हमारे मन में कई सवाल उठते है. ये दुनिया क्या है, कितनी बड़ी है और कैसी है? इस सवाल का समाधान ब्रह्माण्ड का समझ कर सकता है. लेकिन ब्रह्माण्ड को समझने के लिए ब्लैक होल और तारों के निर्माण को समझना जरुरी है. तो आइये हम इस अनंत ज्ञान का शुरुआत करते है.
ब्रह्माण्ड क्या है (What is Universe in Hindi)?
संभवतः ब्लैक होल और गुरुत्वाकर्षण के कारण ब्रह्माण्ड का निर्माण हुआ है. स्टीफन हॉकिंग के भी कुछ ऐसे ही विचार है.
हम, रात में आकाश में असंख्य तारों को टिमटिमाते देखते है. इनमें एक चन्द्रमा काफी बड़ा दिखता है. दिन में हम सूरज को देखते है. सौर-प्रकाश हमें ऊष्मा व ऊर्जा प्रदान करती है. इसके अलावा भी आकाश में अनेक खगोलीय पिंड है, जो काफी दूर होने के कारण हमें कभी दिखाई ही नहीं देते. इन सभी पिंडों से मिलकर हमारा ब्रह्माण्ड बनता है. यह अनंत है.
इसी ब्रह्माण्ड में हमारा सौरमंडल व इसका आकाशगंगा, दुग्धमेखला (Milkiway) स्थित है. दुग्ध मेखला खुले आकाश में एक चौड़ी पट्टी पर सफ़ेद रंग के चमकदार पथ पर फैली हुई है. हमारे ब्रह्माण्ड में करोड़ो या असंख्य आकाशगंगाएं है. यदि पृथ्वी के कारक कण को एक पृथ्वी माना जाएं, तो हमारा सौरमंडल एक ब्रह्माण्ड माना जा सकता है. अनंतता के कारण ब्रह्माण्ड इससे भी बड़ा हो सकता है.
ब्रह्माण्ड के घटक (Components Of Universe in Hindi)
हमारे ब्रह्माण्ड में सभी चन्द्रमा, ग्रह, तारे, गैलेक्सियाँ, खगोलीय पिण्ड, गैलेक्सियों के बीच के अंतरिक्ष की अंतर्वस्तु, अपरमाणविक कण, ब्लैक होल और सारा पदार्थ और सारी ऊर्जा सम्मिलित है. पूरे दृश्यमान ब्रह्मांड का केवल 5% ही सभी पदार्थों से बना है. शेष 95% डार्क मैटर और डार्क एनर्जी है. ब्रह्माण्ड का निर्माण बिग-बैंग सिद्धांत से समझा जा सकता है.
हम जो ब्रह्मांड देखते हैं, वह कणों पर लगने वाले चार मौलिक बलों के बीच विभिन्न अंतःक्रियाओं का परिणाम है.
ये है –
- मज़बूत परमाणु बल
- कमज़ोर परमाणु बल
- विद्युत चुंबकीय बल
- गुरुत्वाकर्षण
बिग-बैंग का सिद्धांत (The theory of Big-Bang in Hindi)
वर्तमान में, ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का सर्वमान्य सिद्धांत बिग-बैंग है. इस सिद्धांत के अनुसार, आज से 13 करोड़ वर्ष पूर्व हमारा ब्रह्माण्ड एक सघन व गर्म पिंड था. उच्च तापमान के कारण इसमें विस्फोट हो गया और यह टुकड़ों में बंट गया. विस्फोट से पैदा हुई ऊर्जा से ये पिंड एक-दूसरे से दूर खिसकने लगे. ये फैलाव आज भी जारी है. सापेक्षता के सामान्य सिद्धांत से इस फैलाव को समझा जा सकता है. इसे ही महाविस्फोट या बिग-बैंग का सिद्धांत कहा जाता है.
महाविस्फोट के 3 लाख साल बाद धूलकण, हाइड्रोजन व हीलियम अस्तित्व में आने लगे. इससे विशाल बादलों का जन्म हुआ. ये बादल निहारिकाएं कहलाए. इस दौरान ब्रह्माण्ड प्रोटोन व फोटोन में भी बदला. ये निहारिकाएं गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव में सिकुड़कर तारों और आकाशगंगाओं का निर्माण करने लगे. तारों के साथ ही, ग्रह, उपग्रह व अन्य आकाशीय पिंडों का निर्माण शुरू हो गया.
बिग बैंग सिद्धांत भौतिकविद जॉर्ज लेमैत्रे ने 1927 में दिया है. लैमेंन्तेयर एक रोमन कैथोलिक पादरी और वैज्ञानिक थे. यह सिद्धान्त अल्बर्ट आइंसटीन के प्रसिद्ध सामान्य सापेक्षवाद के सिद्धांत पर आधारित है. 1965 में ब्रह्मांडीय सूक्ष्म विकिरण के खोज के बाद बिग-बैंग की पुष्टि हो गई. तभी से यह सिद्धांत सर्वमान्य है.
ब्लैक होल और ब्रह्माण्ड (Black Hole and Universe in Hindi)
स्टीफन हॉकिंग का मानना है कि ब्रह्माण्ड में विस्फोट से पहले यह ब्लैक होल के रूप में ही एक जगह केंद्रित था. इस विशालकाय ब्लैक होल में विस्फोट से ब्रह्माण्ड का निर्माण हुआ. इसलिए, ब्लैक होल को ब्रह्माण्ड का निर्माणकर्ता माना जा सकता है.
ब्लैक होल की खोज आधुनिक विज्ञान का एक चमत्कार है. ब्लैक होल से जुड़े सिद्धांतों ने ही पाखण्ड जैसे विचारों का नाश करने में योगदान दिया. ब्लैक होल के सिद्धांत से भी ब्रह्माण्ड निर्माण की प्रक्रिया समझना काफी आसान हो गया. इसलिए, ब्लैक होल के बिना हम आज भी मध्यकालीन विज्ञान के युग में होते.
तारें क्या है? (What is a Star in Hindi)
एक तारा, वह खगोलीय पिंड होता है जो मुख्यतः हाइड्रोजन व हीलियम से बना हो. इसमें ऑक्सीजन, कार्बन व अन्य तत्त्व भी थोड़े-बहुत होते है. इसके केंद्र में सामान्यतः नाभिकीय संलयन की परमाण्विक अभिक्रिया होती है, इस वजह से यह प्रकाश व ऊर्जा फैलता है. एक युवा तारे में हाइड्रोजन की अधिकता होती है. हमारा सूर्य भी एक युवा तारा है, जिसने अपने जीवनकाल का आधा से थोड़ा कम समय पुरा कर लिया है.
अधिकाशं तारों का वायुमंडल सूर्य जैसा है. लेकिन, सभी तारों का वायुमंडल बिलकुल एक जैसा नहीं है. इनमें कार्बन तथा ऑक्सीजन की मात्राओं में अंतर पाया गया है. सूर्य में अभी तक 61 तत्व मिल चुके है.
ब्रह्माण्ड के प्रमुख तारें (Important Stars of Universe in Hindi)
हमारे ब्रह्माण्ड में स्थित कुछ मुख्य तारे है- ध्रुव तारा, सूर्य, साइरस, प्रॉक्सिमा सेंचुरी, अल्फा सेंचुरी, बीटा सेंचुरी, स्पाइका, रेगुलर, कैपेला, वेगा आदि.
प्रॉक्सिमा सेंचुरी (Proxima Centauri) सूर्य के बाद पृथ्वी के सबसे निकट का तारा है. यह पृथ्वी से लगभग 4.22 प्रकाश वर्ष दूर है. वहीं, अल्फा सेंचुरी पृथ्वी से करीब 4.3 प्रकाश वर्ष दूर है.
अंतरिक्ष में अलग-अलग दुरी पर अरबों तारे मौजूद हैं. इनके समूहों को आकाशगंगा या गैलेक्सी (Galaxies) कहते हैं. इनके बिच की दुरी अत्यधिक होती है. इसलिए इसे मापने के लिए विशेष खगोलीय इकाई का इस्तेमाल किया जाता है. मुख्य खगोलीय इकाई (Astronomical Units) है- प्रकाश वर्ष; और पारसेक.
पारसेक (Parsec in Hindi)
एक पारसेक (चिन्ह-pc) दुरी की खगोलीय इकाई है. यह लगभग 30 ट्रिलियन किलोमीटर के बराबर होती है. एक पारसेक 3.26 प्रकाश वर्ष (Light Years) के बराबर होता है.
प्रकाश वर्ष (Light year in Hindi)
यह दूरी मापने की इकाई है. प्रकाश द्वारा अंतरिक्ष में एक वर्ष में चलकर पार की गई दूरी प्रकाश वर्ष कहलाती है. प्रकाश 3,00,000 किमी प्रति सेकेण्ड की गति से चलता है. इसलिए इसके द्वारा एक साल में तय की गई दुरी लगभग 946 खरब (9:46 ट्रिलियन) किलोमीटर है. दो तारों के मध्य दूरी, आकाशगंगा का आकार, दो आकाशगंगाओं के मध्य दूरी आदि दूरियाँ मापने में इसका प्रयोग करते हैं. हम इसे ब्रह्माण्ड में दुरी मापने का इकाई कह सकते है.
हमारी आकाशगंगा दुग्धमेखला काफी विशाल है. प्रकाश की गति से चलने पर इसके एक सिरे से दूसरे सिरे तक जाने में एक लाख वर्ष लगेंगे.इससे ब्रह्माण्ड की विशालता का भी पता चलता है.प्रकाश की गति से सौर मण्डल पार करने में 24 घण्टे लगते हैं.
तारों का जीवन-चक्र (The Life-Cycles of Stars in Hindi)
हमारे ब्रह्माण्ड में असंख्य तारे है. तारों के बिना हमारा ब्रह्माण्ड ऊर्जाविहीन व अत्यधिक शीतल हो जाएगी. इसलिए तारों का ऊर्जा जीवन के लिए महत्वपूर्ण हो जाता है. हमारे ब्रह्माण्ड के अधिकाँश तारों का निर्माण बिग-बैंग के समय हुई है. हालाँकि, सूर्य जैसे कई तारों का निर्माण बाद में हुआ. तारों का निर्माण व मृत्यु इसके द्रव्यमान समेत कई चीजों पर निर्भर होती है. सामान्यतः इसके सात चरण होते है. …तो आइये जानते है इसका जीवन-क्रम:-
स्टेलर तारा और निहारिका क्या है? (Stellar Star in Hindi)
यह किसी तारें के निर्माण का शुरुआत होता है. इस समय हाइड्रोजन व हीलियम एक जगह जमा होकर बादलों का निर्माण करते है. इसे स्टेलर नेबुला (तारकीय निहारिका) भी कहा जाता हैं. आगे चलकर इसी से आरंभिक तारों का निर्माण होता है.
प्रोटोस्टार का निर्माण कैसे होता है? (Formation of Prostar in Hindi)
हाइड्रोजन व हीलियम गुरुत्वाकर्षण के कारण गोल होते चले जाते है. इससे तारों के निर्माण का औपचारिक आरम्भ होता है. आरंभिक गैसीय गोलाकार तारों को प्रोटोस्टार (Protostar) कहा जाता है. इसमें प्रकाश नहीं होता है. प्रोटोस्टार विकसित होकर पूर्ण तारा बनता है. इसके बाद इससे संलयन द्वारा प्रकाश निकलता हैं.
दरअसल, निहारिका का घूर्णन एक डिस्क की भाँती होता है. इसका द्रव्यमान केंद्र में केंद्रित होता है. इस वजह से प्रोटोस्टार का केंद्र सघन होता है. इसे भ्रूण तारा (Embryo star) भी कहा जाता है. हमारे सौर मंडल के निर्माण प्रक्रिया से इसे आसानी से समझा जा सकता है.
हमारा सूर्य भी एक युवा तारा है. यह अपनी आकाशगंगा में लगभग 100 अरब तारों में से एक है. लेकिन इसका जन्म बिग-बैंग के साथ नहीं हुआ है. इसका जन्म आज से करीब 5 अरब वर्ष पूर्व हुआ था. यह मंदाकिनी आकाशगंगा की बीच की भुजा में स्थित है. लेकिन, इसका जन्म बाहरी भुजाओं में हुआ था.
सूर्य के चारों ओर छोटे-छोटे आकाशीय पिण्डों और गैसीय बादलों का संचयन से ग्रहों, उपग्रहों, क्षुद्रग्रहों पुच्छल तारों आदि का निर्माण हुआ है. सौरमंडल के निर्माण की यह प्रक्रिया सूर्य के निर्माण के कुछ समय बाद ही हुआ.
टी-सौरी फेज क्या है? (T-Tauri Phase in Hindi)
कुछ समय बाद तारों में और भी अधिक सिकुड़न को रोक देती है. साथ ही, गुरुत्वाकर्षण से कोई भी नया पिंड इससे नहीं जुड़ता. इस स्थिति को टी-सौरी फेज (T-Tauri Phase) कहा जाता है. इस दौर का जीवनकाल 100 मिलियन वर्षों का होता है. इस समय तारें अपने पूर्ण आकार को ग्रहण कर लेते है.
मुख्य जीवनकाल व यौवन (Main Sequence Stage of Stars in Hindi)
आरंभिक तारों में गुरुत्वाकर्षण से सिकुड़न होने लगता है. इस वजह से इसके हाइड्रोजन परमाणु आपस में टकराने लगते है. इससे प्रोटोस्टार का तापमान बढ़ने लगता है. जब इसका तापमान 10 बिलियन डिग्री सेल्सियस हो जाता है तो हाइड्रोजन के चार परमाणु संलयित होकर हीलियम का एक अणु बनाते है. इस तरह आरंभिक तारों में संलयन होने लगता है.
तापमान बढ़ने के साथ-साथ संलयन की गति भी बढ़ने लगती है. इससे संलयन के लिए जरुरी ऊर्जा से कई गुना अधिक ऊर्जा उत्पन्न हो जाती है. यह अतिरिक्त अपार ऊर्जा प्रकाश के रूप में अंतरिक्ष में फ़ैल जाती है. इसे तारों के जीवन का मुख्य क्रम (Main Sequence) भी कहा जाता हैं.
लाल दानव तारा (Red Giant Star in Hindi)
तारों में संलयन इसके कोर में होता है. इसलिए समय बीतने के साथ-साथ इसके केंद्र में हाइड्रोजन पुरी तरह हीलियम में बदल जाता है. इस समय यह सादे की जगह अमूमन पीले-नारंगी से गहरा लाल दिखने लगता है. तारों का यह स्वरुप ‘लाल दानव’ कहलाता हैं.
हाइड्रोजन समाप्त होने पर, संलयन से होने वाली विस्फोट भी रुक जाती है. इससे ये तारें केंद्र की तरफ आकर्षित होने लगते है. इससे इसमें असंतुलन की स्थिति हो जाती है. जड़त्व के नियम के अनुसार, तारा इस असंतुलन को ठीक करने की कोशिश करती है. साथ ही, इसके बाहर स्थित थोड़े-बहुत हाइड्रोजन ऊर्जा पैदा करते है. यह ऊर्जा और आकर्षण से पैदा हुई ऊर्जा इसे फैलने को विवश करती है. इस तरह से छोटा ‘लाल दानव’ बनता है. यदि तारा बड़े आकार का हो तो यहाँ विशाल ‘लाल दानव’ में बदल जाता है.
किसी तारें का लाल दानव में बदलना, इसके बुढ़ापे और मौत की निशानी होती है. इस समय तारा में संलयन नहीं होता, जिस वजह से ऊर्जा का विमोचन भी रुक जाता है. हालाँकि, लाल दानव के फैलने से अन्य पिंड इससे टकराते है और इसमें समा जाते है, जिससे ऊर्जा का विमोचन होता है.
क्या सूर्य भी बनेगा ‘लाल दानव’ (When the Sun will become red giant in Hindi)
एक तारे का जीवनकाल इसके द्रव्यमान पर निर्भर करता है. सूर्य के आकार का एक तारा 10 बिलियन वर्षों तक जीवित रह सकता है. सूर्य की वर्तमान आयु 4.57 बिलियन वर्ष है. यानि इसने अपना आधा जीवन भी अभी पूरा नहीं किया है. लेकिन, सूर्य भी आज से 5 बिलियन साल बाद, एक ‘लाल दानव’ में बदलने लगेगा.
लाल दानव में बदलने के बाद, सूर्य भी फैलने लगेगा. इस समय इसका व्यास वर्त्तमान के व्यास से 200 गुणा अधिक हो जाएगा. वैज्ञानिकों ने पुष्टि की है कि इसके बाद सूर्य सौर मंडल के पार्थिव ग्रहों को निगल लेगा. इसकी शुरुआत बुध से होगी, फिर शुक्र और पृथ्वी इसमें समा जाएंगे. मंगल भी इसमें समा सकता है, यदि फैलाव अधिक हो.
शोधकर्ताओं ने इसे साबित करने के लिए एक थ्री-डायमेंशनल हाइड्रोडायनामिक सिमुलेशन का प्रदर्शन किया. उन्होंने पाया कि जब कोई सूर्य अपने साथी ग्रहों को निगलता है, तो उसकी चमक हजारों साल के लिए बढ़ सकती है. ये उस ग्रह के द्रव्यमान और विकास चरण पर निर्भर करता है.
तारों में भारी तत्वों का संलयन (The Fusion of Heavier Elements in Stars in Hindi)
हाइड्रोजन समाप्त होने के बाद शुरू हुए सिकुड़न से केंद्र में स्थित हीलियम में संलयन होना शुरू हो जाता है. हालाँकि, इसकी अधिकतर ऊर्जा संलयन में समाप्त हो जाती है. इस वजह से इससे काफी कम ऊर्जा का विकिरण, यानि नारंगली पीले से लाल रंग का विकिरण, बाहर निकलता है. इसलिए यह पीले से लाल दिखता है, इसे ‘लाल दानव’ कहा जाता है.
इस प्रक्रिया से केंद्र में कुछ देर तक संलयन जारी रहता है और कोर पुरी तरह नष्ट होने से बचा रहता है. संलयन से हीलियम कार्बन में बदल जाता है. यह सल्यान हीलियम के कार्बन और कार्बन के लोहे में बदलने लगता है. लोहे में संलयन शुरू होने पर तारे का जीवन का अगला चक्र शुरू हो जाता हैं.
सुपरनोवा या ग्रहीय नेबुला का बनना (Supernova or Planetary Nebula Formation in Hindi)
लोहे के संलयन के लिए अत्यधिक ऊर्जा की जरूरत होती है. लेकिन, इस समय तारे के पास यह ऊर्जा नहीं होती है. ऐसे में इसमें या तो विस्फोट हो जाता है या फिर यह और भी सिकुड़ जाता है. यदि इसमें विस्फोट होता है तो सुपरनोवा बनता है. लेकिन यह सिकुड़ता है तो ग्रहीय नेबुला का निर्माण होता है. छोटे आकार के तारे सिकुड़ते है और बड़े आकर के तारों में विस्फोट होता है. सूर्य से आकार में समान या इससे बड़े तारों में ही महानोवा (सुपरनोवा) विस्फोट होता है.
महानोवा या सुपरनोवा (Supernova in Hindi)
यह ब्रह्माण्ड के किसी लाल दानव तारे में एक बड़ा विस्फोट विस्फोट होता है. इस विस्फोट में तारें कई टुकड़ों में बँट जाता है. इससे कई आकाशीय पिंड बनते है. सौर मंडल के निर्माण प्रक्रिया से हम इस स्थिति को समझ सकते है. जिस तारे के बाहरी परत में हाइड्रोजन हो, उसे टाइप-I व जिसमें यह नहीं हो उसे टाइप-II कहा जाता हैं. सुपरनोवा विस्फोट के बाद या तो ब्लैक होल (कृष्ण विवर) या फिर न्यूट्रॉन तारा में बदल जाता हैं.
आरम्भ में सुपरनोवा विस्फोट से फ़ैल जाता है और प्रकाश से अपने आकाशगंगा को भी ढक देता है. हालाँकि, कुछ समय बाद यह खुद धुंधला हो जाता है. यह कई बार कुछ ही हफ़्तों या महीनो में इतनी उर्जा पैदा करता है, जितना की हमारा सूरज अपने अरबों साल (एक बिलियन) के जीवनकाल में करेगा.
सुपरनोवा देखे जाने का मौका काफी कम मिलता है. इसकी वजह है हमारे ब्रह्माण्ड का विशाल होना. वेला सुपरनोवा विस्फोट आज से 10,000-20,000 साल पहले हुई थी. ऐसा अनुमान व्यक्त किया गया है.
सबसे पहले संभव रिकॉर्ड किए गए सुपरनोवा, जिसे एचबी 9 (HB9) के नाम से जाना जाता है, को अज्ञात भारतीय पर्यवेक्षकों द्वारा 4500 (± 1000) ईसा पूर्व में देखा और रिकॉर्ड किया गया था. लेकिन यह सिर्फ अफवाहों पर आधारित है. इसका कोई भी ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है. कश्मीर में पत्थरों पर उकेरी गई कुछ कलाकरियों के आधार पर ऐसी घोषणाएं की गई है.
आधिकारिक और लिखित इतिहास में, पहली बार सुपरनोवा चीनी खगोलविदों द्वारा 185 ईसा पूर्व में देखा गया था. यह 8 महीनों तक चमकता रहा. इसे एसएन 185 (SN 185) नाम से जाना जाता है. इसका उल्लेख रोमन साहित्यों में मिलता है, जो सुपरनोवा के गुणों के सामान है. इसलिए इसे पहला ज्ञात सुपरनोवा कहा जाता है. इसके बाद चीनी खगोलविदों ने मध्यकाल के अंत तक करीब 20 सुपरनोवा की खोज की. यह साम्राज्य्वादी ताकतों के चीन पर नियंत्रण के समय तक जारी रहा.
मिल्की वे आकाशगंगा में देखा जाने वाला सबसे हालिया सुपरनोवा एसएन 1604 है. इसे 9 अक्टूबर, 1604 को जोहान्स वैन हेक सहित कई लोगों द्वारा देखा गया. लेकिन इसे सुपरनोवा के रूप में पहचानकर जोहान्स केपलर प्रसिद्ध हो गए. उन्होंने इसके परिक्षण को व्यवस्थित किया और एक किताब का शक्ल दिया. इस किताब को, ‘पेडे सर्पेंटरी में डी स्टेला नोवा’ (De Stella nova in pede Serpentarii) नाम से प्रकाशित करवाया.
एसएन 2003एफजी को 2003 में एक बन रही आकाशगंगा में खोजा गया था. इस सुपरनोवा की उपस्थिति का अध्ययन “वास्तविक समय” में किया गया. इससे भौतिकी के कई नियमों पर सवाल उठ खड़े हुए है. ऐसा ज्ञात होता है कि यह चंद्रशेखर की सीमा की तुलना में अधिक विशाल है.
आधुनिक समय में कई सुपरनोवा विभिन्न स्तरों के जीवनकाल में खोजे जा चुके है. यह क्रम आगे भी जारी हैं. सुपरनोवा शब्द का प्रथम बार उपयोग इन तारों के लिए जर्मन खगोलविद वालटर बाडे (Walter Baade) ने साल 1931 में किया था.
ग्रहीय निहारिका कैसे बनते है? (Planetary Nebula in Hindi)
इसका निर्माण सूर्य से आकार में छोटे तारों के अंतिम जीवनकाल के मध्य में होता है. एक ग्रहीय नीहारिका मरते हुए तारे की बाहरी परतों से बनने वाली कॉस्मिक गैस और धूल का एक पिंड होता है. ग्रहीय नीहारिकाओं का ग्रहों से कोई लेना-देना नहीं है.
जब एक मध्यवर्ती द्रव्यमान (सूर्य के द्रव्यमान का 80% या इससे अधिक, लेकिन आठ गुना से कम) वाले तारे अपने जीवन के अंत में लाल दानव बनते है. जब इसके केंद्र में हीलियम का संलयन शुरू होता है तो इससे निकली ऊर्जा बाहरी गैसों को आयनित करती है. इससे यह प्रकाशमान हो उठता है. इसलिए, इन नीहारिकाओं को उत्सर्जन नीहारिकाओं के रूप में वर्गीकृत किया गया है. लेकिन, ये ग्रहों से पूरी तरह से असंबंधित हैं.
ग्रहीय निहारिकाओं के नामकरण में यह ऐतिहासिक त्रुटि उन्नत वैज्ञानिक उपकरण के अभाव में आया. 250 साल पहले, खगोलविदों ने अपनी कम शक्तिशाली दूरबीनों के माध्यम से नीहारिकाओं के रंगीन तमाशे को देखा. इस समय वे इसके तारा होने का अनुमान नहीं लगा पाए.
ग्रहीय नीहारिकाएं का जीवनकाल लगभग 20,000 वर्षों तक का होता है. यह तारों के जीवन चक्र का एक बहुत ही छोटा हिस्सा हैं.
श्वेत वामन तारे का बनना समझाएं (Formation of White Dwarf Stars in Hindi)
ग्रहीय निहारिका के केंद्र में कार्बन का ठोस परत जमा हो जाता है. छोटे व माध्यम आकर के तारे ही श्वेत वामन बन पाते हैं. ग्रहीय निहारिका में केंद्र का गुरुत्वाकर्षण अधिक होने से बाहरी अव्यय खींचे चले आते है. लेकिन, इसका आकार छोटा होता है. इसलिए खिंचाव से उत्पन्न उत्पन्न ऊर्जा कार्बन को संलयित कर लोहे में बदल नहीं पाती है. इस तरह इनमें नाभिकीय संलयन समाप्त हो जाता है. यह ऊर्जाविहीन पिंड श्वेत वामन तारा कहलाता हैं.
श्वेत वामन तारा के केंद्र में किसी तारें का 80 फीसदी अवयव होता है. यह कुछ समय के लिए मद्धिम प्रकाश के साथ चमकता है. लेकिन, फिर यह मद्धिम पढ़कर काला रंग का हो जाता है. वजह होता है इससे प्रकाश का न निकल पाना. इसे काला वामन कहा जाता हैं. यह अत्यधिक घनत्व वाला होता हैं.
न्यूट्रॉन तारा का निर्माण कब होता है? (Formation of Neutron Star in Hindi)
सुपरनोवा से ठीक पहले ऐसे तारों का का भार उसके असली भार से 4 से 8 गुना तक बढ़ जाता है. दरअसल, सुपरनोवा से हुए विस्फोट के बाद भी तारे का केंद्र प्रभावित नहीं होता है. वजह है, इनके केंद्र में बहुत ज्यादा घनत्व होता है. अधिक घनत्व के कारण, प्रोटोन और इलेक्ट्रान जुड़कर न्यूट्रॉन में बदल जाते हैं. इस तरह न्यूट्रॉन तारे का जन्म होता है.
इनका व्यास 20 किमी तक होता है. न्यूट्रॉन स्टार का घनत्व पृथ्वी कि तुलना में 2 बिलियन तक अधिक होता है. अधिक घनत्व के कारण इनका भार कई बिलियन टन तक होता है. सुपरनोवा विस्फोट के कारण ये एक सेकंड में कई बार घूर्णन करते है. ये एक मिनट में 43,000 तक हो सकता है. इसलिए इनका पुरा भाग खगोलविद तुरंत रिकॉर्ड कर लेते हैं. लेकिन, घूर्णन की यह गति कुछ समय बाद ही सामान्य हो जाता हैं.
न्यूट्रॉन तारे अपनी ऊर्जा पल्स के रूप में छोड़ते हैं. इसे पल्सर कहा जाता है. यह जानकारी साल 1966 में प्राप्त हुई. ये पल्स सिग्नल नियमित रूप से धरती पर आते है. पहले माना जाता था कि ये सिग्नल किसी परजीवी ग्रह से आ रही हो, जहाँ जीवन होगा. लेकिन, न्यूट्रॉन तारे की खोज ने इस अवधारणा को खंडित कर दिया.
अगर कोई न्यूट्रॉन तारा बाइनरी स्टार प्रणाली का तारा रहा हो और सुपरनोवा विस्फोट होने के बाद बच गया है; तो जिस तारे की ओर न्यूट्रॉन तारा परिक्रमा कर रहा है, उन दोनों तारों की बीच गुरुत्वाकर्षण बल की कारण द्रव्यमान की अदला-बदली होती रहती है.
न्यूट्रॉन तारों की बारे में कुछ रोचक तथ्य (Interesting Facts About Neutron Stars in Hindi)
- बहुत अधिक घनत्व के कारण एक चम्मच न्यूट्रॉन तारे का भार कई बिलियन टन तक हो सकता है.
- इसका चुम्बकीय क्षेत्र काफी बलवान होता है. इससे अणुओं तक का संरचना बिगड़ जाता है. यह सतह पर भूचाल लाता रहता है, जिसे स्टारक़्वेक कहा जाता है. ये भूचाल 10,000 साल तक सक्रिय रह सकते हैं.
- जब कोई दो न्यूट्रॉन स्टार टकराते हैं, तो बहुत भयावह घटनाएं होती है.
- 15 किमी तक के व्यास की अगर दो न्यूट्रॉन स्टार टकराएं, तो इतना भारी विस्फोट होता है कि उससे एक ब्लैक होल का निर्माण संभव है.
- ये तारे इतने घने होते हैं कि इनका एक चम्मच का वजन माउंट एवरेस्ट से भी अधिक होता है.
- इन तारों का वजन सूर्य से 1.1 से लेकर 1.6 गुना होता है.
- ये उन तारों से बनते है, जिनका द्रव्यमान सौर मंडल की मुकाबले 10 से 29 गुणा होता है.
ब्लैक होल का निर्माण कैसे होता है? (Formation of Black Hole in Hindi)
सुपरनोवा विस्फोट के बाद तारें ‘न्यूट्रॉन स्टार’ में बदल जाते है. न्यूट्रॉन स्टार बहुत विशालकाय हो तो गुरुत्वाकर्षण का दबाव के कारण यह और भी घना होते चला जाता है. इससे इसकी गुरुत्वाकर्षण की शक्ति भी कई गुना होते चली जाती है. इस तरह बने पिंड को ब्लैक होल कहते है. कई बार दो न्यूट्रॉन तारों के टकराने से भी ब्लैक होल बनता है. ऐसा बाइनरी तारा प्रणाली में होता है. अभी इस अवधारणा पर खोज जारी है.
ब्लैक होल की गुरुत्वाकर्षण शक्ति असीमित होती है. इसलिए यह अपने तरफ आसपास के हरेक वस्तु, यहाँ तक की प्रकाश को भी खिंच लेता है. इसलिए इससे प्रकाश नहीं निकल पाता है और यह काला दिखता हैं. ब्लैक होल तारों के जीवन-चक्र का मात्र एक हिस्सा है. लेकिन, इसके बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है. इसलिए यह शोधार्थियों व खगोलविदों के बीच आकर्षण का केंद्र बना हुआ हैं.
इसे कृष्ण विवर या कालाछिद्र भी कहा जाता है. लेकिन, यह कोई छिद्र नहीं है, बल्कि एक शक्तिशाली पिंड है.
काला छिद्र का गुरुत्व इतना अधिक होता है कि कई बार प्रकाश की गति से अधिक तीव्रता से भी इसे पार नहीं किया जा सकता. मतलब यह खुद से होकर किसी भी गति के पिंड या किरण को बाहर नहीं जाने देता है. इस स्थिति को घटना क्षितिज या इवेंट होराइजन (Event Horizon) कहा जाता है. यह किसी ब्लैक होल के गुरुत्वाकर्षण का बाहरी सीमा है.
ब्लैक होल की थ्योरी किसने दी? (Who gave the theory of Black Hole in Hindi)
इसपर थोड़ा सा विवाद है कि ‘ब्लैक होल कि थ्योरी किसने दी’?. लेकिन, दर्शन के क्षेत्र में सबसे पहले इसका कल्पना करने का श्रेय अंग्रेज दार्शनिक जॉन मिशेल को जाता है. उनके अनुसार, यह अंतरिक्ष का एक आयतन है जहाँ गुरुत्वाकर्षण इतना मजबूत होता है कि इससे कुछ भी नहीं, यहाँ तक कि प्रकाश भी नहीं बच सकता है. उनहोंने इस आश्चर्यजनक विचार की घोषणा पहली बार 1783 में की थी.
ब्लैक होल की खोज किसने की थी? (Who discovered Black Hole in Hindi?)
तर्कों व तथ्यों के आधार पर, ब्लैक होल की पहली भविष्यवाणी अल्बर्ट आइंसटीन ने 1916 में की थी. यह खोज उनके गुरुत्वाकर्षण के नए सिद्धांत और सापक्षेता पर आधारित थी. इससे पहले भी भौतिकविदों ने कहा था कि बड़ी मात्रा में एकत्रित पदार्थ अत्यधिक गुरुत्वाकर्षण पैदा करेंगे. इसका गुरुत्वाकर्षण इतना अधिक होगा कि प्रकाश भी उसके तरफ वस्तु की भांति आकर्षित होंगे.
आइंस्टीन ने ब्रह्मांड को अंतरिक्ष की एक बनावट के रूप में एक सार्वभौमिक स्थिरांक प्रकाश की गति के रूप में परिकल्पित किया. उनके अनुसार, जब तारे जैसी विशाल वस्तुएं अपने चारों फैले इस बनावट को आकार देती है, जो गुरुत्वाकर्षण का वास्तविक रूप बन जाता है. इस तरह उन्होंने ब्लैक होल को समझाया था.
स्टीफन हॉकिंग ने इसके बाहरी हिस्से को इवेंट हॉराइजन कहा हैं. स्टीफन हॉकिंग की खोज के मुताबिक हॉकिंग रेडिएशन के चलते एक दिन ब्लैक होल पूरी तरह द्रव्यमान मुक्त हो कर गायब हो जाता है. ब्लैक होल की खोज कार्ल स्क्वार्जस्चिल्ड और जॉन व्हीलर ने 1971 में सार्वजनिक की थी.
द्रव्यमान के आधार पर ब्लैक होल के प्रकार (Types of Black Holes according to Mass in Hindi)
अध्ययन के दृष्टिकोण से ब्लैक होल को चार प्रकार में बांटा गया है. ये है- माइक्रो ब्लैक होल, स्टेलर ब्लैक होल, इंटरमीडिएट ब्लैक होल और सुपरमैसिव ब्लैक होल.
माइक्रो ब्लैक होल का सबूत फिलहाल नहीं मिला है. लेकिन, गणितीय कल्पनाएं व्यक्त की जा चुकी है. इसकी खोज जारी है.
स्टेलर ब्लैक होल के तारों का द्रव्यमान सूर्य की तुलना में पांच से 60 गुणा होता है. आमतौर पर इसका व्यास 16-48 किमी (10 से 30 मील) के बीच होता है.
इंटरमीडिएट ब्लैक होल स्टेलर से बड़ा लेकिन सुपरमैसिव से छोटा होता है. हाल ही में खोजै गया “गोल्डीलॉक्स” इसी प्रकार का ब्लैक होल है. इसका द्रव्यमान 55,000 सूर्यों के बराबर है.
सुपरमैसिव ब्लैक होल आकार में काफी बड़ा होता है. इसका द्रव्यमान सूर्य से अरबों गुना बड़ा होता है. हमारे आकाश गंगा मिल्कीवे में के केंद्र में भी इसी तरह का एक ब्लैक होल स्थित है. इसका नाम ‘सगीट्टारिउस ए’ (Sagittarius A) है. इसका व्यास 37 मिलियन मील है, जो आकार में हमारे सूर्य से 4 मिलियन गुना बड़ा है.
ब्लैक होल से जुड़े रोचक जानकारियां
- सूर्य के बराबर द्रव्यमान वाले कालाचिद्र की त्रिज्या लगभग 3 किमी होती है.
- ब्लैक होल का पलायन वेग प्रकाश के वेग से अधिक होता है.
- इसे हम देख नहीं सकते, कारण यह थोड़ा सा भी प्रकाश उत्सर्जित नहीं करता. आसपास के गतिविधि से इसका पता चलता है.
- भौतिकविद् जॉन व्हीलर ने 1967 में सार्वजनिक रूप से पहली बार ब्लैक होल शब्द का प्रयोग किया था. यह शब्द 1964 से वैज्ञानिकों में प्रचलित था.
- लगभग प्रत्येक आकाशगंगा के केंद्र में एक अति विशालकाय ब्लैक होल रहता है.
- ब्लैक होल (Black Hole) के आसपास के पदार्थ उसके गुरुत्व के प्रभाव से उसके अंदर गिरते रहते हैं. कई बार तारें भी इसमें समा जाते है.
- पृथ्वी का निकटतम ब्लैक होल ‘V616 मोनोसेरोटिस’ है, जिसे ‘A0620-00’ भी कहते हैं. यह ब्लैक हो पृथ्वी 6.6 गुना भारी है. यह हमसे 3300 प्रकाश वर्ष दूर स्थित है.
- ब्लैक होल स्पेस में वो जगह है जहाँ भौतिक विज्ञान का कोई नियम काम नहीं करता है. – “BBC Hindi“
- ब्लैक होल में इसमें स्पेस और टाइम काम नहीं करते.
- आइंस्टाइन ने समय को भी एक आयाम माना है. यह आयाम स्थान की तरह ब्रह्माण्ड का एक हिस्सा है.
- ब्लैक होल के अंदर कोई भी रिक्त स्थान नहीं होता. यहाँ तक की परमाणु और अणु भी सिकुड़ जाते है और भौतिकी का नियम लागु नहीं होता. इसलिए इसे एक बड़ा गोलाकार बिंदु माना जाता है.
चंद्रशेखर सीमा (Chandrashekhar Limit in Hindi)
खगोल भौतिकी में, एक स्थिर सफेद बौने तारे के स्थिरता के लिए सैद्धांतिक रूप से अधिकतम संभव द्रव्यमान चंद्रशेखर सीमा कहलाता है. इस सीमा का नामकरण इसके खोजकर्ता भारतीय मूल के खगोल भौतिकीविद् सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर (Subrahmanyan Chandrasekhar) के नाम पर रखा गया है. साल 1930 में उन्होंने इसे खोजा था. इस कार्य के लिए उन्हें 1983 का भौतिक विज्ञान में नोबेल पुरस्कार मिला था.
अल्बर्ट आइंस्टीन के सापेक्षता के विशेष सिद्धांत और क्वांटम भौतिकी के सिद्धांतों का उपयोग करते हुए उन्होंने इस सिद्धांत की व्याख्या की थी. उनके अनुसार, कोई भी सफ़ेद बौने तारे का स्थिर रहना असंभव है, यदि इसका द्रव्यमान सूर्य के द्रव्यमान के 1.44 गुना से अधिक हो. इससे कम द्रव्यमान का श्वेत वामन तारा इलेक्ट्रान विकर्षण दबाव (Electron Degeneracy Pressure) द्वारा संतुलित अवस्था मे रह सकता है. इससे बड़े तारें सुपरनोवा विस्फोट करते है और न्यूट्रॉन स्टार या ब्लैक होल बन जाते है.
एस. चंद्रशेखर का जन्म 19 अक्टूबर 1910 को लाहौर, पाकिस्तान में हुआ था. उनकी मृत्यु 21 अगस्त, 1995 को हुआ था. जिस वक्त उन्होंने यह खोज की थी, उस वक्त उनका उम्र महज 19 वर्ष था.
हर्ट्जस्प्रंग-रसेल आरेख मे सफ़ेद वामन तारे बायें कोने के नीचले हिस्से में होते है. मतलब, उनकी सतह का तापमान अत्याधिक होता है. लेकिन छोटे आकार के कारण इनसे ऊर्जा उत्पादन या दीप्ती कम होती है.
वैज्ञानिकों के अनुसार, अब तक खोजा गया सबसे बड़ा ब्लैक होल का नाम TON 618 है. इसका द्रव्यमान 66 बिलियन सौर द्रव्यमान (Solar Masses) है. यह पृथ्वी से लगभग 18.2 अरब प्रकाश-वर्ष दूर स्थित है.
ब्लैक होल और 2020 का नोबेल पुरस्कार (Black Hole & Nobel Prize in Physics for 2020 in Hindi)
साल 2020 का फिजिक्स का नोबेल पुरस्कार तीन वैज्ञानिकों को दिया गया था. इसमें आधा राशि, सर रोजर पेनरोज (Sir Roger Penrose) को ब्लैक होल निर्माण को आइंस्टीन की सापेक्षकता के सिद्ंधात (जनरल थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी) को गणितीय रूप से समझाने के लिए दिया गया है.
शेष आधा राशि संयुक्त रूप से रिनहार्ड गेंजेल (Reinhard Genzel) और एंड्रिया गेज (Andrea Ghez) को गैलेक्सी के केंद्र में स्थित अत्यधिक घनत्व वाले पदार्थ (सुपरमैसिव कॉम्पैक्ट ऑब्जेक्ट) की खोज के लिए दिया गया. यह खोज ब्लैक होल के द्वारा ही समझा जा सकता है. इस तरह 2020 में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार ब्लैक होल के से जुड़े खोज के लिए दिया गया.
नोबेल पुरस्कार पाने वाली महिला वैज्ञानिक एंड्रिया गेज साल 1965 में अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में पैदा हुई थीं. वहीं लॉरिएट रेनहार्ड जेनजेल का जन्म 1952 में जर्मनी के बैड होम्बर्ग वोर डेर होहे में हुआ था. वो मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर एक्सट्राट्रेस्ट्रियल फिजिक्स, गार्चिंग, जर्मनी और यूकबर्केले यूएसए में प्रोफेसर हैं. वहीं, रोजर पेनरोस का जन्म साल 1931 में कोलचेस्टर लंदन में हुआ था. वर्तमान में वो ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं.
स्पैटिफिकेशन प्रक्रिया (spaghettification process in Hindi)
ब्लैक होल से जब भी कोई वस्तु ‘घटना क्षितिज’ को पार कर रही होती है तो वह सेवइंया के आटे की तरह खिंचकर टूटने व बिखरने लगती है. ऐसा उन तारों के साथ भी होता है जिसे ब्लैक होल निगल रहा है. यह स्पैटिफिकेशन प्रक्रिया कहलाती है.
ज्वारीय बल
इसमें ब्लैक होल के पास वाला हिस्सा का गुरुत्वाकर्षण मजबूत होता है. दूर वाले हिस्से द्वारा खिंचाव कम होता है और यह थोड़ा कमजोर होता है. गुरुत्व के खिंचाव के इस अंतर, जिसे ज्वारीय बल कहते हैं. इस अंतर की वजह से तारा टूटने लगता है. इसी तरह का प्रभाव स्पैगटी बनाने के दौरान भी दिखाई देता है. इसीलिए इस परिघटना का नाम भी स्पैगटिफिकेशन पड़ा.
ज्वारीय व्यवधान
ब्लैक होल के फटने के बाद उसमें से उड़ाई जाने वाली सामग्री को ज्वारीय व्यवधान के रूप में जाना जाता है. वैज्ञानिकों ने एक तारा को ब्लैक होल के बहुत नजदीक पहुंच कर टूट गया था. यह घटना पृथ्वी से लगभग 215 मिलियन प्रकाश वर्ष दूर तारामंडल एरिडानस में एक सर्पिल आकाशगंगा में हुई. ब्लैक होल की मान्यता डिस्क में प्रवेश करते ही तारा टूट गया.
श्वार्जस्चिल्ड त्रिज्या या गुरुत्वाकर्षण त्रिज्या क्या होती है? (What is Schwarzschild Radius in Hindi)
यदि पृथ्वी को अधिकतम सीमा तक दबाया जाए तो इसकी त्रिज्या मात्र 1 इंच ही रह जाएगी. सूर्य भी अधिकतम सिकुड़ने पर इसका त्रिज्या मात्र 3 किलोमीटर ही रह जाए. इसे श्वार्जस्चिल्ड त्रिज्या या गुरुत्वाकर्षण त्रिज्या (Schwarzschild radius or Gravitational radius) कहते हैं, जो किसी वस्तु की सिकुड़ने की अधिकतम सीमा (maximum compress limit) होती है.
जब सूर्य ब्लैक होल में बदलेगा, तो इसकी त्रिज्या 2 मील या 3 किलोमीटर रह जाएगी. अब आप बताएं, अरबों किलोमीटर त्रिज्या वाले ब्लैक होल का आकार उनके युवा तारा होने के समय कितना होगा.
नाभिकीय संलयन या न्यूक्लियर फ्यूज़न (Neuclear Fusion in Hindi)
जब किसी तत्व के परमाणु का नाभिक रासायनिक अभिक्रिया में हिस्सा लेता है तो इसे नाभिकीय अभिक्रिया कहा जाता है. इसके दो प्रकार होते है, पहला नाभिकीय संलयन व दूसरा नाभिकीय विखंडन.
नाभिकीय संलयन में दो या दो से अधिक नाभिक आपस में जुड़कर एक या एक से अधिक नाभिक का निर्माण करते है. इसके विपरीत, नाभिकीय संलयन में किसी परमाणु का नाभिक विखंडित होकर कई हिस्सों में बँट जाता है.
सरल शब्दों में, नाभिकीय संलयन अति उच्च ताप व दवाब में संपन्न होता है. इसमें दो हलके नाभिक जुड़कर एक बड़े नाभिक का निर्माण करते है. इस अभिक्रिया में अत्यधिक ऊर्जा विमुक्त होती है, जो प्रकाश विकिरण के रूप में फ़ैल जाती है. नए नाभिक का द्रव्यमान, दो जुड़ने वाले छोटे नाभिक के द्रव्यमान के योग से कम होता है. गायब द्रव्यमान ऊर्जा के रूप में विमुक्त हो जाती है.
उदाहरण के लिए, सूर्य के नाभिक में हाइड्रोजन के दो समस्थानिक, ड्यूटेरियम और ट्राइट्रियम आपस में जुड़कर हीलियम का एक नाभिक बनाते है. ड्यूटेरियम के नाभिक में एक प्रोटोन व एक न्यूट्रॉन होता है. ट्राइट्रियम के नाभिक में एक प्रोटोन व दो न्यूट्रॉन होता है. नाभिकीय संलयन के बाद ये दो प्रोटोन व दो न्यूट्रॉन वाला हीलियम बनाते है व एक न्यूट्रॉन विमुक्त होकर स्वतंत्र जाता है. यही अतिरिक्त न्यूट्रॉन सूर्य के अतिरिक्त ऊर्जा व ऊष्मा का कारण है. इससे प्राप्त प्रकाश से ही धरती पर रौशनी मिलती है.
सभी जीवित तारों के केंद्र में नाभिकीय संलयन होता है. तारों के इसी अभिक्रिया से ऊर्जा विमुक्त होती है. धरती पर यह अभिक्रिया साल 1932 में मार्क ओलिफेंट ने दोहराया था. लेकिन, इसे नियंत्रित करने में अभी तक कोई भी सफल नहीं हो सका है.
तारामंडल व तारा गुच्छा (constellation and star cluster in Hindi)
आसमान में तारों का समूह तारामंडल या तारा गुच्छ कहलाता है. लेकिन, तारामंडल व तारागुच्छ में अंतर होता है. तारामंडल के तारे आपस में गुरुत्वाकर्षण से नहीं जुड़े होते है. लेकिन तारागुच्छ में तारें गुरुत्वाकर्षण से आपस में जुड़े होते है.
मृगशीर्ष या ओरायन (शिकारी) एक जाना-माना तारामंडल है. सप्तर्षि तारामंडल उत्तरी गोलार्ध का एक महत्वपूर्ण तारामंडल हैं. इसके सात तारों का नाम ऋषियों के नाम पर है. ये है- क्रतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरस, वाशिष्ठ तथा मारीचि. प्राचीन समय में भारत में इन्हें नक्षत्र नाम से सम्बोधित किया जाता था. सप्तऋषि ध्रुव तारें के पहचान में सहायता करता है. ध्रुव तारा सदैव उत्तर दिशा में स्थित रहता है. तारामंडल में कई आकाशगंगाएं भी होते है. सप्तऋषि में अब तक 51 आकाशगंगाएं खोजी जा चुकी है. हन्स तारामंडल व सर्प तारामंडल भी काफी प्रसिद्ध है.
वास्तव में तारामंडल एक निश्चित आकृति बनाती है. इस आकृति को पहचानना आसान होता है. इसलिए यह प्रसिद्ध हो जाती है.वहीं, गुच्छ के अध्ययन से ब्रह्माण्ड को समझने में मदद मिलती है.
बाइनरी तारे क्या हैं (Definition of Binary Stars in Hindi)
हमने अभी तक ये जाना है कि ग्रह किसी तारे का या तारा किसी ब्लैक होल का चक्कर लगता है. लेकिन, कई बार दो तारे गुरुत्वाकर्षण से आकर्षित हो जाते है व कमजोर तारा मजबूत तारे के चरों और चक्कर लगाने लगता है. कई बार दोनों तारे एक दूसरे के चरों और चक्कर लगाते हुए ब्लैक होल का चक्कर लगाते है. नंगी आँखों से ये एक ही बिंदु लगते है, जो केप्लर के गति का नियम का पालन करते है.
ब्रह्माण्ड के तीन-चौथाई तारें बाइनरी सिस्टम के है. सूर्य भी इसी तरह का एक तारा है. लेकिन, इसका दूसरा तारा अज्ञात है. पहले बाइनरी तारों कि खोज सन्न 1616 में गैलीलियो ने की थी. साल 1802 तक विलियम हर्शेल ने ऐसे 700 ऐसे जोड़ी तारों की सूचि बना ली थी. उन्होंने इसे बाइनरी स्टार का नाम दिया.
बाइनरी तारों का उद्भव (Evolution of Binary Stars in Hindi)
गतिशील तारे कई बारे खुद से काफी बड़े तारे के निकट चले जाते है. इसके बाद ताकतवर गुरुत्वाकर्षण वाला तारा कमजोर तारें को अपना उपतारा बना लेता है. उपतारा अपने तारे का प्रक्रिमा करता है.
दूसरे सिद्धांत के अनुसार, तारों के भारी गैस व धूल के मिश्रण दुर्घटनाग्रस्त होकर मुख्य तारे से अलग हो जाते है. इससे एक नए तारे का जन्म होता है. कमजोर तारा, मजबूत तारें का चक्कर लगता है. इस तरह से बाइनरी तारा का जन्म होता है.
अल्फा सेंचुरी भी बाइनरी सिस्टम का तारा है. इसमें अल्फा सेंचुरी A एवं अल्फा सेंचुरी B नाम के दो तारें है. एक और तारा अप्रोक्सिमा सेंचुरी नाम का है, वह भी बाइनरी जोड़े में हैं.
तारे का वासयोग्य क्षेत्र व महापृथ्वी (definition of habitable zone of stars and Super Earth in Hindi)
“रहने योग्य क्षेत्र” एक तारे से वह दूरी है जहाँ ग्रहों की सतहों पर पानी तरल रूप में रह सके. इस क्षेत्र को गोल्डीलॉक्स ज़ोन (Goldilocks zone) भी कहा जाता है. ऐसे क्षेत्र की स्थितियाँ जीवन के अनुकूल होती हैं. यह न तो बहुत गर्म और न ही बहुत ठंडी होती है.
प्रसिद्ध खगोलशास्त्री सॅथ़ शोस्टैक (Seth Shostak) के अनुसार, पृथ्वी से 1,000 प्रकाश वर्षों की दूरी के भीतर कम-से-कम 30,000 ग्रह वास-योग्य हैं. उनकी यह भविष्यवाणी केप्लर यान द्वारा की गई खोज पर आधारित है.
केप्लर यान द्वारा खोजे गए महापृथ्वी की एक सूचि फ़रवरी 2011 में जारी की गई. इसके द्वारा 1,235 ग्रहों की खोज की गई. इनमें से 68 की महापृथ्वी होने की संभावना है. इनमें भी 6 का भार शायद पृथ्वी से दुगने कम हैं.
महापृथ्वी वह होती है, जो पृथ्वी के समान से लेकर बृहस्पति व शनि तक के आकार का होता है. सबसे पहला खोजा गया महापृथ्वी का द्रव्यमान, हमारे पृथ्वी से चार गुना है. यह 1992 में पी॰ऍस॰आर॰ बी 1257+12 नामक पल्सर के पास खोजा गया है. महापृथ्वी उन ग्रहों को ही माना जाता है, जो सौरमंडल से बाहर स्थित हो.
डार्क मैटर व डार्क एनर्जी (Dark Matter and Dark Energy in Hindi)
अंतरिक्ष में कई पिंड बिना आवेश वाले कणो से बन होते है, इन्हें डार्क मैटर कहलाता है. डार्क मैटर एक काल्पनिक प्रकार का पदार्थ है जो पूरे इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पेक्ट्रम के लिए अदृश्य है. इसलिए ये प्रकाश का उत्सर्जन नहीं करते है. यह एक विद्युत चुंबकीय घटना है.
डार्क मैटर एक आकर्षक शक्ति के रूप में कार्य करता है. यह हमारे ब्रह्माण्ड के आकार को स्थिर रखने में मदद करता है. दूसरी ओर, डार्क एनर्जी गुरुत्वाकर्षण की विपरीत दिशा में कार्य करती है. यह नकारात्मक, प्रतिकारक बल लगाती है. इस तरह, डार्क एनर्जी एक प्रकार का एंटी-ग्रेविटी जो ब्रह्मांड के विस्तार को धीमा कर देता है.
हमारे ब्रह्माण्ड में डार्क एनर्जी अधिक शक्तिशाली है. इनके नाम के आगे ‘डार्क’ लगा हुआ है. इसका कारण यह है कि इनके होने का शुरुआती जानकारी तो पता लग गया है. लेकिन, इसे अभी तक साबित नहीं किया जा सका है.
न्यूट्रिनो गर्म डार्क मैटर का एक रूप है. डार्क मैटर का प्रत्यक्ष रूप से पता नहीं चला है. यह इसे आधुनिक खगोल भौतिकी के सबसे महान रहस्यों में से एक बनाता है. डार्क मैटर किसी भी महत्वपूर्ण स्तर पर प्रकाश या किसी अन्य विद्युत चुम्बकीय विकिरण को न तो उत्सर्जित करता है और न ही अवशोषित करता है. डार्क मैटर के कुल द्रव्यमान-ऊर्जा का 26.8% और ब्रह्मांड में कुल पदार्थ का 84.5% होने का अनुमान है.
ब्रह्मांड का विस्तार क्यों तेज हो रहा है? इसका स्पष्टीकरण मायावी प्रश्न बना हुआ है. अक्सर इसका कारण “डार्क एनर्जी” को माना जाता है.