिश सरकार से सत्ता ह्तांतरण के दौर में बनाया गया था. बाद में हुए संसोधन द्वारा भी इसका समयानुक संशोधन या निर्माण जारी रहा. मूल भारतीय संविधान में 395 खंडों को 22 भागों में विभाजित किया गया था. आज 105 संसोधन के बाद भारतीय संविधान में 25 भागों में विभाजित 470 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियाँ हैं. इनके अतिरिक्त, संविधान में एक उद्देशिका और पाँच परिशिष्ट भी हैं. इस तरह भारतीय संविधान बड़ा सबसे लिखित व निर्मित संविधान है, जो भारत के लोगों को समृद्ध और समग्र जीवन जीने का अवसर प्रदान करता है.

आन्तरिक एव बाह्य स्त्रोत (Internal and External Sources in Hindi)

भारतीय संविधान में विभिन्न देशों से प्रावधानों को उधार लिया गया है और इसमें देश की आवश्यकताओं और उपयुक्तताओं के अनुसार संशोधित कर अपनाया गया है. भारतीय संविधान का संरचनात्मक भाग भारत सरकार अधिनियम, 1935 से लिया गया है, जो ब्रिटिश राज द्वारा भारत पर लागू किया गया था. सरकार की संसदीय प्रणाली और कानून के नियम जैसे प्रावधान यूनाइटेड किंगडम से लिए गए हैं.

इसके अलावा, भारतीय संविधान में संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका के संविधानों से भी प्रावधानों को उधार लिया है. इन प्रावधानों में नागरिक अधिकारों, मौलिक स्वतंत्रता, न्यायपालिका और संघीय प्रणाली के प्रावधान शामिल हैं. इस तरह, भारतीय संविधान को एक समग्र और व्यापक दस्तावेज बनाया गया.

नम्यता और अनम्यता का मिश्रण (Mixture of Flexibility and Rigidity)

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 में संविधान में संशोधन करने की प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है. इस अनुच्छेद के अनुसार, संविधान में संशोधन करने के लिए संसद के दो तिहाई सदस्यों के समर्थन की आवश्यकता होती है. हालांकि, संविधान के कुछ मूलभूत भाग ऐसे हैं जिनमें संशोधन नहीं किया जा सकता है क्योंकि वे भारतीय लोगों के अधिकारों और स्वतंत्रताओं की रक्षा करते हैं. इस प्रकार भारतीय संविधान में कठोरता के साथ लचीलेपन का समावेश है.

एकल नागरिकता (Sole Citizenship in Hindi)

भारत एक एकल नागरिकता वाला देश है. इसका मतलब है कि भारत में सभी नागरिक, चाहे वे किसी भी धर्म, जाति, समुदाय या क्षेत्र से हों, समान नागरिक हैं. भारतीय संविधान नागरिकों से जन्म, लिंग, वंश, जाति या क्षेत्र के आधार पर भेदभाव का निषेध करता है. भारतीय संविधान का भाग II, अनुच्छेद 5 से 11 तक नागरिकता के प्रावधान करता है. जन्म, वंश, पंजीकरण व प्राकृतिकरण के आधार पर कोई भी व्यक्ति भारत का नागरिक बन सकता है. सभी भारतीय नागरिकों को मतदान समेत संविधान में वर्णित सभी अधिकार प्राप्त होते है.

मौलिक अधिकार (Fundamental Rights)

भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार भाग III में निहित हैं. मूल संविधान में इसकी संख्या सात थी, लेकिन 44वें संविधान संसोधन द्वारा संपत्ति के अधिकार को अनुच्छेद 300ए में कानूनी अधिकार के तौर पर संशोधित कर दिया गया. इस तरह अब 6 अधिकारों- समानता के अधिकार, स्वतंत्रता के अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, धार्मिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता के अधिकार, शिक्षा के अधिकार और संपत्ति के अधिकार- का प्रावधान संविधान में है.

मौलिक अधिकार नागरिकों को सरकार के दमन से बचाते हैं और उन्हें स्वतंत्र और समृद्ध जीवन जीने का अवसर प्रदान करते हैं. मौलिक अधिकार लोकतंत्र को मजबूत कर देश को महान बनाती है. इन अधिकारों ने सरकार को नागरिकों के अधिकारों का सम्मान करने के लिए बाध्य किया है. नागरिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाला कानून नहीं बनाया जा सकता है. सरकार को अब नागरिकों को बिना किसी उचित कारण के गिरफ्तार या हिरासत में नहीं रख सकती है. सरकार नागरिक सम्पत्ति को बिना किसी उचित कारण के नहीं छीन सकती है.

नीति-निर्देशक तत्व (Directive Principles of State Policy in Hindi)

नीति निर्देशक तत्व (DPSP) भारतीय संविधान के भाग IV के अनुच्छेद 36 से 50 में निहित हैं. ये तत्व सरकार को एक ऐसे समाज के निर्माण के लिए दिशा-निर्देश देते हैं जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय पर आधारित हो. नीति निर्देशक तत्वों को न्यायपालिका द्वारा लागू नहीं किया जा सकता है, लेकिन ये सरकार को ऐसे नीतियों व योजनाओं के निर्माण के लिए प्रेरित करते हैं जो सभी नागरिकों को एक बेहतर भविष्य प्रदान करे.

मौलिक कर्त्तव्य (Fundamental Duties in Hindi)

भारत के संविधान के भाग IV-A में 11 मौलिक कर्तव्यों का उल्लेख है. ये कर्तव्य नागरिकों को यह बताते हैं कि उन्हें प्राप्त अधिकार कुछ कर्तव्यों के साथ आते हैं. ये कर्तव्य भारतीय नागरिकों के लिए एक दिशानिर्देश हैं जो उन्हें जिम्मेदार और सभ्य नागरिक के रूप रहने का सलाह देता है. इन्हें 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा संविधान में शामिल किया गया था. बाद में 86वें संविधान संसोधन,2002 द्वारा जोड़ा गया ग्यारवां कर्तव्य, 6-14 वर्ष की आयु के बीच उसके बच्चे को शिक्षा के अवसर प्रदान करने को निर्देशित करता है.

सार्वभौमिक मताधिकार (Universal Suffrage in Hindi)

सार्वभौमिक मताधिकार वह प्रणाली है जिसमें सभी वयस्क नागरिकों को मत देने का अधिकार होता है, चाहे उनकी जाति, धर्म, लिंग या सामाजिक स्थिति कुछ भी हो. यह एक लोकतांत्रिक प्रणाली का एक महत्वपूर्ण पहलू है, क्योंकि यह सभी नागरिकों को सत्ता में भागीदार बनाता है. भारत में मतदान के लिए सार्वभौमिक मताधिकार को अपनाया गया है. देश के 18 वर्ष से अधिक उम्र के सभी नागरिकों को मतदान का अधिकार है.

इतिहास की बात करें, तो सार्वभौमिक मताधिकार का इतिहास लंबा और जटिल है. प्राचीन ग्रीस और रोम में, केवल पुरुष नागरिकों को मत देने का अधिकार था. महिलाओं को मतदान का अधिकार 19वीं और 20वीं सदी में मिला. भारत में, सार्वभौमिक मताधिकार 1950 में संविधान के लागू होने के साथ प्राप्त हुआ.

सार्वभौमिक मताधिकार के कई लाभ हैं. सबसे पहले, यह एक लोकतांत्रिक प्रणाली के लिए आवश्यक है. जब सभी नागरिकों को मत देने का अधिकार होता है, तो यह सुनिश्चित करता है कि सरकार जनता के प्रति जवाबदेह हो.
दूसरा, सार्वभौमिक मताधिकार सभी नागरिकों को समानता का अधिकार देता है. कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपका जाति, धर्म, लिंग या सामाजिक स्थिति क्या है, आपके पास सरकार के लिए अपना वोट डालने का अधिकार है.

तीसरा, सार्वभौमिक मताधिकार लोगों को सरकार में भाग लेने का अवसर देता है. जब आप मतदान करते हैं, तो आप अपनी पसंद के उम्मीदवार को चुनने में मदद कर रहे हैं और सरकार के निर्णयों को प्रभावित कर रहे हैं.

हालांकि, सार्वभौमिक मताधिकार के कुछ चुनौतियां भी हैं. सबसे पहले, यह सुनिश्चित करना मुश्किल हो सकता है कि सभी नागरिक मतदान करें. कुछ लोग मतदान के प्रति जागरूक नहीं हो सकते हैं, जबकि अन्य किसी अन्य निजी कारणों, जैसे रोजगार के लिए पलायन, जीविका के लिए दैनिक मजदूरी की जरूरत इत्यादि, के कारण मतदान नहीं करि पाते है.

कुल मिलाकर, सार्वभौमिक मताधिकार एक लोकतांत्रिक प्रणाली के लिए महत्वपूर्ण है. हालांकि, यह सुनिश्चित करना अधिक महत्वपूर्ण है कि सभी नागरिक मतदान करें और वे ऐसे उम्मीदवारों को चुनें जो देश के हितों के लिए सर्वोत्तम हों.

स्वतंत्र व निष्पक्ष न्यायपालिका (Free and Fair Judiciary in Hindi)

भारतीय संविधान में स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका का प्रावधान है, जो संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से लिया गया है. न्यायपालिका को कार्यपालिका व विधायिका के प्रभाव से अलग रखा गया है. स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका एक लोकतांत्रिक सरकार का आवश्यक अंग माना जाता है. यह नागरिकों के अधिकारों और स्वतंत्रताओं की रक्षा करती है, और यह सुनिश्चित करती है कि सभी को कानून के समक्ष समान व्यवहार मिले. एक स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका के बिना, सरकार के अन्य अंगों का दुरुपयोग किया जा सकता है और नागरिकों के अधिकारों का उल्लंघन किया जा सकता है.

भारतीय न्यायपालिका भी अपना कार्य संविधान के अनुसार करने को स्वतंत्र है और भारतीय न्यायालय के अंतिम निर्णय सभी को मानने होते है. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124 के अनुसार भारत के सर्वोच्च न्यायालय और अनुच्छेद 214 में राज्यों के लिए उच्च न्यायलय के लिए प्रावधान किया गया है.

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा संविधान के अनुच्छेद 124 के खंड (2) के अंतर्गत की जाती है. राष्ट्रपति सूचित नियुक्तियाँ करने के लिये सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के साथ परामर्श करते है. उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति अनुच्छेद 217 के प्रक्रिया द्वारा राष्ट्रपति द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI), राज्य के राज्यपाल के परामर्श से जाती है. मुख्य न्यायाधीश के अलावा किसी अन्य न्यायाधीश की नियुक्ति के मामले में उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श किया जाता है.

सरकार का संसदीय स्वरुप (Parliament Form of Government in Hindi)

भारत में सरकार का संसदीय स्वरूप अपनाया गया है. केंद्र की विधायिका दो भागो, लोकसभा और राज्यसभा में विभक्त है. संसदीय सरकार में कार्यपालिका, विधायिका के प्रति उत्तरदायी होती है. प्रधानमंत्री का चुनाव विधायिका के सदस्यों किया जाता है. चुनाव के बाद प्रघानमंत्री को विश्वासमत जीतना होता है, जिसमें विधायिका के सदस्य भाग लेते है. यदि सरकार विधायिका का विश्वास मत जीत नहीं पाती है, तो इसे प्रधानमंत्री समेत पुरे कैबिनेट को इस्तीफा देना पड़ता है. भारतीय संविधान में केंद्र सरकार के लिए लोकसभा और राज्यों में विधानसभा के विश्वासमत को जितना सरकार के लिए जरुरी माना गया है.

संसदीय सरकार के काफी फायदे है. यह लोकतंत्र को मजबूत करती है. विधायिका के सदस्यों को सरकार के कामकाज पर नियंत्रण रखने की शक्ति होती है, और वे सरकार को जवाबदेह ठहरा सकते हैं. इससे सरकार का भ्रष्टाचार और अक्षमता कम होती है. संसदीय सरकार का एक अन्य लाभ यह है कि इसे बहुमत प्राप्त होता है, जो सरकार को स्थिरता प्रदान करती है. बहुमत को ध्यान में रखकर ही सरकार गलत निर्णय लेने से बचती है.

कुल मिलाकर, संसदीय सरकार एक लोकतांत्रिक सरकार का एक अच्छा रूप है. यह लोकतंत्र को मजबूत करता है, स्थिरता प्रदान करता है, और जवाबदेही को बढ़ाता है. हालांकि, यह अत्यधिक जटिल और दलीय स्वार्थ पर आधारित भी हो सकता है.

धर्मनिरपेक्ष राज्य (Secular State in Hindi)

भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता को अपनाया गया है. धर्मनिरपेक्ष राज्य में सरकार किसी भी धर्म को आधिकारिक धर्म नहीं मानता है. सभी धर्मों के लोगों को समान अधिकार और स्वतंत्रता प्राप्त होती है. सरकार और धर्म एक-दूसरे से अलग होते हैं. सरकार किसी भी धर्म को बढ़ावा नहीं देती है, और किसी भी धर्म के खिलाफ भेदभाव नहीं करती है.

सामाजिक न्याय (Social Justice in Hindi)

भारतीय संविधान के कई अनुच्छेद व हिस्से सामाजिक न्याय की पुष्टि करते है. निति-निर्देशक तत्व के अनुच्छेद 39 राज्य को सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने का निर्देश देता है. वहीं, अनुच्छेद 46 राज्य को अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों के लोगों के लिए विशेष प्रावधान करने का निर्देश देता है. इसके अलावा भी भारतीय संविधान सामाजिक न्याय से जुड़े कई प्रावधान करता है:

  • अनुछेद 330 – लोक सभा में SC/ST का आरक्षण.
  • अनुछेद 332 – विधान सभा में SC/ST का आरक्षण.
  • अनुछेद 338 – अनुसूचित जातियों की समस्याओं के समाधान के लिए NCSC (National Commission for Schedule caste) की स्थापना.
  • अनुछेद 338A – अनुसूचित जनजातियों की समस्याओं के समाधान के लिए NCST (National Commission for Schedule Tribe ) की स्थापना.
  • अनुछेद 338B – पिछड़े वर्गों की समस्याओं के समाधान के लिए NCBC ( national commission for backward classes ) की स्थापना.
  • अनुछेद 341 और 342 – राष्ट्रपति का अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के कल्याण के लिए कार्य करना.

प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष लोकतंत्र (Direct and Indirect Democracy in Hindi)

भारतीय संविधान में मूल रूप से अप्रत्यक्ष लोकतंत्र को अपनाया गया था. लेकिन पंचायती राज व्यवस्था के अपनाए जाने के बाद प्रत्यक्ष लोकतंत्र का भी समावेश हो गया. पंचायत का ग्रामसभा इसका उदाहरण है. संसद व विधानसभा अप्रत्यक्ष लोकतंत्र में आते है.

एकात्मीय सहकारी संघवाद (Unitary Cooperative Federalism in Hindi)

कहने को तो भारत में संघीय व्यवस्था अपनाई गई है. लेकिन केंद्र अधिक शक्तिशाली है, इसलिए इसमें एकात्मीयता का भाव समाहित है. साथ ही, केंद्र व राज्य एक-दूसरे पर आधारित है. इसलिए भारत को एकात्मीय सहकारी संघवाद वाला राज्य कहना अधिक उचित होगा.

स्वतंत्र निकाय (Independent Body in Hindi)

एक स्वतंत्र निकाय एक ऐसी संस्था है जो संविधान व संसद द्वारा बनाए गए नियमानुसार स्वतंत्र रूप से काम करती है. स्वतंत्र निकायों का गठन आमतौर पर लोगों के अधिकारों और स्वतंत्रताओं की रक्षा के लिए किया जाता है. चुनाव आयोग, भारत का नियंत्रक और महालेखा परीक्षक, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और भारतीय संवैधानिक न्यायालय इसके उदाहरण है.

आपातकालीन प्रावधान (Emergency Provisions in Hindi)

भारतीय संविधान में आपातकालीन प्रावधानों की व्यवस्था की गई है ताकि देश में संकट की स्थिति में सरकार को आवश्यक शक्तियां मिल सकें. संविधान के अनुच्छेद 352 से 360 तक आपातकालीन प्रावधानों का उल्लेख है. आपातकालीन प्रावधानों का इस्तेमाल केवल संकट की स्थिति में ही किया जा सकता है. संकट की स्थिति की घोषणा राष्ट्रपति द्वारा की जाती है. राष्ट्रपति को संकट की स्थिति की घोषणा करने के लिए संसद के दोनों सदनों से अनुमति लेनी होती है. आपातकालीन प्रावधानों के तहत सरकार को निम्नलिखित शक्तियां प्राप्त हो जाती हैं:

  • संसद के सभी सदन स्थगित हो सकती हैं.
  • राज्य सरकार को भंग किया जा सकता है.
  • राष्ट्रपति शासन लागू हो सकता हैं.
  • मौलिक अधिकारों को निलंबित किया जा सकता हैं.
  • सरकार किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकते हैं और उसे बिना मुकदमा चलाए जेल में रख सकती हैं.
  • सरकार किसी भी व्यक्ति की संपत्ति जब्त कर सकती हैं.

संविधान संसोधन (Constitutional Amendments in Hindi)

भारतीय संविधान में संशोधन संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से किया जा सकता है. हालाँकि, कुछ संशोधन, जैसे कि जो विधेयक संविधान की मूल संरचना को प्रभावित करते हैं, के लिए अधिक कठिन प्रक्रिया से गुजरना होता है. साथ ही, सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के मूल भावना में बदलाव पर रोक लगाया हुआ है.

तीन-स्तरीय शासन (Triple-Layer Government in Hindi)

आधुनिक भारतीय संविधान में सत्ता का तीन स्तर निर्धारित किया गया है. केंद्र, राज्य व स्थानीय निकाय (पंचायत व नगर निकाय). तीनों में विषयों का विभाजन है और कार्य संचालन के स्पष्ट नियम है. इसी के अनुरूप सरकार के तीनों स्वरुप अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाहन करते है.

कानून का शासन (Rule of Law in Hindi)

भारतीय संविधान में संवैधानिक प्रावधानों को वरीयता दी गई है. संविधान को विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका से भी सर्वोच्च माना गया है. इसलिए सरकार के सभी अंगों व स्वतंत्र निकायों को इसी के अनुरूप कार्य करना होता है. यह देश में कानून के शासन की स्थापना करता है. किसी को बेवजह परेशान या शोषित नहीं किया जा सकता. क़ानूनी प्रक्रिया का पालन करते हुए सरकार किसी के खिलाफ कोई कार्रवाही कर सकती है. मतलब, कानून सभी के लिए समान है और सभी के लिए दंड व पुरस्कार के नियम भी समान है.

संसदीय सम्प्रभुता व न्यायिक सर्वोच्चता में समन्वय (Coordination in Parliamentary Sovereignty and Judicial Supremacy in Hindi)

संसदीय सम्प्रभुता और न्यायिक सर्वोच्चता दो अलग-अलग सिद्धांत हैं जो एक लोकतांत्रिक सरकार के कामकाज को नियंत्रित करते हैं. संसदीय सम्प्रभुता का अर्थ है कि संसद को कानून बनाने का अधिकार है और सरकार के अन्य अंगों को संसद के अधीन होना चाहिए. न्यायिक सर्वोच्चता का अर्थ है कि न्यायपालिका को कानून की व्याख्या करने और सरकार के अन्य अंगों के कार्यों को संवैधानिक रूप से जांचने का अधिकार है.

इन दो सिद्धांतों के बीच एक संतुलन बनाना आवश्यक है ताकि सरकार के सभी अंग अपने-अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए एक-दूसरे के अधिकारों का उल्लंघन न करें. संसदीय सम्प्रभुता को बनाए रखने के लिए, सरकार के अन्य अंगों को संसद के अधीन होना चाहिए. न्यायिक सर्वोच्चता को बनाए रखने के लिए, न्यायपालिका को स्वतंत्र और निष्पक्ष होना चाहिए.

संसदीय सम्प्रभुता और न्यायिक सर्वोच्चता के बीच एक संतुलन बनाना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है, लेकिन यह एक आवश्यक कार्य है ताकि एक लोकतांत्रिक सरकार सुचारू रूप से काम कर सके.

संसदीय सम्प्रभुता और न्यायिक सर्वोच्चता के बीच एक संतुलन बनाने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:

  • संसद को कानून बनाने का अधिकार होना चाहिए, लेकिन यह अधिकार संविधान के दायरे में होना चाहिए.
  • सरकार के अन्य अंगों को संसद के अधीन होना चाहिए, लेकिन वे संसद के अधीन होने के बावजूद अपने अधिकारों का प्रयोग करने में सक्षम होने चाहिए.
  • न्यायपालिका को स्वतंत्र और निष्पक्ष होना चाहिए, लेकिन यह स्वतंत्र और निष्पक्ष होने के बावजूद सरकार के अन्य अंगों के साथ समन्वय करने में सक्षम होना चाहिए.

संसदीय सम्प्रभुता और न्यायिक सर्वोच्चता के बीच एक संतुलन बनाकर, एक लोकतांत्रिक सरकार को मजबूत किया जा सकता है और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा की जा सकती है. इन्हीं तत्वों को ध्यान में रखकर, भारतीय संविधान में न्यायपालिका व विधायिका के अधिकार व कार्यों का ऊपर के विशेषताओं के अनुरूप विभाजन किया गया है.

अल्पसंख्यक अधिकारों का संरक्षण (Protection of Minority Rights in Hindi)

भारतीय संविधान में अल्पसंख्यक अधिकारों का संरक्षण के लिए कई प्रावधान हैं. इन प्रावधानों का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि अल्पसंख्यक समुदायों को अपने धर्म, संस्कृति, भाषा और शिक्षा के मामले में समान अधिकार और स्वतंत्रता प्राप्त हो. भारतीय संविधान में अल्पसंख्यक अधिकारों के संरक्षण के लिए कुछ महत्वपूर्ण प्रावधान इस प्रकार हैं:

  1. अनुच्छेद 25: यह सभी नागरिकों को धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार देता है.
  2. अनुच्छेद 26: यह सभी नागरिकों को धार्मिक समुदायों को बनाने और चलाने का अधिकार देता है.
  3. अनुच्छेद 29: यह सभी नागरिकों को अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति को संरक्षित करने का अधिकार देता है.
  4. अनुच्छेद 30: यह सभी धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यक समुदायों को अपनी शिक्षा संस्थानों को स्थापित और चलाने का अधिकार देता है.

संविधान की सर्वोच्चता (Supremacy of Constitution in Hindi)

किसी भी विवाद के स्तिथि में, भारतीय संविधान को सर्वोच्च माना जाता है और इसमें दिए गए प्रावधानों के अनुरूप हल निकाला जाता है.

FAQs

Q. भारत के संविधान का पिता कौन है?
A. डॉ भीमराव आंबेडकर

Q. भारत के संविधान में कितने शब्द हैं?
A. मूल संविधान के अंग्रेजी संस्करण में लगभग 1,17,369 शब्द हैं.

Q. भारतीय संविधान के मूल प्रति को कहाँ रखा गया है?
A. भारत की राजधानी नई दिल्ली के नेशनल म्यूजियम में

Q. भारत के संविधान को कब लागु किया गया?
A. 26 जनवरी, 1950

Q. दुनिया का सबसे छोटा लिखित संविधान किस देश का है?
A. मोनाको

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1 thought on “भारतीय संविधान: इतिहास और 20 विशेषताएं”

  1. The Indian Constitution continues to exist as a living document even after 70 years of independence. The Indian Judiciary and the process of constitutional interpretation are constantly evolving.

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