भारत की मृदा विश्व के सबसे उपजाऊ मृदाओं में से एक है. मृदा भू-पर्पटी की सबसे महत्वपूर्ण परत है और एक मूल्यवान संसाधन है. यह शैल, मलबा और जैव सामग्री का मिश्रण होती ,है जो पृथ्वी की सतह पर विकसित होती है. यह वृक्षों, घास, फसलों और जीवन के कई रूपों का पोषण करती है. मृदा के घटक खनिज कण, ह्यूमस, जल और वायु होते हैं.
मृदा की परिभाषा (Definition of Soil in Hindi)
मृदा को पृथ्वी की ऊपरी सतह पर पाए जाने वाले मोटे, मध्यम और बारीक कार्बनिक तथा अकार्बनिक मिश्रित कणों के रूप में परिभाषित किया जाता है. इसे अक्सर पृथ्वी की त्वचा कहा जाता है, जो भूवैज्ञानिक, जलवायु और जैविक शक्तियों के बीच जटिल अंतःक्रिया का परिणाम है. मृदा के मुख्य घटक खनिज कण, ह्यूमस (जैव पदार्थ), जल और वायु हैं. पौधों और जानवरों से प्राप्त कार्बनिक पदार्थ, विशेष रूप से ह्यूमस, मृदा की उर्वरता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, पोषक तत्वों की उपलब्धता और जलधारण क्षमता को बढ़ाते हैं
मृदा निर्माण प्रक्रिया (Soil Formation Process)
मृदा का निर्माण एक जटिल और अत्यंत धीमी प्रक्रिया है, जिसमें लाखों वर्ष लग सकते हैं. यह चट्टानों के भौतिक, रासायनिक और जैविक अपक्षय (weathering) के माध्यम से होता है. भौतिक अपक्षय में हवा, पानी और तापमान में परिवर्तन जैसे यांत्रिक बल चट्टानों को छोटे कणों में तोड़ देते हैं. रासायनिक अपक्षय चट्टानों के खनिज घटकों में रासायनिक परिवर्तन लाता है, जबकि जैविक अपक्षय में कार्बनिक पदार्थों का अपघटन (जैसे मृत जीव अवशेष, पत्तियां) और सूक्ष्मजीवों की गतिविधियाँ मृदा निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. मृदा निर्माण को प्रभावित करने वाले प्राथमिक कारकों में मूल सामग्री (चट्टानें), जलवायु, स्थलाकृति, वनस्पति और समय शामिल हैं.
मृदा प्रोफ़ाइल, बनावट और संरचना (Soil Profile, Texture and Structure)
- मृदा प्रोफ़ाइल: मृदा मुख्य रूप से तीन प्राथमिक परतों से बनी होती है, जिनका रंग और संघटन अलग-अलग होता है. इन परतों को “क्षितिज” (Horizons) कहा जाता है, और ये मिलकर मृदा प्रोफ़ाइल बनाती हैं, जो मिट्टी का एक ऊर्ध्वाधर खंड होता है. ऊपरी मिट्टी (क्षितिज ए) कार्बनिक पदार्थों से समृद्ध होती है और पौधों की वृद्धि के लिए आवश्यक है. उपमृदा (क्षितिज बी) में खनिज और कम ह्यूमस होता है. क्षितिज सी अपक्षयित चट्टानी परत है. मृदा प्रोफ़ाइल को समझना उपयुक्त फसलों के चयन और प्रभावी मृदा प्रबंधन प्रथाओं को लागू करने में सहायता करता है.
- मृदा बनावट (Texture): यह मिट्टी में मौजूद कणों के औसत व्यास को संदर्भित करती है. बनावट के आधार पर, मिट्टी को बलुई (2–0.05 मिमी औसत कण व्यास), सिल्टी (0.05–0.002 मिमी), मृत्तिका (0.002 मिमी से कम), और दोमट (रेत, मिट्टी और गाद का मिश्रण) के रूप में पहचाना जाता है 1. दोमट मिट्टी को खेती के लिए सबसे अच्छी ऊपरी मिट्टी माना जाता है क्योंकि इसमें पौधों के विकास के लिए अच्छी जलधारण क्षमता होती है 1.
- मृदा संरचना (Structure): यह मिट्टी में कणों की व्यवस्था और संगठन को संदर्भित करती है, अर्थात् रेत, गाद, मिट्टी और ह्यूमस कैसे एक साथ जुड़कर मिट्टी का बिस्तर बनाते हैं.विभिन्न संरचनात्मक विन्यास जैसे एककणीय, स्थूलकणीय, मृदुकणीय, दानेदार, खंडात्मक, पलवार और गिरिदार, मिट्टी की जलधारण क्षमता और उर्वरता को प्रभावित करते हैं. उदाहरण के लिए, रेतीली मिट्टी में एककणीय विन्यास होता है जहाँ पानी अधिक देर तक नहीं ठहरता, जबकि मृदुकणीय विन्यास वाली मिट्टी उर्वरा होती है और इसमें जल देर तक ठहरता है.
मृदा की भौतिक विशेषताएँ उसकी कृषि उपयोगिता और उत्पादकता को सीधे प्रभावित करती हैं. ये गुण न केवल जलधारण क्षमता और जड़ वृद्धि को निर्धारित करते हैं, बल्कि मृदा के यांत्रिक गुणों को भी प्रभावित करते हैं.
भारत की मृदा का वर्गीकरण (Classification of Soil in India)

भारत में विभिन्न प्रकार के उच्चावच, भू-आकृति, जलवायु परिमंडल और वनस्पतियाँ पाई जाती हैं, जिन्होंने भारत में अनेक प्रकार की मिट्टियों के विकास में योगदान दिया है.
प्राचीन काल में, मृदा को दो मुख्य वर्गों में बांटा जाता था: उर्वर (उपजाऊ) और ऊसर (अनुर्वर). 16वीं शताब्दी में, मृदा का वर्गीकरण उनके सहज विशेषताओं और बाहरी लक्षणों जैसे गठन, रंग, भूमि का ढाल और मिट्टी में नमी की मात्रा के आधार पर किया गया था. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् (ICAR) ने भारत की मृदाओं को उनकी प्रकृति और गुणों के आधार पर वर्गीकृत किया है. यह वर्गीकरण संयुक्त राज्य अमेरिका के कृषि विभाग (USDA) मृदा वर्गीकरण पद्धति पर आधारित है.
उत्पत्ति, रंग, संयोजन और अवस्थिति के आधार पर भारत की मृदाओं को निम्नलिखित प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है:
- जलोढ़ मृदाएँ
- काली मृदाएँ
- लाल और पीली मृदाएँ
- लैटेराइट मृदाएँ
- शुष्क मृदाएँ
- लवण मृदाएँ
- पीतमय मृदाएँ
- वन मृदाएँ
विभिन्न प्रकार की मृदाओं का विवरण:
- जलोढ़ मृदाएँ: ये उत्तरी मैदान और नदी घाटियों के विस्तृत भागों में पाई जाती हैं और देश के कुल क्षेत्रफल का लगभग 40 प्रतिशत भाग ढँकती हैं. ये निक्षेपण मृदाएँ हैं जो नदियों और सरिताओं द्वारा वाहित और निक्षेपित की गई हैं. इनमें सामान्यतः पोटाश की मात्रा अधिक और फास्फोरस की मात्रा कम पाई जाती है. गंगा के ऊपरी और मध्यवर्ती मैदान में ‘खादर‘ (नया जलोढ़क) और ‘बांगर’ (पुराना जलोढ़क) नाम की दो भिन्न मृदाएँ विकसित हुई हैं.
- काली मृदाएँ: ये दक्कन के पठार के अधिकतर भाग पर पाई जाती हैं, जिसमें महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के कुछ भाग शामिल हैं. इन्हें ‘रेगर’ तथा ‘कपास वाली काली मिट्टी’ भी कहा जाता है. ये मृण्मय, गहरी और अपारगम्य होती हैं. गीले होने पर फूल जाती हैं और चिपचिपी हो जाती हैं, तथा सूखने पर सिकुड़ जाती हैं. इनमें चूने, लौह, मैग्नीशिया तथा ऐलुमिना के तत्त्व काफी मात्रा में पाए जाते हैं, लेकिन फास्फोरस, नाइट्रोजन और जैव पदार्थों की कमी होती है.
- लाल और पीली मृदाएँ: लाल मृदा का विकास दक्कन के पठार के पूर्वी तथा दक्षिणी भाग में कम वर्षा वाले उन क्षेत्रों में हुआ है, जहाँ रवेदार आग्नेय चट्टानें पाई जाती हैं. इसका लाल रंग रवेदार तथा कायांतरित चट्टानों में लोहे के व्यापक विसरण के कारण होता है. जलयोजित होने पर यह पीली दिखाई पड़ती है. इनमें सामान्यतः नाइट्रोजन, फास्फोरस और ह्यूमस की कमी होती है.
- लैटेराइट मृदाएँ: ये उच्च तापमान और भारी वर्षा के क्षेत्रों में विकसित होती हैं और तीव्र निक्षालन का परिणाम हैं. इन मृदाओं में जैव पदार्थ, नाइट्रोजन, फास्फेट और कैल्सियम की कमी होती है तथा लौह-ऑक्साइड और पोटाश की अधिकता होती है. ये कृषि के लिए पर्याप्त उपजाऊ नहीं हैं.
- शुष्क मृदाएँ: इनका रंग लाल से लेकर किशमिशी तक होता है. ये सामान्यतः बलुई संरचना की और लवणीय प्रकृति की होती हैं. शुष्क जलवायु, उच्च तापमान और तीव्र वाष्पीकरण के कारण इनमें नमी और ह्यूमस कम होते हैं. ये पश्चिमी राजस्थान में पाई जाती हैं.
- लवण मृदाएँ: इन्हें ऊसर मृदाएँ भी कहते हैं. इनमें सोडियम, पोटेशियम और मैग्नीशियम का अनुपात अधिक होता है, अतः ये अनुर्वर होती हैं. इनमें नाइट्रोजन और चूने की कमी होती है. ये मुख्य रूप से पश्चिमी गुजरात, पूर्वी तट के डेल्टाओं और पश्चिम बंगाल के सुंदरवन क्षेत्रों में पाई जाती हैं.
- पीटमय मृदाएँ: ये भारी वर्षा और उच्च आर्द्रता वाले क्षेत्रों में पाई जाती हैं जहाँ वनस्पति की वृद्धि अच्छी हो. इन मृदाओं में जैव पदार्थों की मात्रा 40 से 50 प्रतिशत तक होती है. ये सामान्यतः गाढ़े और काले रंग की होती हैं.
- वन मृदाएँ: ये पर्याप्त वर्षा वाले वन क्षेत्रों और पर्वतीय पर्यावरण में बनती हैं. घाटियों में ये दुमटी और पांशु होती हैं, जबकि ऊपरी ढालों पर ये मोटे कणों वाली होती हैं.
तालिका: ICAR द्वारा वर्गीकृत आठ प्रमुख मृदा
मृदा प्रकार | वितरण (प्रमुख क्षेत्र) | प्रमुख विशेषताएँ (रंग, बनावट, जलधारण) | रासायनिक गुण (प्रचुर/कमी) | प्रमुख फसलें |
जलोढ़ मिट्टी | इंडो-गंगा-ब्रह्मपुत्र मैदान, नदी घाटियाँ, तटीय मैदान | हल्के भूरे से राख भूरे, रेतीली से दोमट, अच्छी जल निकासी, छिद्रपूर्ण | पोटाश, फॉस्फोरिक एसिड, चूना, कार्बनिक पदार्थ प्रचुर; नाइट्रोजन कम | गेहूं, चावल, मक्का, गन्ना, दालें, तिलहन |
लाल और पीली मिट्टी | प्रायद्वीपीय भारत, बुंदेलखंड, झारखंड, ओडिशा | लाल (फेरिक ऑक्साइड), हाइड्रेटेड होने पर पीली, रेत से चिकनी मिट्टी, छिद्रपूर्ण | चूना, फॉस्फेट, मैग्नीशियम, नाइट्रोजन, ह्यूमस, पोटाश कम | गेहूं, कपास, दालें, तंबाकू, बाजरा, तिलहन |
काली मिट्टी (रेगुर) | गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक | हल्के काले से गहरे काले, उच्च जल धारण क्षमता, स्वयं-जुताई प्रभाव | आयरन, चूना, कैल्शियम, पोटाश, एल्युमीनियम, मैग्नीशियम प्रचुर; नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, जैविक पदार्थ कम | कपास, दालें, मोटे अनाज, गन्ना, सब्जियाँ |
मरुस्थलीय मिट्टी | राजस्थान, उत्तरी गुजरात, हरियाणा, पंजाब के शुष्क क्षेत्र | रेतीली से बजरी, उच्च घुलनशील लवण, कम नमी/जल धारण क्षमता | जैविक पदार्थ, नाइट्रोजन कम; कैल्शियम कार्बोनेट अलग-अलग | बाजरा, दालें, ग्वार, चारे की फसलें |
लैटेराइट मिट्टी | पश्चिमी/पूर्वी घाट, राजमहल पहाड़ियाँ, ओडिशा, केरल, तमिलनाडु | लाल (लोहे के ऑक्साइड), हवा में सख्त, अम्लीय (ऊंचाई पर), कम उर्वरता | आयरन, एल्यूमीनियम प्रचुर; नाइट्रोजन, पोटाश, पोटेशियम, चूना, कार्बनिक पदार्थ नगण्य | चावल, रागी, गन्ना, काजू, चाय, कॉफी |
पर्वतीय मिट्टी | हिमालय क्षेत्र, पश्चिमी/पूर्वी घाट, सतपुड़ा, विंध्य | अम्लीय, हल्का भूरा/काला/भूरा, पतली परतें, खराब विकसित प्रोफ़ाइल | आयरन, एल्यूमीनियम अधिक; नाइट्रोजन, पोटाश, पोटेशियम, चूना, कार्बनिक पदार्थ कम | फल फसलें (सेब, संतरा), चाय, कॉफी |
लवणीय और क्षारीय मिट्टी | राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र | सोडियम क्लोराइड/सल्फेट, सफेद नमक की परत, रेतीली से दोमट, बंजर | नाइट्रोजन, कैल्शियम कम; जल धारण क्षमता बहुत कम | नमक प्रतिरोधी फसलें (बरसीम, ढैंचा) |
पीट और दलदली मिट्टी | केरल (कोट्टायम, अलाप्पुझा), सुंदरबन डेल्टा, नदी डेल्टा | वर्षा ऋतु में जलमग्न, भारी वर्षा वाले क्षेत्रों में | कार्बनिक पदार्थ प्रचुर, अत्यधिक लवणीय; फॉस्फेट, पोटाश विहीन | चावल |
मृदा अवकर्षण (Soil Degradation)
मृदा अवकर्षण को मृदा की उर्वरता के ह्रास के रूप में परिभाषित किया जा सकता है. इसमें मृदा का पोषण स्तर गिर जाता है और अपरदन व दुरुपयोग के कारण मृदा की गहराई कम हो जाती है. इसका एक कारण अपरदन भी है. भारत में मृदा संसाधनों के क्षय का मुख्य कारक मृदा अवकर्षण है.
मृदा अपरदन (Soil Erosion)
पृथ्वी के ऊपरी परत या मृदा के आवरण का विनाश अपरदन कहलाता है. बहते जल और पवनों की अपरदनात्मक प्रक्रियाएँ तथा मृदा निर्माणकारी प्रक्रियाएँ साथ-साथ घटित होती हैं. लेकिन कई बार प्राकृतिक अथवा मानवीय कारकों से यह संतुलन बिगड़ जाता है, जिससे मृदा के अपरदन की दर बढ़ जाती है. शुष्क और अर्ध-शुष्क प्रदेशों में मुख्यतः पवन द्वारा अपरदन होता है. लेकिन, जल-अपरदन अपेक्षाकृत अधिक गंभीर है. यह भारत के विस्तृत क्षेत्रों में होता है. जल-अपरदन दो रूपों में होता है – परत अपरदन और अवनालिका अपरदन.
भारत में, एक हालिया अध्ययन ने पूरे देश में मृदा अपरदन की चिंताजनक स्थिति पर प्रकाश डाला है. इस रिपोर्ट के अनुसार भारत की 30% भूमि “सामान्य” मृदा अपरदन का सामना कर रही है, जबकि 3% भूमि को “विनाशकारी” ऊपरीमृदा के नुकसान का सामना करना पड़ रहा है. मतलब 3 फीसदी भूमि प्रतिवर्ष प्रति हेक्टेयर 100 टन से अधिक मृदा विनाश से गुजर रहा है. असम में ब्रह्मपुत्र घाटी को मृदा अपरदन के लिए देश के सबसे बड़े हॉटस्पॉट के रूप में पहचाना जाता है. वहीं, ओडिशा मानवजनित हस्तक्षेपों के कारण “विनाशकारी” अपरदन के लिए एक और हॉटस्पॉट के रूप में उजागर हुआ है.
इस प्रकार मृदा अपरदन के प्राकृतिक और मानवीय कारण इस प्रकार है:
प्राकृतिक कारक
- वायु: तेज़ वायु ढीली मृदा के कणों को उड़ाकर दूर ले जाती है. ऐसा अधिकार विरल वनस्पति वाले शुष्क क्षेत्रों में होता है.
- जल: भारी वर्षा या तेज़ी से बहता जल मृदा के कणों को बहाकर नदी या समुद्र में समाहित कर देती है. ढलान वाली या कम वनस्पति आवरण वाले भूमि जल-अपरदन के मुख्य शिकार होते है.
- हिमनद और बर्फ: गतिशील हिमनद भी मृदा को बहाकर ले जाती है. ठंड और जल के पिघलने के चक्र के कारण मृदा अपने मूल परत से टूटकर अपरदन का शिकार हो जाता है.
मानव-प्रेरित कारक
- वनों की कटाई: वनों की कटाई से मृदा को जड़ों से प्राप्त होने वाला सुरक्षा कवच बिखर जाता है. इससे मृदा को वायु और वर्षा की पूरी ताकत का अकेले सामना करना पड़ता है. यह अपरदन को बढ़ा देता है.
- खराब कृषि पद्धतियाँ: अत्यधिक जुताई, मृदा की संरचना को नष्ट कर सकती हैं. इससे अपरदन को बढ़ावा मिलता है. परती अवधि के दौरान खेतों को खाली छोड़ना या अपर्याप्त फसल चक्र का उपयोग करने जैसी प्रथाएँ भी इस समस्या में योगदान करती हैं.
- अत्यधिक चराई: इससे मृदा पर स्थित वनस्पति आवरण को नुकसान पहुँचता है और मृदा अनावृत हो जाती है. इस प्रकार मृदा अपरदन के प्रति संवेदनशील हो जाती है.
- निर्माण गतिविधियाँ: निर्माण परियोजनाओं के दौरान भूमि की सफाई और खुदाई से मिट्टी खराब होती है. इसके मृदा के कटाव का खतरा बढ़ जाता है.
- सिंचाई की त्रुटिपूर्ण विधियाँ: अत्यधिक सिंचाई भी मृदा अपरदन को बढ़ा सकती है.
मृदा संरक्षण
मृदा निर्माण की यह प्रक्रिया इतनी धीमी है कि कुछ सेंटीमीटर गहराई तक मृदा बनने में लाखों वर्ष लग जाते हैं. इसके विपरीत, मृदा अवकर्षण और अपरदन मानवीय गतिविधियों और प्राकृतिक प्रक्रियाओं के कारण बहुत तेजी से हो रहा है. यदि मृदा के क्षरण की दर उसके निर्माण की दर से अधिक रहती है, तो उपजाऊ मृदा की उपलब्धता में तेजी से कमी आएगी. इस स्थिति के दूरगामी परिणाम खाद्य सुरक्षा, जैव विविधता और पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं पर होंगे. यह कृषि प्रणालियों पर भारी दबाव डालेगा, जिससे खाद्य उत्पादन की स्थिरता खतरे में पड़ सकती है और मरुस्थलीकरण जैसी समस्याएँ बढ़ सकती हैं. यह तथ्य मृदा संरक्षण के लिए तत्काल और प्रभावी उपायों की आवश्यकता पर बल देता है.
मृदा संरक्षण एक विधि है जिसमें मिट्टी की उर्वरता बनाए रखी जाती है, मिट्टी के अपरदन और क्षय को रोका जाता है, और मिट्टी की निम्नीकृत दशाओं को सुधारा जाता है. मृदा अपरदन को रोकने के लिए कई उपाय किए जाते हैं, जैसे ढालों की कृषि योग्य खुली भूमि पर खेती रोकना, सीढ़ीदार खेत बनाना, अति चराई और स्थानांतरी कृषि को नियंत्रित करना, समोच्च रेखा के अनुसार मेढ़बंदी, नियमित वानिकी, नियंत्रित चराई, आवरण फसलें उगाना, मिश्रित खेती तथा शस्यावर्तन. शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में बालू के टीलों के प्रसार को वृक्षों की रक्षक मेखला बनाकर रोका जा सकता है. भारत सरकार द्वारा केंद्रीय मृदा संरक्षण बोर्ड ने मृदा संरक्षण के लिए अनेक योजनाएँ बनाई हैं. मृदा संरक्षण का सर्वोत्तम उपाय भूमि उपयोग की समन्वित योजनाएँ हो सकती हैं, जिसमें भूमि का उनकी क्षमता के अनुसार वर्गीकरण और सही उपयोग शामिल है.