महात्मा गाँधी का पूरा नाम मोहनदास करमचंद गाँधी था. उनका जन्म 2 अक्टूबर,1869 को गुजरात के काठियावाड़ जिले के पोरबन्दर नामक स्थान पर हुआ था. उनके पिता करमचंद गाँधी पोरबन्दर रियासत के दीवान थे. बाद में वे राजकोट और कुछ समय बाद बीकानेर के भी दीवान बने. वे ईमानदार, साहसी एवं उदार प्रकृति के व्यक्ति थे. उन्हें लोभ रंचमात्र छू नहीं गया था.
एम० के० गाँधी की माता पुतली बाई साध्वी, श्रद्धालु एवं धर्मपरायण महिला थी. बालक मोहन दास पर माता-पिता के उच्च नैतिक संस्कारों का गहरा असर पड़ा.
गाँधी जी की सहज बाल्यवस्था पोरबंदर में प्रारंभ हुई. प्रारम्भिक शिक्षा का श्रीगणेश सात वर्ष की अवस्था में राजकोट पाठशाला से हुआ. शैक्षिक दृष्टि से तो वे एक सामान्य छात्र थे पर वे निष्ठावान, विनयी एवं कर्त्तव्य के प्रति समर्पित थे. 1881 में इनका अल्फ्रेड हाई स्कूल में प्रवेश हुआ.
हाई स्कूल में इंस्पेक्टर के निरीक्षण के दौरान अध्यापक द्वारा संकेत करने पर भी इन्होंने नकल नहीं की. यह इनके चरित्र की दृढ़ता को प्रदर्शित करता है. बाल्यावस्था में गाँधी जी ने हरिश्चन्द्र नाटक का मंचन देखा तथा श्रवण कुमार की पितश् भक्ति से सम्बन्धित चलचित्र का अवलोकन किया. इन दोनों का ही अमिट प्रभाव बालक मोहन पर पड़ा. श्रवण कुमार सी पितृ भक्ति तथा हरिश्चन्द्र की सत्यवादिता को उन्होंने अपने व्यक्तित्व का हिस्सा बना लिया.
तेरह वर्ष की अल्पावस्था मे इनका विवाह कस्तूरबा बाई से हुआ. अपने बुरे अनुभवों के आधार पर गाँधी जी जीवन पर्यन्त बाल विवाह के विरोधी बने रहे. सन् 1885 मे इनके पिताजी का देहावसान हो गया. पिता की मृत्यु से इन्हें गहरा धक्का लगा और वे महसूस करते रहे कि पिता के प्रति अपने कर्तव्यों के पालन मे वे अंतिम समय में चूक गये.
तमाम विरोधों के बावजूद उच्च शिक्षा ग्रहण करने गाँधी जी लंदन चले गये. 1891 ई० में बैरिस्टर की परीक्षा सफलतापूर्वक उत्तीर्ण कर वे भारत लौट आए. महात्मा गाँधी के राजनीतिक जीवन का प्रारम्भ 1893 ई० में माना जाता है, जब वे एक भारतीय के मुकदमे की पैरवी हेतु दक्षिण अफ्रीका पहुँचे.
रंगभेद के अन्याय के विरूद्ध इन्होंने सफलतापूर्वक आन्दोलन कर अपने सत्याग्रह के सिद्धान्त का प्रारम्भ किया. भारतीयों के हितो की सुरक्षा एवं बच्चों की शिक्षा के लिए टाल्स्टॉय आश्रम की स्थापना की, जहाँ इन्होंने बुनियादी शिक्षा के सिद्धान्त का विकास किया. शारीरिक श्रम को सम्मान एवं उत्पादन कार्य की महत्ता इनके शिक्षा सिद्धान्त का एक अनिवार्य हिस्सा बन गयी.
1914 तक दक्षिणी अफ्रीका में सत्य, अहिंसा, सत्याग्रह, कार्य आधारित शिक्षा जैसे सिद्धान्तों का सफलतापूर्वक प्रतिपादन कर वे भारत लौटे. चम्पारण के किसान हो या अहमदाबाद के मिल मजदूर – वंचितों के पक्ष मे गाँधी जी लगातार संघर्ष करते रहे. शक्तिशाली अंग्रेजी साम्राज्य के खिलाफ वे लगातार सत्य एवं अंहिसा के बल पर लड़ते रहे. इस दौरान इन्होंने सामाजिक सुधार हेतु अनेक कार्यक्रम चलाये, जैसे मद्य निषेध, अश्पृश्यता निवारण आदि.
1937 मे इन्होंने बुनियादी शिक्षा के अपने सिद्धान्त को विस्तृत रूप दिया. गाँधी जी के संघर्षो एवं रचनात्मक कार्यों के परिणामस्वरूप भारत राजनीतिक-सामाजिक दासता की बेड़ियों को तोड़ने में सफल रहा. पर 30 जनवरी, 1948 को अहिंसा का यह पुजारी हिंसा का शिकार हो गया.
इस महामानव को श्रद्धांजलि देते हुए प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइंस्टीन ने सही कहा था ‘‘आनेवाली पीढ़ियाँ इस बात पर शायद ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस का कोई ऐसा आदमी इस धरती पर कभी चला था.’’
महात्मा गाँधी की जीवन दृष्टि
आधुनिक भारतीय जीवन और सोच पर सर्वाधिक प्रभाव महात्मा गाँधी के विचारो का पड़ा, क्योंकि उनका तत्त्व चिंतन केवल वैचारिक न होकर प्रत्यक्ष अनुभूति तथा प्रयोग पर आधारित था. महात्मा गाँधी के विचारो और कार्यों पर भारतीय चिन्तन विशेषत: उपनिषदो का तो प्रभाव पड़ा ही, साथ ही रस्किन, टाल्स्टॉय, थोरो जैसे विद्वानों के सामाजिक-आर्थिक दृष्टिकोण का भी प्रभाव पड़ा. इन सबका समन्वित रूप गाँधी जी का सर्वोदय दर्शन है जिसमें केन्द्र बिन्दु व्यक्ति से बढ़कर समष्टि तक हो गया है. लक्ष्य है आत्मोदय के साथ-साथ सबका उदय.
गाँधी जी पर भारतीय दार्शनिक परम्परा का अत्यधिक प्रभाव था. इस महान परम्परा के दो श्रेष्ठ तत्त्वों- सत्य और अहिंसा को गाँधी जी ने अपने सम्पूर्ण विचारों और कार्यों के केन्द्र मे रखा.
1. सत्य
गाँधी जी ने सत्य को अपनी आस्था के मूल केन्द्र में बताते हुए कहा ‘‘मेरे लिए सत्य सर्वोच्च सिद्धान्त है जिसमें अनेक अन्य सिद्धान्त भी अंतर्भूत हो जाते है. यह सत्यवाणी की सत्यता ही नहीं बल्कि विचारो की सत्यता है और यह केवल हमारी मान्यता सम्बन्धी सत्य ही नहीं, बल्कि परम सत्य, सनातन सिद्धान्त अर्थात् ईश्वर है.’’
महात्मा गाँधी ने सत्य को सवर्था हितकर शक्ति मानते हुए कहा ‘‘मृत्यु के बीच जीवन जागता है, असत्य के बीच सत्य जागता है और अन्धकार के बीच प्रकाश जागता है. अत: मेरा निष्कर्ष है कि ईश्वर जीवन है, सत्य है, ज्योति है, वह प्रेम है, वह परमेश्वर है.’’
गाँधी जी के अनुसार सत्य तथा ईश्वर एक दूसरे के पर्याय हैं. ईश्वर प्राप्ति का साधन अहिंसा है. अहिंसा वह भौतिक आधार है जिसमें अन्य मानवीय गुण विकसित होते है.
2. अहिंसा
महात्मा गाँधी का अहिंसा का विचार अद्वितीय है. उन्होंने अहिंसा के व्यक्तिवादी नैतिक आधार को सामाजिक आधार प्रदान किया. गाँधी जी के अनुसार अहिंसा केवल व्यक्ति का धर्म ही नहीं है, इसकी व्याप्ति राजनीति, अर्थनीति, शिक्षा, विज्ञान आदि सभी क्षेत्रों में होनी चाहिए.
गाँधी जी का मानना था कि न्यूनतम मात्रा में भी सामाजिक न्याय हिंसा से प्राप्त नहीं किया जा सकता. संसार में मानवता का अस्तित्व सत्य एवं अहिंसा के कारण है. अहिंसा का तात्पर्य है सभी प्राणियों के प्रति द्वेष का सम्पूर्ण अभाव. अर्थात् सभी जीवों के प्रति सद्भाव रखने का कार्यान्वित रूप ही अहिंसा है. अहिंसा के पथ पर चलने के लिए अटूट धैर्य और साहस की आवश्यकता है. अहिंसा के भाव से प्रेरित व्यक्ति को सत्ता प्राप्त करने की कोशिश नही करनी पड़ती है, न ही सत्ता प्राप्ति उसका उद्देश्य होता है.
समाज के उपेक्षित तबके को न्याय तभी प्राप्त हो सकता है जब सरकार चलाने वाले भी अहिंसा के सिद्धान्त का पालन करें. गाँधी जी के शब्दों में ‘‘मेरे विचार से जनतंत्र उसे कहते है जिसमें कमजोर से कमजोर को भी वही अधिकार और अवसर मिले जो सबसे अधिक शक्तिशाली को प्राप्त होता है. ऐसा केवल अहिंसा के द्वारा ही संभव है.’’
एक अन्य स्थल पर अहिंसा को शाश्वत प्रेम से जोड़ते हुए महात्मा गाँधी ने कहा ‘‘ अहिंसा का अर्थ है अनंत प्रेम और प्रेम का अर्थ है कष्ट सहने की असीम क्षमता.’’
गाँधी जी के राजनीतिक सिद्धान्त
महात्मा गाँधी ने राजनीति को कोई स्वतंत्र पेशा न मानकर जीवन का एक अंग माना जिस पर जीवन की मान्यताएं और मूल्य लागू होते हैं. मनुष्य का अंतिम लक्ष्य धर्माचरण है और राजनीति भी इसके अनुरूप होनी चाहिए. वस्तुत: राजनीति धर्म की अनुगामिनी है.
महात्मा गाँधी की राजनैतिक कल्पना ‘रामराज्य’ की है. राम तानाशाह नहीं थे, वे समस्त राज्य के प्रतीक थे. वे केवल शासन ही नहीं करते थे वरन् स्वयं शासित भी थे. उनके द्वारा राज्य का परित्याग इसी भावना का परिचायक है. मानव एवं समाज के नैतिक विकास में जब ‘रामराज्य’ की स्थिति आती है तो दण्ड विधान को संचालित करने वाली राज्यसत्ता की आवश्यकता स्वत: ही समाप्त हो जाती है.
गाँधी जी की राजनैतिक धारणाओं का मूल आधार ‘सर्वोदय’ है. ‘सर्वोदय’ का तात्पर्य है प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के विकास का पूरा अवसर मिले. महात्मा गाँधी कहते हैं ‘‘मेरा लक्ष्य समाज में एक ऐसी व्यवस्था को कायम करना है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को अपने उत्थान का समान अवसर एवं सुविधायें प्राप्त हों. ऐसे समाज को सर्वोदय समाज नाम देना उचित होगा.’’
गाँधी जी ने केवल समाज को ही नहीं वरन् व्यक्ति को भी अपने चिंतन का विषय बनाया. उन्होंने जीवन को उसकी सम्पूर्णता में ग्रहण किया है. उनका विश्वास था कि व्यक्ति के पुनर्निर्माण के बिना समाज का पुनर्निर्माण असम्भव है.
महात्मा गाँधी ने सत्ता के अन्यायपूर्ण कार्यों का विरोध हिंसा की जगह अहिंसक ढंग से करने हेतु जिस अमोघ अस्त्र का आविष्कार किया- वह है सत्याग्रह. सत्याग्रह का अर्थ है शान्तिपूर्ण आग्रह. इसका उद्देश्य है असत् राजनीति का अनुसरण करने वाली सरकार या अन्य सम्बन्धित व्यक्ति का हृदय परिवर्तन. सत्याग्रह के द्वारा ही गाँधी जी ने विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली साम्राज्य के विरूद्ध लड़ाई जीती.
गाँधी जी के आर्थिक सिद्धान्त
महात्मा गाँधी भौतिकवाद एवं उपभोक्तावादी संस्कृति के खिलाफ थे. उनके आर्थिक विचार भी सत्य एवं अहिंसा के सिद्धान्तों पर आधारित थे. वे धन एकत्र करने के लिए धनोपार्जन करने के कट्टर विरोधी थे. उनकी दृष्टि मे धनी और निर्धन मे कोई अन्तर नहीं है. जिनके पास आवश्यकता से अधिक धन है उनसे यह आग्रह किया जा सकता है कि वे अपनी सम्पत्ति का प्रयोग उनके लिए भी करें जो निर्धन हैं.
गाँधी जी ने कहा ‘‘मैं चाहता हूँ कि धनी लोग गरीबों के ट्रस्टी बनकर उनके लिए अपने धन का इस्तेमाल करें. क्या आपको पता है कि ‘टाल्स्टॉय फार्म’ की स्थापना करते समय मैंने अपनी सारी सम्पत्ति का त्याग कर दिया था.’’
गाँधी जी ने आर्थिक व्यवस्था के संचालन के लिए कुछ साधनों की सिफारिश की, ये मुख्य साधन हैं चरखा, स्वदेशी तथा खादी. उनका विचार था कि हम सुखी एवं नीति संगत जीवन तभी बिता सकते हैं, जब हम अपनी सांस्कृतिक आस्थाओं के अनुरूप कार्य करें. भारत की मूल संस्कृति ग्रामीण संस्कृति है, अत: इस देश के लिए चरखे का जो महत्व है वह बड़ी मशीनों का नहीं हो सकता है.
भूमंडलीकरण के नाम पर यूरोप और अमेरिका के बढ़ते प्रभाव एवं तृतीय विश्व को नए सिरे से आर्थिक उपनिवेश बनाने के प्रयासों के प्रति वे गंभीर थे. विकास की निरंतर प्रक्रिया की गलती के प्रति वे सचेत थे. यूरोप और अमेरिका में अपनाई गयी आधुनिकीकरण की प्रक्रिया की अपर्याप्तता और दमनकारी चरित्र को पहले ही समझ गये थे.
साथ ही शायद वे एकमात्र नेता थे जिन्होंने इन देशों की अंधी नकल करने के बजाए विकल्प के बारे में सोचा. मानव के भविष्य के लिए विकल्प के रूप में उन्होंने ग्राम-आधारित अर्थतंत्र और कार्य आधारित शिक्षा की कल्पना की थी. गाँधी जी के लिए शिक्षा वास्तव में उनके संपूर्ण राजनीतिक कार्यक्रम का हिस्सा थी.
महात्मा गाँधी का शिक्षा-दर्शन
महात्मा गाँधी औपनिवेशिक शिक्षा व्यवस्था को भारत के लिए हानिकारक मानते थे. गाँधी जी ने अंग्रेजों द्वारा विकसित शिक्षा पद्धति की तीन महत्वपूर्ण कमियाँ बताई-
- यह विदेशी संस्कृति पर आधारित थी, जिसने स्थानीय संस्कृति लगभग समाप्त कर दी थी.
- यह हृदय और हाथ की संस्कृति की उपेक्षा कर पूर्णत: दिमाग तक ही सीमित रहता है.
- विदेशी भाषा के माध्यम से सही शिक्षा संभव नहीं है.
गाँधी जी ने अंग्रेजी शिक्षा को मानसिक गुलामी का कारण बताया. वे कहते है ‘‘अंग्रेजी शिक्षा लेकर हमने अपने राष्ट्र को गुलाम बनाया है. अंग्रेजी शिक्षा से दंभ, राग, जुल्म वगैरह बढ़े है.’’
अत: गाँधी जी ने असहयोग आंदोलन के दौरान सरकारी शैक्षिक संस्थाओ के बहिष्कार का आह्वान किया. औपनिवेशिक शिक्षा की जगह उन्होंने एक राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली के विकास का प्रयास किया जो मानव श्रम को उसका उचित स्थान देते हुए संवेदनशील हृदय तथा मस्तिष्क का समन्वित विकास कर सके.
शिक्षा से अभिप्राय
महात्मा गाँधी ने शिक्षा को परिभाषित करते हुए कहा ‘‘शिक्षा से मेरा अभिप्राय बालक तथा मनुष्य मे निहित शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक श्रेष्ठतम शक्तियों का अधिकतम विकास है.’’ गाँधी जी भारतीय जीवन को सुखी-सम्पन्न बनाना चाहते थे. वे व्यक्ति, समाज और देश की राजनैतिक, आर्थिक एवं सामाजिक दासता का विरोध कर स्वतंत्रता एवं स्वावलम्बन के आकांक्षी थे. अत: शिक्षा को वे सार्वभौमिक रूप मे प्रसारित करना चाहते थे.
उनका मंतव्य था कि साक्षरता न तो शिक्षा का अन्त है न प्रारम्भ. यह मात्र एक साधन है, जिसके द्वारा स्त्री एवं पुरूष को शिक्षित किया जा सकता है.
महात्मा गाँधी सच्ची शिक्षा उसे मानते थे जो बालक की आध्यात्मिक, मानसिक और शारीरिक शक्तियों को विकसित करती है. वे चाहते थे कि शिक्षा द्वारा मनुष्य के शरीर, मस्तिष्क, हृदय तथा आत्मा की सारी शक्तियाँ पूर्ण रूप से विकसित हो. इन शक्तियों के विकास में समग्र एवं संतुलन की दृष्टि होनी चाहिए. नए भारत का निर्माण श्रम के प्रति निष्ठा एवं संतुलित दृष्टिकोण वाले व्यक्तियों से ही हो सकता है.
गाँधी जी ने शारीरिक श्रम की नैतिकता पर आधारित शिक्षा दर्शन का विकास किया. इसे उपनिवेशवाद के आर्थिक और सांस्कृतिक प्रभुत्ववादी शोषण के विकल्प के रूप में विकसित किया गया. गाँधी जी स्वत: स्फूर्त संवेदी तरीको से श्रमिकों की मानसिक दुनिया से जुड़े हुए थे.
उन्होंने अपना शिक्षा दर्शन ग्रामीण समाज में श्रमिकों के बच्चों की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं की लय के साथ विकसित किया. शारीरिक श्रम पर उनका जोर अत्यधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि श्रमिकों के पास यही एक पूंजी होती है. औद्योगीकरण की प्रक्रिया में श्रम को विमानवीय किया जाता है और उसे खरीद बिक्री की वस्तु बना दिया जाता है. गाँधी जी की दृष्टि में आधुनिक मशीनी सभ्यता अनैतिक थी और अन्तत: विनाश की ओर ले जाएगी.
विनाश की इस प्रक्रिया को जड़ से समाप्त करने के एवं भारत के नवनिर्माण हेतु उन्होंने बुनियादी शिक्षा के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया. यह जनता के स्वराज हासिल करने के लिए जनता की शिक्षा का राष्ट्रीय कार्यक्रम था.
बुनियादी शिक्षा या नई तालीम का सिद्धान्त
महात्मा गाँधी ने अपने शिक्षा-सिद्धान्त का विकास दक्षिण अफ्रीका में प्रवास के दौरान किया. सर्वोदय के सिद्धान्त के अनुरूप उन्होंने भारतीयों के सहयोगपूर्ण जीवन के लिए टाल्स्टॉय आश्रम की स्थापना की. बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था गाँधी जी ने स्वयं की.
वे आत्मकथा में लिखते है कि अक्षर ज्ञान के लिए अधिक से अधिक तीन घंटे रखे गए. उनका मातृभाषा के माध्यम से ही शिक्षा देने का आग्रह था. वे शारीरिक श्रम के महत्व पर प्रकाश डालते हुए टाल्स्टॉय आश्रम की शिक्षा व्यवस्था के संदर्भ मे कहते हैं, ‘‘हमलोगों ने यह सुनिश्चित किया है कि सबको कोई न कोई धंधा सिखाया जाए. इसके लिए मि० केलनबैक चप्पल बनाना सीख आए, उनसे मैंने सीखकर बालको को सिखाया.
आश्रम में बढ़ई का काम जानने वाला एक साथी था. इसलिए यह काम भी कुछ हद तक बच्चों को सिखाया जाता था. रसोई का काम तो लगभग सभी बालक सीख गए थे.’’
1937 से जब प्रान्तों मे कांग्रेस की सरकार बनी तो शिक्षा का भार गाँधी जी एवं उनके शिष्यों के कंधो पर आया. मद्य निषेध पर गाँधी जी का जोर होने के कारण शिक्षा के लिए पर्याप्त पैसे जुटाने में कांग्रेसी सरकार असफल हो रही थी.
टाल्स्टॉय आश्रम के अनुभव के आधार पर महात्मा गाँधी ने शिक्षा को स्वावलंबी बनाने का विकल्प सामने रखा. इनके द्वारा प्रतिपादित बुनियादी शिक्षण की प्रमुख विशेषतांए थी-
- 6 से 14 वर्ष तक के उम्र के सभी बच्चों एवं बच्चियों को अनिवार्य एवं नि:शुल्क शिक्षा.
- पूरी शिक्षण व्यवस्था के केन्द्र मे कोई शिल्प या हस्त उद्योग हो.
- शिक्षण का माध्यम बच्चे की मातृभाषा हो.
- शिक्षा स्वावलंबी हो- यानि खर्च का वहन अध्यापकों एवं छात्रों द्वारा किए गए उत्पादन कार्यों से किया जाए.
- हिन्दी या हिन्दुस्तानी की शिक्षा पूरे भारतवर्ष में अनिवार्य हो.
स्पष्टत: गाँधी जी लाभ प्रदान करने वाले उत्पादक कार्य के जरिए शिक्षा देना चाहते थे. उनके अनुसार मुख्य प्रश्न आत्म-संतुष्टि का था. शारीरिक परिश्रम के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए महात्मा गाँधी ने कहा ‘‘ शारीरिक कार्य के प्रशिक्षण का उद्देश्य विद्यालय म्युजियम के लिए वस्तुंए बनाना या खिलौने बनाना नहीं होगा, जिसका कोई मूल्य न हो.
इसका उद्देश्य ऐसी वस्तुंए बनाना होना चाहिए जो बेची जा सकें. बच्चे इसे फैक्टरी की शुरूआती दिनों की तरह नहीं करेंगे, जब वे चाबुक के डर से काम करते थे. वे इसलिए काम करेंगे क्योंकि इससे उनका मनोरंजन होता है और बौद्धिक प्रेरणा मिलती है.’’
शिक्षा का उद्देश्य
1921 में यंग इंडिया मे लिखे गए एक लेख मे वे अपनी कल्पना की शिक्षा के संदर्भ मे कहते है ‘‘ऐसी शिक्षा तीन उद्देश्य पूरा करेगी, शिक्षा को आत्मनिर्भर बनाना, बच्चे के शरीर एवं दिमाग दोनों का ही विकास करना और विदेशी धागे और कपड़ों के बहिष्कार का रास्ता खोलना, इस प्रकार बच्चों को आत्मनिर्भर एवं स्वतंत्र बनने के लिए तैयार करना.’’
वे कहते थे कि, ऐसी शालाओं मे बच्चों का खेल हल जोतना होगा. ग्रामीण हस्तशिल्प के जरिए विद्यार्थियों को शिक्षित कर वे उन्हें दूरगामी अहिंसक सामाजिक क्रांति का वाहक बनाना चाहते थे.
गाँधी जी ने शिक्षा के व्यापक उद्देश्य निश्चित किये. इन्हें दो भागों में वर्गीकश्त किया जा सकता है- वैयक्तिक उद्देश्य एवं सामाजिक उद्देश्य.
1. वैयक्तिक उद्देश्य
(अ) चरित्र निर्माण- महात्मा गाँधी ने चरित्र निर्माण को शिक्षा का उच्चतम लक्ष्य माना. उनके अनुसार अगर विद्यार्थियों के चरित्र की नींव मजबूत पड़ जाए तो अन्य सब बातें स्वत: सीखी जा सकती है.
(ब) सर्वांगीण विकास- महात्मा गाँधी केवल बौद्धिक विकास को विकलांगता मानते थे. उन्होंने सर्वांगीण विकास के लिए तीन ‘एच’ की शिक्षा देना आवश्यक माना- हेड (मस्तिष्क), हैण्ड (हाथ) और हार्ट (हृदय). इन तीनों की समन्वित शिक्षा ही व्यक्ति को उच्चतम विकास तक ले जा सकती है.
2. सामाजिक उद्देश्य
(अ) स्वावलंबी नागरिक का निर्माण- महात्मा गाँधी देश के हर व्यक्ति को शारीरिक श्रम द्वारा उत्पादन कार्य करते हुए देखना चाहते थे. मानव श्रम की शिक्षा देकर वे कुशल नागरिकों का निर्माण करना चाहते थे.
(ब) सर्वोदय समाज का विकास- गाँधी जी समाज के सभी व्यक्तियों को विकास का अवसर देने की वकालत करते थे. समाज के निर्धनतम व्यक्ति का विकास ही महात्मा गाँधी का सपना था. वे इस क्रांतिकारी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए शिक्षा को शक्तिशाली साधन मानते थे.
(स) ग्राम स्वराज की स्थापना- गाँधी जी केवल अंग्रेजी दासता से ही मुक्ति नहीं चाहते थे. वरन् वे मानव का मानव के द्वारा शोषण की हर संभावना को समाप्त करना चाहते थे. इसके लिए वे ग्राम स्वराज की स्थापना करना चाहते थे. इस प्रकार महात्मा गाँधी शिक्षा के द्वारा न केवल व्यक्ति वरन् समाज एवं राष्ट्र की समस्त बुराइयों को समाप्त करना चाहते थे.
शिक्षा का पाठ्यक्रम
अपने शिक्षा-सिद्धान्त के अनुरूप ही महात्मा गाँधी ने बुनियादी शिक्षा के पाठ्यक्रम का निर्माण किया. बच्चे, समाज और देश के आवश्यकता को देखते हुए उन्होंने क्रियाशील पाठ्यक्रम का निर्माण किया. अपने द्वारा प्रस्तावित नयी तालीम या बुनियादी शिक्षा के लिए उन्होंने निम्नलिखित विषयों को अपनी पाठ्यचर्चा मे स्थान दिया-
- शिल्प या हस्त उद्योग (कताई-बुनाई, बागवानी, कृषि, काष्ठ कला, चर्मकार्य, मिट्टी का काम आदि मे से कोई एक)
- मातृभाषा
- हिन्दी या हिन्दुस्तानी
- व्यवहारिक गणित ( अंकगणित, बीजगणित, रेखागणित, नापतौल आदि)
- सामाजिक विषय (समाज का अध्ययन, नागरिक शास्त्र, इतिहास, भूगोल आदि)
- सामान्य विज्ञान (बागवानी या वनस्पति विज्ञान, प्राणि विज्ञान, रसायन एवं भौतिक विज्ञान)
- संगीत एवं चित्रकला 8. स्वास्थ्य विज्ञान (सफाई, व्यायाम एवं खेलकूद)
- आचरण शिक्षा (नैतिक शिक्षा, समाज सेवा आदि)
यहाँ यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि गाँधी जी के पाठ्यक्रम में क्राफ्ट(शिल्प) और शिक्षा नहीं है वरन् यह शिल्प के माध्यम से शिक्षा है. इस तरह के पाठ्यक्रम से बच्चे के मस्तिष्क, हृदय और हाथ का समन्वित विकास होना संभव है.
शिक्षण विधि
महात्मा गाँधी ज्ञान की अखंडता पर विश्वास करते थे. वे केवल सुविधा की दृष्टि से ज्ञान को शाखाओं में विभक्त करते थे. महात्मा गाँधी ने बच्चों को समन्वित रूप से शिक्षा देने के लिए ‘‘समन्वय विधि’’ या ‘‘समवाय विधि’’ का प्रयोग किया.
इस विधि के केन्द्र मे किसी शिल्प या उद्योग या कार्यकलाप को रखा. अन्य विषयों को इससे जोड़कर पढ़ाया जाना चाहिए. जैसे अगर कताई-सिलाई सिखाते हुए विभिन्न सभ्यताओं में उपयोग किए जाने वाले वस्त्रों का ज्ञान देकर इतिहास का व्यवहारिक ज्ञान दिया जा सकता है.
इसी तरह से कच्चे माल की खरीद मे कितने पैसे लगे और तैयार किए समान को बेचने के बाद कितना लाभ हुआ, इसकी गणना अगर छात्र करें तो उन्हें गणित का जीवन मे उपयोग करना आ जायेगा.
समन्वय विधि के अन्य दो महत्वपूर्ण आयाम है. प्राकृतिक वातावरण से समन्वय एवं सामाजिक वातावरण से समन्वय.
प्राकृतिक वातावरण से समन्वय से तात्पर्य है प्राकृतिक परिवेश अथवा काल परिवर्तन से होने वाले प्राकृतिक परिवर्तनों को केन्द्र बिन्दु मानकर विभिन्न विषयों का समन्वय. उदाहरण स्वरूप जाड़े में गेहूँ बुआई एवं ग्रीष्म ऋतु में कटाई से गेहूँ के उत्पादन की प्रक्रिया, भारत और विश्व में इसके उत्पादन क्षेत्र, गेहूँ के लिए मिट्टी, खाद, पानी, की आवश्यकता आदि कई पक्षों की शिक्षा दी जाती है.
सामाजिक वातावरण से समन्वय के अन्र्तगत सामाजिक परिवेश तथा समय-समय पर आने वाले सामाजिक, धार्मिक एवं राष्ट्रीय पर्व-त्योहार तथा अन्य सांस्कृतिक आयोजन आते हैं. इनके माध्यम से भी भाषा, गणित, कला इत्यादि का प्रभावशाली अध्ययन कराया जाता है.
शिक्षा का माध्यम
शिक्षा के माध्यम के रूप मे महात्मा गाँधी मातृभाषा के पक्ष मे थे. वे अंग्रेजी को शोषण का एक माध्यम मानते थे, जो अभिजात्य वर्ग और जन सामान्य के मध्य की दूरी को बढ़ाता था. इसके लिए वे माता-पिता को भी दोषी मानते थे.
उन्होंने आत्मकथा में कहा ‘‘जो हिन्दुस्तानी माता-पिता अपने बच्चों को बचपन से ही अंग्रेजी बोलने वाला बना देते है वे उनके और देश के साथ द्रोह करते हैं. इससे बालक अपने देश की धार्मिक और राजनीतिक विरासत से वंचित रहता है. और उस हद तक वह देश की तथा संसार की सेवा के लिए कम योग्य बनता है.
वे अंग्रेजी भाषा के किस हद तक विरोधी थे, यह उनके निम्नलिखित घोषणा से स्पष्ट होता है- ‘‘मैं यदि तानाशाह होता तो आज ही विदेशी भाषा में शिक्षा दिया जाना बन्द कर देता. जो आनाकानी करते उन्हें बर्खास्त कर देता. मैं पाठ्य पुस्तकों के तैयार किये जाने का इन्तजार न करता.’’
महात्मा गाँधी किताबी पढ़ाई, परीक्षा की ओर झुकाव और रटने के विरूद्ध थे. उन्होंने बहुत किताबें न रखने की सलाह दी. उनका कहना था कि भारत जैसे गरीब देश में किताबें सोच समझ कर ही रखवानी चाहिए और उनकी संख्या कम होनी चाहिए. वे पाठ्य पुस्तको से अधिक महत्वपूर्ण अध्यापक को मानते थे. उनका कहना था ‘‘मेरा ख्याल है शिक्षक ही विद्यार्थियों की पाठ्य पुस्तक है.’’
(i) गाँधी जी की छात्र सकंल्पना- गाँधी जी हर बालक-बालिका में परमात्मा का निवास मानते थे. सभी बालकों की आत्मा समान है पर व्यक्तित्व में भिन्नता हो सकती है. गाँधी जी चौदह वर्ष तक के उम्र के सभी बच्चों को नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा देने के पक्ष मे थे. वे शिक्षा को बच्चों का मूलभूत अधिकार मानते थे.
गाँधी जी की दृष्टि में सुचारू रूप से अध्ययन करने के लिए पवित्र जीवन आवश्यक है. वे छात्रों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं ‘‘तुम्हारी शिक्षा सर्वथा बेकार है, यदि उसका निर्माण सत्य और पवित्रता की नींव पर नहीं हुआ है. यदि तुम अपने जीवन की पवित्रता के बारे में सतर्क नही हुए तो सब व्यर्थ है, चाहे तुम महान विद्वान ही क्यों न हो जाओ.’’
(ii) गाँधी जी की दृष्टि में अध्यापक- महात्मा गाँधी विद्याथिर्यों के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आत्मिक विकास में शिक्षा की भूमिका को अत्यन्त महत्वपूर्ण मानते थे. वे शिक्षकों के आचरण को शिष्यों के लिए अनुकरण योग्य होने पर हमेशा जोर देते थे.
वे अध्यापकों के कर्त्तव्य के संदर्भ मे कहते है ‘‘आत्मिक शिक्षा अध्यापक किताबों के द्वारा नहीं, बल्कि अपने आचरण के द्वारा ही दे सकता है. मैं स्वंय झूठ बोलूँ और अपने शिष्यों को सच्चा बनाने का प्रयत्न करूँ, तो वह व्यर्थ ही होगा. डरपोक शिक्षक शिष्यों को वीरता नहीं सीखा सकता. व्यभिचारी शिक्षक शिष्यों को संयम किस प्रकार सिखायेगा? अध्यापकों को अपने लिए नहीं तो कम से कम शिष्यों के लिए अच्छा बना रहना चाहिए.’’
गाँधी जी विद्याथ्री के दोषों कें लिए बहुत हद तक शिक्षक को जिम्मेदार मानते हैं. टाल्स्टॉय आश्रम में दो विद्यार्थियों की अनुशासनहीनता पर स्वंय उन्होंने उपवास कर आश्रम के सम्पूर्ण वातावरण को शुद्ध कर दिया. साथ ही महात्मा गाँधी अध्यापक एवं छात्र में अन्तर नहीं मानते थे.
टाल्स्टॉय आश्रम के संदर्भ मे उनका कहना है ‘‘टाल्स्टॉय आश्रम में शुरू से ही यह रिवाज डाला गया था कि जिस काम को हम शिक्षक न करें, वह बालकों से न कराया जाय, और बालक जिस काम मे लगे हों, उसमें उनके साथ काम करने वाला एक शिक्षक हमेशा रहें.’’ इसलिए बालकों ने जो कुछ सीखा, उमंग के साथ सीखा.
गाँधी जी ‘वेतन’ तथा ‘अध्यापन कार्य’ को एक दूसरे के साथ मिलाना अनुचित मानते थे. शिक्षक केवल वेतन के लिए काम नहीं करता है. अगर वह अध्यापन को वेतन के साथ जोड़ दे तो वह अपने कर्त्तव्य को पूरा नही कर सकता है. गाँधी जी के अनुसार अध्यापन कार्य में सबसे अधिक आवश्यक है समर्पण की भावना.
अनुशासन
महात्मा गाँधी ने अनुशासन सम्बन्धी अपने विचारों का विकास निम्नलिखित धारणाओं के आधार पर किया-
- बच्चे जन्मजात बुरे नही होते, वातावरण उन्हें अच्छा या बुरा बनाता है.
- प्राकृतिक एवं सामाजिक परिवेश को स्वच्छ एवं सहयोग पर आधारित कर अनुशासन को बनाये रखा जा सकता है.
- विद्यार्थियों के आचरण को सर्वाधिक प्रभावित अध्यापक का आचरण करता है.
- अनैतिक कार्य भी शारीरिक रोग के समान व्याधि है, इसे दूर करने के लिए शिक्षक की सहानुभूति आवश्यक है, दण्ड नहीं.
गाँधी जी आत्म अनुशासन पर जोर देते थे. वे छात्रों को शारीरिक दण्ड देने के प्रबल विरोधी थे. अध्यापकों का उच्च चरित्र और पवित्र आचरण छात्रों को अनुशासन का पाठ पढ़ाने मे सर्वाधिक प्रभावशाली है.
बुनियादी शिक्षा की असफलता के कारण
बुनियादी शिक्षा का कार्यक्रम सामान्यतः असफल रहा. प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री जे० पी० नायक (1998) ने बुनियादी शिक्षा की असंतोषजनक प्रगति के निम्नलिखित कारण बताए-
- इसका सर्वप्रमुख कारण सत्ताधारी वर्ग द्वारा बुनियादी शिक्षा को अस्वीकार किया जाना है. इन वर्गों मे शारीरिक श्रम के प्रति उदासीनता की परम्परा रही है. उनका आकर्षण पुस्तक आधारित शिक्षा पर रहा है. इस वर्ग ने स्कूल के पाठ्यक्रम में शारीरिक श्रम और उत्पादक कार्य आरम्भ करने के विरोध मे सामाजिक और मानसिक दबाव डाला.
- जनसाधारण द्वारा भी बेसिक शिक्षा प्रणाली की आलोचना की गयी. आम जनता साधारणत: उच्च एवं मध्य वर्ग का अनुकरण करना चाहती है. वे इस बात से असहमत थे कि शहरी मध्य वर्ग को पुस्तक केन्द्रित अंगे्रजी शिक्षा दी जाये और ग्रामीण बच्चों को शिल्प आधारित शिक्षा. वे इसे दोयम दर्जे की शिक्षा मानते थे. उन्होंने ने भी बुनियादी शिक्षा को अस्वीकार कर दिया.
- इसके साथ अन्य तकनीकी समस्यांए भी थी. बुनियादी विद्यालयों मे शिल्प की शिक्षा दी जाती थी. इसके लिए कच्चे माल की आपूर्ति में कठिनाई होती थी. कृषि के लिए भूमि चाहिए थी. साथ ही शिल्प सिखाने के लिए प्रशिक्षित अध्यापकों की सर्वथा कमी थी. साथ ही तैयार उत्पादों को बेचने की सन्तोषजनक व्यवस्था नहीं की जा सकी.
- छात्रों की संख्या मे द्रुतगति से विस्तार की एक अन्य प्रमुख समस्या थी. यदि यह प्रयोग प्रारम्भ में सीमित पैमाने पर होता तो शायद सफल हो सकता था. अनेक स्कूलों मे जहाँ सही प्रकार के अध्यापक उपलब्ध हुए और आवश्यक सुविधांए प्रदान की गयी, यह कार्यक्रम सफल भी हुआ, परन्तु कार्यक्रम के बड़े स्तर पर विस्तार के लिए आवश्यक संसाधन उपलब्ध नहीं थे.
- वित्त की दृष्टि से बुनियादी विद्यालयों का अनुभव मिश्रित रहा. इसके कारण प्राथमिक शिक्षा के लिए सरकारी निवेश में किसी प्रकार की कमी नहीं हुई. अत: स्वतंत्र भारत मे भी सरकारों ने इस कार्यक्रम मे विशेष रूचि नहीं दिखलाई.
इस प्रकार अभिजात वर्ग के विरोध के कारण बुनियादी शिक्षा का क्रांतिकारी प्रयोग असफल रहा.