महात्मा ज्योतिबा फुले आधुनिक भारत के पहले समाज सुधारक थे, जिन्होंने जातिवादी भेदभाव से पनपे, छुआछूत अशिक्षा और हिन्दू धर्म में फैले अन्य सामाजिक कुरीतियों को खत्म करने के लिए उल्लेखनीय काम किया था. इन्होंने किसानों की स्थिति सुधारने, शूद्र व अछूत कहे जाने वाले जातियों और महिलाओं को उनके अधिकार दिलाने का उल्लेखनीय काम किया था.
ज्योतिबा फुले उन तीन विभूतियों में शामिल है, जिन्हें डॉ भीम राव आंबेडकर ने अपना गुरु माना है. भीमराव के दो अन्य गुरुओं में महात्मा बुद्ध और संत कबीर शामिल है.
भारत में बौद्ध धर्म के पतन के बाद मनुस्मृति पर आधारित हिन्दू धर्म का प्रादुर्भाव हुआ. इस परिघटना ने भारतीय समाज में रूढ़िवाद, सामाजिक असमानता और जातीय भेदभाव को फ़ैलाने का काम किया. ज्योतिबा फुले के सामाजिक कार्यों को मानुसृमिति पर आधारित समाजिक व्यस्था के खिलाफ संघर्ष के रूप में वर्णित किया जा सकता है.
ज्योतिबा फुले का बचपन और प्रारंभिक शिक्षा (Jyotiba Phule’s Childhood and Early Education in Hindi)
असमानता भरे सामाजिक परिवेश में महाराष्ट्र की धरती पर 11 अप्रैल 1827 को गोविंदराव के घर एक बालक का जन्म हुआ. बालक का नाम ज्योतिराव रखा गया. इनका पूरा नाम ज्योतिराव गोविंदराव फुले था. लेकिन ज्योतिबा फुले के नाम से मशहूर हुए. इनका जन्मस्थान महाराष्ट्र के सतारा जिले का काटगुन, खानवाड़ी है.
इनके माता का नाम चिमणाबाई फुले था. जब ज्योतिबा फुले मात्र एक वर्ष के थे, तो इनके माता का देहांत हो गया. इसलिए इनका बचपन में देखभाल सगुनाबाई नामक एक दाई द्वारा किया गया. ज्योतिबा फुले के कुशाग्र बुद्धि और आधुनिक सोच को जगाने में सगुणाबाई का अहम भूमिका रहा.
ज्योतिबा फुले का शिक्षा 7 साल के आयु में गांव के ही पाठशाला में मराठी भाषा में आरम्भ हुआ. लेकिन आर्थिक कठिनाइयों के कारण इनके पिता ने इन्हें स्कूल से निकलवा लिया. फिर ये खेत में अपने पिता का सहयोग करने लगे.
इसी समय ज्योतिबा फुले अपने समाज के स्थानीय बुजुर्गों से विचार-विमर्श किया करते थे. इस तरह ज्योतिबा में छिपे ज्ञानी पुरुष का आभास इन बुजुर्गों को हुआ. फिर इनके पिता को इन बुजुर्गों ने ज्योतिबा का शिक्षा का प्रबंध करने को कहा, जिसके बाद 1941 में स्कॉटिश मिशन स्कूल में इनका दाखिला हुआ. यहां 21 वर्ष के उम्र में ज्योतिबा फुले ने अंग्रेजी में सातवीं कक्षा पास कर ली.
ज्योतिबा फुले महाराष्ट्र के माली जाति से आते है, जो सब्जी और फूलों के खेती के लिए जाना जाता है. ज्योतिबा के परिवार में गजरा बनाकर बेचा जाता था. इसलिए इनके नाम में ‘फुले’ शब्द जुड़ गया.
इनका विवाह मात्र 13 वर्ष के उम्र में 9 वर्ष की बालिकावधू सावित्रीबाई फुले से हो गया. आगे चलकर दोनों ने मिलकार समाज सुधार और शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम किए.
सावित्रीबाई फुले का परिचय (Introduction to Savitribai Phule in Hindi)
महाराष्ट्र के नायगाँव में सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को हुआ था. उनकी माता लक्ष्मी और पिता खंडोजी नेवेशे पाटिल वर्तमान बिहार में अतिपिछड़ी कही जाने वाली जाति ‘माली’ में हुआ था. इस दौर में समाज में अंधविश्वास, कुरीतियों और अशिक्षा का बोलबाला था. इन्हीं कारणों से सावित्रीबाई फुले को अशिक्षित रखा गया और मात्र 9 वर्ष के उम्र में ज्योतिबाराव फुले के साथ ब्याह दी गई.
विवाह के पश्चात बलिका वधु सावित्रीबाई फुले अपने ससुराल चली आईं. जहां ससुराल आने पर अन्य लड़कियों को परदे के पीछे घरों तक समेट दिया जाता था, वहीं सावित्रीबाई फुले के लिए ससुराल ज्ञान का दृष्टि खोलने वाला साबित हुआ.
सावित्रीबाई फुले को उनके पति व समाज सुधारक ज्योतिबा फुले ने घर पर ही पढ़ाया. इस शिक्षा के कारण सावित्रीबाई फुले आगे चलकर शिक्षा के क्षेत्र में क्रान्ति लाने में सफल रही. बेशक इसमें अन्य लोगों का भी महत्वपूर्ण योगदान था. लेकिन इस क्रांति का मशाल लेकर चलने वाली सावित्रीबाई फुले इतिहास में अमर हो गई. यदि सच कहें, तो भारत में एकमात्र “ज्ञान की देवी” सावित्रीबाई फुले ही है.
सावित्रीबाई फुले ने उस समय पूना के मिशनरी स्कूल में तीसरी कक्षा में प्रवेश लिया था. वहीं अध्यापन कार्य का प्रशिक्षण भी लिया. छात्रावस्था में ही इन्होंने नीग्रो की दासता के विरुद्ध संघर्ष करने वाले क्रांतिकारी टॉमस क्लार्कसन की पुस्तकें भी पढ़ डाली थीं. ज्योतिबा फुले के समान ही उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले ने भी समाज की प्रताड़नाएं और अन्य कष्ट झेले.
जातिवादियों ने इनके कार्य को धर्म विरुद्ध कहा और इनके पिता को भड़का दिया. नतीजतन दम्पत्ति को घर से निकाल दिया गया. इन कष्टों को सहते हुए सावित्रीबाई स्वयं शिक्षित हुईं और भारत की प्रथम अध्यापिका का गौरव हासिल कर लिया.
सावित्रीबाई और ज्योतिबा फुले के कार्य का पृष्ठभूमि (Background of Savitribai and Jyotiba Phule’s works)
सावित्रीबाई और ज्योतिबा फुले ने शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किए है. भारत में आधुनिक और सबके लिए शिक्षा का द्वार खोलने का श्रेय इन्हें ही दिया जाता है. हिन्दू धर्म में शूद्रों और महिलाओं को शिक्षा का अधिकार नहीं था. महिलाओं को मात्र एक वस्तु समझा जाता था. इसका सबसे बुरा प्रभाव अवर्ण (पिछड़े या शूद्र या अछूत भी) जातियों पर हुआ था.
अशिक्षा के कारण जातिगत विवाह, बाल विवाह, बहु-पत्नी जैसे प्रथा सामान्य थे. साथ ही, पिछड़ों पर सवर्ण जातियों द्वारा अत्याचार व भेदभाव सामान्य थे. इन परिस्तिथियों में फुले दंपत्ति ने समाज में फैले आडम्बर, कुरीतियों, अशिक्षा और जातिवाद को सशक्त व सार्थक चुनौती दी.
उनके इस प्रयास से समाज में जातिवाद और दकियानूसी सोच को गहरा आघात पहुंचा. इससे शोषित व वंचित समाज को ऊँचा उठने में मदद मिला.
ज्योतिबा फुले के द्वारा सामजिक सुधार (Social Reforms by Jyotiba Phule)
महात्मा ज्योतिबा फुले भारत में सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई के अगुआ है. वे महान विचारक कार्यकर्ता समाज सुधारक लेखक, दार्शनिक संपादक और क्रांतिकारी थे. उन्होंने जीवन भर पिछड़ी जाति और महिलाओं के उद्धार के लिए काम किया. इस काम में उनकी धर्मपत्नी सावित्रीबाई फुले ने भी पूरा योगदान दिया. उन्होंने स्त्री शिक्षा और स्त्रियों के उत्थान के लिए भी काफी काम किए.
ज्योतिबा फुले के काम में उनकी पत्नी ने बराबर का योगदान दिया. हालांकि वह पढ़ी-लिखी नहीं थी और शादी के बाद ज्योतिबा फुले ने ही उन्हें पढ़ना लिखना सिखाया. फिर उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. ज्योतिबा फुले से महात्मा ज्योतिबा फुले बनने की उनकी यात्रा काफी रोचक और संघर्षपूर्ण कहानियों से भरे है. आइए हम इनके द्वारा किए गए कार्यों का एक-एक कर वर्णन करते है.
जब सावित्रीबाई फुले जिन्होंने खोला लड़कियों का पहला स्कूल (Women’s First School in Hindi)
मध्यकाल में भक्ति आंदोलन के दौरान गुरु कबीर, रैदास व नानक जी खासकर हिंदी पट्टी में पुनर्जागरण के अग्रदूत बने. इसने समाज में जागरूकता लाया और कबीर पंथ, रैदासिया समाज व सिख धर्म का जन्म हुआ. लेकिन, इसके बाद भी मनुवाद की जड़े यथावत कायम रही. महिलाओं पर मनुवाद के इन्हीं बेड़ियों को तोड़ने का काम माता सावित्रीबाई फुले ने शिक्षा का अलख जगाकर किया था.
यह बात उन्नीसवीं सदी के मध्य का है, जब ब्रिटिश सत्ता भारत में अपना कब्जा ज़माने के कोशिश में जुटी थी. अंग्रेजों के इस कोशिश के समानांतर मनुस्मृति द्वारा महिलाओं और शूद्रों को शिक्षा से वंचित करने के प्रयास के खिलाफ प्रयास जारी था. यह प्रयास फुले दंपत्ति कर रहे थे. इसमें सावित्रीबाई फुले को खासकर स्त्री शिक्षा के लिए प्रयास करने के कारण जाता है. इसलिए सावित्रीबाई फुले को भारत की पहली महिला शिक्षिका और आधुनिक भारत का निर्माता भी कहा जाता है.
प्रौढ़ शिक्षा (Elderly Education)
ज्योतिबा फुले ने 1855 ई. में प्रौढ़ शिक्षा को आरम्भ किया था. उन्होंने खेतों में या अन्य जगह काम करने वाले मजदूरों
और गृहणियों के लिए रात्रि पाठशालाएं खोलीं एवं अध्यापन कार्य चलाया. यह भारत की पहली रात्रि पाठशाला व प्रौढ़शाला
थी. उस समय शिक्षा घर-घर पहुंचाने की पहल चल रही थी. ज्योतिबा फुले ने श्रमिकों के लिए रात्रि स्कूल खोलकर उन
लोगों का शिक्षा की तरफ ध्यान आकर्षित किया था.
वर्तमान में भारत सरकार भी साक्षरता अभियान व सर्वशिक्षा अभियान चलाकर शिक्षा को हरेक के लिए उपलब्ध करवाने का प्रयास आकर रही है. ऐसा ही प्रयास 19वीं सदी में ज्योतिबा फुले ने पुणे के आस-पास के गांवों में प्रारम्भ किया था. इसका दूरगामी प्रभाव हुआ और आगे चलकर दबी-कुचली जातियों को भी शिक्षा का अधिकार प्राप्त हुआ.
सत्यशोधक समाज का स्थापना (Foundation of Satyashodhak Society in Hindi)
ज्योतिबा फुले स्वयं भी शूद्र जाति में पैदा हुए थे. अतः हिन्दू वर्ण व्यवासतः और जातिय उत्पीड़न का उन्हें प्रत्यक्ष अनुभव था. बकौल ज्योतिबा फुले, एक बार वे अपने ब्राह्मण मित्र के विवाह में गए थे. जब विवाह में सवर्णों को ये बात पता चली कि ज्योतिबा फुले ‘शूद्र’ है, तो उन्हें धक्का देकर आयोजन से बाहर कर दिया गया. अपने साथ हुए इन घटनाओं ने शिक्षित ज्योतिबा को उद्वेलित कर दिया था. इसलिए उन्होंने निम्न जातियों को एकजुट कर इस व्यवस्था के विरुद्ध आंदोलन करने का निर्णय लिया. इसके लिए 24 सितम्बर 1873 में सत्यशोधक समाज का स्थापना किया.
सत्यशोधक समाज का उद्देश्य इस प्रकार है-
- शूद्रों-अतिशूद्रों को पुजारी, पुरोहित, सूदखोर आदि की सामाजिक-सांस्कृतिक दासता से मुक्ति दिलाना,
- धार्मिक-सांस्कृतिक कार्यों में पुरोहितों की अनिवार्यता को खत्म करना,
- शूद्रों-अतिशूद्रों को शिक्षा के लिए प्रोत्साहित करना, ताकि वे उन धर्मग्रंथों को स्वयं पढ़-समझ सकें, जिन्हें उनके शोषण के लिए ही रचा गया है,
- मूर्ति पूजा और जाति-प्रथा को अस्वीकारना,
- सामूहिक हितों की प्राप्ति के लिए उनमें एकजुटता का भाव पैदा करना,
- धार्मिक एवं जाति-आधारित उत्पीड़न से मुक्ति दिलाना,
- पढ़े-लिखे शूद्रातिशूद्र युवाओं के लिए प्रशासनिक क्षेत्र में रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना इत्यादि.
कुल मिलाकर ये सामाजिक परिवर्तन के घोषणापत्र को लागू करने का कार्यक्रम था, जिसका मुख्य लक्ष्य शूद्र एवं अस्पृश्य जाति के लोगों को मानसिक दासता से विमुक्त करना था.
उनके इन कार्यों के कारण ही 1881 में मुंबई (तात्कालीन बम्बई) में उन्हें ‘महात्मा’ के उपाधि से सम्मानित किया गया. महात्मा ज्योतिबा फुले ने ही दमित व वंचित जातियों के लिए मराठी शब्द ‘दलित’ का इस्तेमाल किया. आज यह शब्द उत्तर भारत में ‘अनुसूचित जाति’ के लिए इस्तेमाल किया जाता है.
समानता के लिए ज्योतिबा फुले के कार्य (Works of Jyotiba Phule for Equality)
ज्योतिबा फुले ने थॉमस पेन (Thomas Paine) का विख्यात पुष्तक ‘राइट्स ऑफ़ मैन’ (Rights of Man) का अध्ययन किया था. यह पुस्तक फ़्रांसिसी क्रांति के औचित्य को सही बताता था. इसमें समानता के लिए किए गए क्रांति का बचाव किया गया था. ज्योतिबा फुले ने इसी पुस्तक के आधार पर समस्त स्त्री-पुरुषों को जन्म से समान और स्वतंत्र बताया.
इसी के आधार पर उन्होंने पिछड़ी जातियों के लिए कानून के समक्ष समानता का मांग किया. साथ ही, प्रशासनिक सेवा और नगरपालिकाओं में सभी के प्रवेश को खोलने का मांग किया.
चूँकि हिन्दू धर्म के पुराण और वेद, समाज में जातिवाद और भेदभाव को बढ़ावा देते थे. इसलिए ज्योतिबा फुले ने उन्होंने इन ग्रंथों का विरोध किया. ज्योतिबा ने वेदों को ईश्वर रचित और पवित्र मानने से इंकार कर दिया. साथ ही, चतुर्वर्ण जाति व्यवस्था का भी उन्होंने विरोध किया और मानने से इंकार कर दिया.
उनका ये मानना था कि भारतीय समाज में भी थोड़े-बहुत सुधार हुए है, उनके पीछे ब्रिटिश सत्ता का हाथ हैं. लेकिन उन्होंने इसे पर्याप्त नहीं माना और जनसाधारण को शिक्षित कर इसे व्यापक बनाने का विचार दिया. इसी ध्येय को ध्यान में रखकर फुले दम्पत्ति ने कई विद्यालयों का स्थापना किया था.
समाज में बदलाव लाने और समानता स्थापित करने के लिए अनगिनत कार्य ज्योतिबा फुले ने किए था. इन्हीं में एक है सबके लिए सुलभ कुआं खुदवाना. दरअसल, दलितों को गांव के सार्वजनिक कुएं से पानी भरना मना था. इसलिए, उन्होंने 1868 में घर के पास अपने जमीन पर एक कुंआ खुदवाया. इससे जातिवादियों में उनके खिलाफ आक्रोश पैदा हो गया.
ब्राह्मणवाद के श्रेष्ठता से महात्मा ज्योतिबा फुले का द्वंद्व (Mahatma Jyotiba’s conflict with the superiority of Brahminism)
- ज्योतिबा फुले ने ब्राह्मणों द्वारा श्रेष्ठता के दावों का आलोचना किया और इसे ख़ारिज किया. इस वक्त ब्राह्मणों को आर्य माना जाने लगा था.
- ज्योतिराव फुले के अनुसार आर्य विदेशी थे जो भारत आकर बस गए है. आर्यों ने भारत की सच्चे वासिंदो को हराकर अपने अधीन कर लिया.
- आर्यों के आगमन से पहले भी ये पराधीन लोग यहां रहते थे.
- आर्यों ने अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए पराजित आबादी को छोटी जाति और निकृष्ट माना और प्रचारित किया.
- तथाकथित निम्न जाति के लोग जो मूलनिवासी थे, का सत्ता और भूमि पर अधिकार था. “उच्च” जातियों का सत्ता और भूमि पर कोई अधिकार नहीं था.
- जाति-आधारित भेदभाव को चुनौती देने के लिए ज्योतिबा ने दलितों (अछूतों) और शुद्रो (श्रमिक जातियों) के एकता को बढ़ावा दिया. दरअसल, ये दोनों ही मनुस्मृति के कारण शिक्षा से वंचित थे और कई तरह के असमानता के शिकार थे.
- ज्योतिराव फुले के दावों के अनुसार, आर्यों के आगमन से पहले ग्रामीण इलाकों पर मराठा योद्धा-किसानों द्वारा निष्पक्ष और उचित तरीके से शासन किया जाता था. ज्योतिबा ने इसे स्वर्ण युग माना.
- बाल गंगाधर तिलक जैसे स्वतंत्रता सेनानियों ने आर्य काल की महिमा पर जोर दिया. प्रयुत्तर में ज्योतिबा फुले ने पूर्व-आर्य युग की महिमा को याद किया. छत्रपति शिवजी महाराज के समाधि की खोज, दलितों और पिछड़ों के गौरव को याद दिलाने के उद्देश्य से ही किया गया था. उन्होंने ही रायगढ़ किले में पत्थरों और पत्तों से ढकें समाधि स्थल का जीर्णोद्धार करवाया था.
- विधवाओं का सर मुंडन कर दिया जाता था. फुले दम्पत्ति ने इस प्रथा का विरोध करने के लिए महाराष्ट्र में नाइयों का हड़ताल करवाया.
रचनाए और पुस्तकें (Works and Books)
ज्योतिबा फुले ने अपने विचारों को फैलाने के लिए कई पुस्तकों का रचना किया था. इनमें जातिभेद विवेक सार (1865), ब्राह्माणाचे कसब (1869), गुलामगिरी (1873), शेतकर्यांचा आसुड (1881), तृतीय रत्न, सीक्रेट राइटिंग्स ऑफ ज्योतिराव फुले और सार्वजनिक सत्यधर्म पुस्तिका (1891) शामिल है.
गुलामगिरी इन पुस्तकों में सबसे अधिक प्रसिद्ध है, जिसमें जोतिबा और धोंडीराव के बीच वार्तालाप के माध्यम से वंचित व पिछड़ी जातियों के अज्ञानता को समाप्त करने का कोशिश किया गया है.
ज्योतिबा फुले के महत्वपूर्ण विचार (Remarkable Thoughts of Jyotiba Phule)
- ब्राह्मणों ने दलितों के साथ जो किया वो मामूली अन्याय नहीं है.
- पृथ्वी पर सभी प्राणियों में मानव श्रेष्ठ है और मनुष्यों में नारी श्रेष्ठ है. स्त्री और पुरुष जन्म से ही स्वतंत्र है, इसलिए दोनों को सभी अधिकार समान रूप से भोगने का अवसर प्रदान होना चाहिए.
- ब्राह्मण दावा करते है कि वे ब्रह्मा के मुख से पैदा हुए है, तो क्या ब्रह्मा के मुख में गर्भ ठहरा था? क्या माहवारी भी ब्रह्मा के मुख में आई थी? और अगर जन्म दे दिया तो ब्रह्मा ने शिशु को स्तनपान कैसे करवाया?
- शिक्षा से पिछड़ी और दलित जाति के उत्थान पर- अनपढ़, अशिक्षित जनता को फंसाकर वे अपना उल्लू सीधा करना चाहते है. इसलिए आपको शिक्षा से वंचित रखा जा रहा है.
- मंदिरों के देवी-देवता ब्राह्मणों का ढ़कोसला है. दुनिया बनाने वाला एक पत्थर विशेष या ख़ास जगह तक सिमित कैसे हो सकता है? जिस पत्थर से सड़क, मकान वगैरह बनाया जाता है, उसमें देवता कैसे हो सकता है.
- भारत में राष्ट्रीयता की भावना का विकास तबतक सम्भव नहीं है, जबतक खानपान और वैवाहिक संबंधों पर जातिय भेदभाव बने रहेंगे.
- बाल काटना नाई का धर्म नहीं, धंधा है. चमड़े की सिलाई करना मोची का धर्म नहीं, धंधा है. उसी प्रकार पूजा-पाठ करना ब्राह्मण का धर्म नहीं, धंधा है.
सावित्रीबाई ने यूँ संभाली विरासत (Savitribai’s Access to Heritage)
सावित्रीबाई 1847 में अपनी चौथी परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद एक योग्य शिक्षक बनीं. उन्होंने अहमदनगर और पुणे में शिक्षण का प्रशिक्षण लिया था. ज्योतिबा फुले के मृत्यु के बाद उनके विरासत को आगे बढ़ाने का भार इन्हीं पर आ गया.
मनु स्मृति में महिला और शुद्रो के शिक्षा का निषेध किया गया है. इसी कारण जब सावित्रीबाई पढ़ाने के लिए विद्यालय जाती थी तो उनपर कीचड़ और गोबर फेंके जाते थे. इसलिए वे एक साड़ी झोले में रखकर चलती थी, जिसे विद्यालय जाने पर कीचड़युक्त कपड़े से बदल देती थी.
भारत में सती प्रथा पर रोक लगाए जाने के बाद विधवाओं का स्थिति दयनीय हो गई थी. इसलिए सावित्रीबाई ने 1854 में विधवा आश्रय स्थल खोला. 1864 में इस आश्रय स्थल को बड़ा बनाया गया. अब विधवाओं के अलावा परिवार से निकाली गई बेसहारा स्त्रियों और बालिका वधुओं को भी आश्रय दिया जाने लगा. इन्हें शिक्षित भी किया गया. इसी दौरान एक विधवा के बेटे, यशवंतराव को फुले दम्पत्ति ने गोद लिया.
ज्योतिबा फुले के मृत्यु के बाद सत्यशोधक समाज और फुले दम्पत्ति द्वारा खोले गए विद्यालयों का संचालन सावित्रीबाई और यशवंतराव के कन्धों पर आ गया. समाज सुधार के साथ इन्होंने इस कार्य को जारी रखा.
इस लेख में ज्योतिबाफुले जी का जन्म वर्ष गलत बताया गया है।